रस (परिभाषा, भेद और उदाहरण) | Ras Kise Kahate Hain

विषय सूची
रस क्या होते हैं?
रस की परिभाषा: ऐसा कहा जाता है कि श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवन से ही एवं दृश्य काव्य के दर्शन एवं श्रवण से जो अलौकिक आनंद प्राप्त होती है, आनंद भी रस होता है।
किसी भी काव्य के पठन अथवा श्रवन से जो रस होता है, उससे जिस भाव की अनुभूति होती है, उस भाव को हम रस का स्थाई भाव कहते हैं। रस, छंद और अलंकार यह तीनों ही काव्य रचना के आवश्यक अवयव है।
अथवा,
वह पाठक या काव्य को सुनने वाला श्रोता की हृदय में काव्य को पढ़ते समय जो भी स्थाई भाव होता है, वही विभावादी से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणित होता है।
“रस को हम प्राण तत्व या काव्य की आत्मा कह सकते हैं।”
भरत मुनि द्वारा रस की परिभाषा
रस की उत्पत्ति और रस की परिभाषा को उत्पन्न करने का श्रेय भरतमुनि को ही जाता है, क्योंकि भरत मुनि ने ही अपने नाट्य शास्त्र में रस के आठ प्रकारों का उल्लेख किया है। रस के बारे में बताते हुए भरत मुनि ने कहा है कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत किया गया एक भाव मुल्क का कलात्मक अनुभूति कराता है।
रस का केंद्र रंगमंच को माना जाता है। भाव को रास नहीं कहते बल्कि, भाव को रस का आधार कहा जाता है। परंतु भरत मुनि ने रस का स्थाई भाव ही माना है।
भरतमुनि के द्वारा लिखी गई कुछ पंक्ति
“विभावानुभावव्यभिचारी- संयोगद्रसनिष्पत्ति”
अर्थात, अनुभव, विभाव, तथा संचारी भावों के योग से रस की निष्पत्ति हो जाती है, भरत मुनि ने कहा है कि रस तत्वों का आधारभूत विषय नाट्य में रस की निष्पत्ति होती है। काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य की आत्मा को ही रस माना है।
अन्य विद्वानों के द्वारा रस की परिभाषा
अचार्य धनंजय जी ने रस की परिभाषा देते हुए कहा है
विभाव, अनुभव, सात्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के योग से जो आस्वाद्यमान स्थायी भाव होता है, उसे ही रस कहते हैं।
साहित्य दर्पण कार आचार्य विश्वनाथ ने रस की परिभाषा देते हुए निम्नलिखित पंक्ति बताई है
विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥
डॉ. विशंभर नाथ के द्वारा रस की परिभाषा निम्नलिखित वाक्यों में स्पष्ट है।
भावों के छंदात्मक संयोग का नाम ही रस कहलाता है।
आचार्य श्याम सुंदर दास के द्वारा रस की कही गई परिभाषा
स्थाई भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन का सहयोग करते हैं। तो साहित्य परीक्षक के हृदय से रस रूप में उसका आस्वादन किया जाता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा इस प्रकार है
जिस भी भाटी में आत्मा की मुक्ता अवस्था ज्ञान दशा हो जाती है। उसी भांति ही दें कि मुक्त अवस्था को रस दशा कहते हैं।
रस के अंग
हिंदी व्याकरण के अनुसार रस के मुख्य 4 अवयव होते हैं। जो कि इस प्रकार हैं।
- विभाव
- अनुभाव
- संचारी भाव
- स्थायी भाव
1. रस का विभाव: ऐसी अभिव्यक्ति पदार्थ अथवा अन्य व्यक्ति के हृदय के भावों को जागृत करते हैं। उन्हें विभाव कहते हैं। तथा इसके आश्रय से रस प्रकट होता है। इसी कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाए जाते हैं। मुख्य रूप से भावों को प्रकट करता है। उनको विभाव रस कहते हैं। इनको कारण रूप भी कहा जाता है।
स्थाई भाव के प्रकट होने से मुख्य कारण आलंबन विभाव का होता है। यही वजह है कि जब प्रकट हुए अस्थाई भागों में और ज्यादा उद्दीप्त उत्तेजित प्रबुद्ध करने वाले कारणों को ही उद्दीपन विभाव कहलाते हैं।
रस का विभाव दो प्रकार के होते हैं।
- आलंबन विभाव
- उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव : आलंबन विभाव ऐसी भाव को कहते हैं, जिसका की आलंबन यह सहारा पाकर स्थाई भाव जागृत होते हैं। उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं। जैसे कि नायक, नायिका।
आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं।
- आश्रयालंबन
- विषयलंबन
ऐसे भाव जो कि मन में भाव जगे वह आश्रय आलंबन भाव कहलाते हैं। और जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जागते हो। वह विषय आलंबन भाव कहलाते हैं।
उदाहरण: यदि भगवान राम के मन में सीता मां के प्रति रत्ती का भाव जागता है, तो राम आश्रय अलंबन होगी होंगे और सीता विषय आलंबन।
उद्दीपन विभाव: उद्दीपन विभाव ऐसे होते हैं जो कि किसी वस्तु या परिस्थिति को देखकर स्थाई भाव को उद्दीप्त करने लगे। उस भाव को ही उद्दीपन विभाव कहते हैं। जैसे की चांदनी, कोकुल, कुंजन, एकांत, स्थल, रमणीय, उद्यान, नायक या नायिका, किशारीरिक, चेष्टाएं आदि।
2. रस का अनुभव: ऐसी भाव जो मनोगत भाव को प्रकट करने के लिए शरीर विकार को अनुभाव कहते हैं।
ऐसी भाव जो अंगों और वाणीओं के अभिनय द्वारा ही अर्थ को प्रकट करते हैं। वह अनुभाव कहलाते हैं।
रस का अनुभव की कोई भी संख्या निश्चित नहीं होती है। रस का अनुभव जो कि 8 अनुभव सहज और सात्विक विकारों के रूप में प्रकट होते हैं। उन्हें वह सात्विक भाव कहलाते हैं।
- स्तंभ
- स्वेद
- रोमांच
- स्वर भंग
- कंप
- विवर्णता
- अश्रु
- प्रलय
3. रस का संचारी भाव: ऐसे भाव जो और स्थानीय भावों के साथ संचरण करते रहते हैं। वह संचारी भाव कहलाते हैं।
इस तरह के भाव से स्थिति भाव की पुष्टि होती है। एक संचारी भाव किसी भी स्थाई भाव के साथ नहीं रह सकता है। इसीलिए वह व्यभिचारी भाव कहलाएंगे।
इनकी संख्या 33 मानी जाती है।
हर्ष |
अवहित्था |
चिंता |
ग्लानि |
गर्व |
मोह |
जड़ता |
दीनता |
बिबोध |
मति |
स्मृति |
स्वप्न |
व्याधि |
अपस्मार |
विशाद |
निर्वेद |
शंका |
आलस्य |
उत्सुकता |
उन्माद |
आवेग |
लज्जा |
श्रम |
अमर्श |
मद |
चपलता |
मरण |
दैन्य |
त्रास |
सन्त्रास |
असूया |
औत्सुक्य |
उग्रता |
चित्रा |
धृति |
वितर्क |
निंद्रा |
|
रस के स्थाई भाव: ऐसे भाव जो कि प्रधान भाव कहलाते हैं, प्रधान भाव कहने का तात्पर्य है कि जो रस की अवस्था तक पहुंचाता है और काव्य नाटक में एक स्थाई भाव शुरू से आखरी तक मौजूद होता है। वह प्रधान भाव कहलाते हैं। और इसे ही स्थाई भाव कहते हैं।
स्थायी भावों की मुख्यतः संख्या 9 है स्थायी भाव है। रस का मूल आधार है। हरीश रश्मि एक मूल स्थाई भाव होता है। और अतीव रसों की संख्या भी नौ रहती है। जिन्हें नवरस भी कहा जाता है। बाद में आचार्यों ने दो और भाव वात्सल्य और भगवत विषयक रति को स्थाई भाव की मान्यता प्रदान की इस तरह से स्थाई भाव की संख्या 11 हो गई और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 हो गई।
रस के प्रकार
- श्रृंगार रस
- हास्य रस
- रौद्र रस
- करुण रस
- वीर रस
- अद्भुत रस
- वीभत्स रस
- भयानक रस
- शांत रस
- वात्सल्य रस
- भक्ति रस
इस लेख में आपने जाना रस के की परिभाषा भेद और उदाहरण (Ras Kise Kahate Hain)। साथ ही इस लेख में आपने समझा की रस के कितने सारे आचार्यों ने परिभाषा अपने हिसाब से दी है। इस लेख में रस के वेद प्रकाश पुरी विस्तार से आसान भाषा में आपको समझाया गया है।
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Veri nice Post sir