Vibhats Ras in Hindi: हिंदी व्याकरण जिसमें संधि और सर्वनाम के अलावा बहुत सारी महत्वपूर्ण इकाइयां होती हैं, जिसमें से एक रस भी है। आज के लेख में रस के ही एक भाग वीभत्स रस के बारे में विस्तारपूर्वक जानने वाले है।
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वीभत्स रस की परिभाषा (Vibhats Ras Ki Paribhasha)
इसे एक मुक्तक के माध्यम से समझा जा सकता है, जो कि वीभत्स रस को समझाने के लिए या इसकी व्याख्या के लिए ही रचा गया है।
काव्य को सुनने पर जब घृणा के से भाव की अनुभूति होती है तो इस अनुभूति को ही वीभत्स रस कहते हैं। अन्य शब्दों में वीभत्स रस वह रस है, जिसमें घृणा का भाव होता है अथवा जिसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है।
वस्तु घिनौनी देखी सुनि घिन उपजे जिय मांहि।
छीन बाढ़े बीभत्स रस, चित की फुची मिट जांहि।
निन्द्य कर्म करि निन्द्य गति, सुने कि देखे कोई।
तन संकोच मन सम्भ्रमरु द्विविध जुगुत्सा होई।।
वीभत्स रस परिचय
वीभत्स रस का काव्य के सभी नौ रसों में एक बहुत ही मत्वपूर्ण स्थान है। वीर रस, वीभत्स रस, श्रृंगार रस तथा रौद्र रस ही प्रमुख रस हैं तथा भयानक, वात्सल्य, शांत, करुण, भक्ति, हास्य रसों की उत्पत्ति इन्हीं प्रमुख चार रसों से हुई है। वीभत्स रस की उपस्थिती ऐसे काव्य में होती है, जिस काव्य में काव्य की विषय वस्तु में घृणा योग्य उद्दीपन व अलाम्बनों का समावेश होता है।
वीभत्स रस चरित्र की उस मनःस्थिती को बताता है जब वह निराशा जनक विचार व उद्दीपन को त्याग देने वाली चिंता आदि से गुज़र रहा होता है तो संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि काव्य के जिस भाग में घृणा को प्रकट किया जाता है, वहां वीभत्स रस होता है।
वीभत्स रस के अवयव
- स्थायी भाव: जुगुप्सा।
- आलंबन (विभाव): कोई भी वस्तु, चरित्र, घटना या विचार आदि जिससे सामना होने पर घृणा उत्पन्न हो जाए जैसे कोई सड़ी-गली वस्तु या कोई निर्मम घटना आदि।
- उद्दीपन (विभाव): सडन, गंदगी, बदबू, स्मृति, घृणा योग्य अनुभूति या चेष्टा।
- अनुभाव: आँखें मींच लेना, देह समेट लेना, स्वयं को पीछे कि ओर हटाना या ले जाना, नाक सिकुड़ना, मुंह सिकुड़ना, कंधे उचकाना या ऊपर कि ओर धकेलना, पीछे की ओर देखना या पलट जाना आदि।
- संचारी भाव: उप्काई आना, एक प्रकार की चिंता का होना, अप्रसन्नता, उद्दीपन के त्याग की अनुभूति।
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वीभत्स रस का स्थाई भाव क्या है?
वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है।
वीभत्स रस के भेद
- क्षोभज
- शुद्ध
- उद्वेगी
वीभत्स रस के उदाहरण (Vibhats Ras Ke Udaharan)
आंतन की तांत बाजी, खाल की मृदंग बाजी।
खोपरी की ताल, पशु पाल के अखारे में।।
इस ओर देखो, रक्त की यह कीच कैसी मच रही!
है पट रही खंडित हुए, बहु रुंड-मुंडों से मही।।
कर-पद असंख्य कटे पड़े, शस्त्रादि फैले हैं तथा
रणस्थली ही मृत्यु का एकत्र प्रकटी हो यथा!
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते।
सिर पर बैठो काग आँखि दोउ-खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।
शंकर की दैवी असि लेकर अश्वत्थामा,
जा पहुँचा योद्धा धृष्टद्युम्न के सिरहाने,
बिजली-सा झपट खींचकर शय्या के नीचे,
घुटनों से दाब दिया उसको,
पंजों से गला दबोच लिया,
आँखों के कटोरे से दोनों साबित गोले,
कच्चे आमों की गुठली जैसे उछल गए।
अब तक हमने वीभत्स रस के 5 उदाहरण जाने चलिए कुछ और वीभत्स रस के सरल उदाहरण जानते है और वीभत्स रस को विस्तार से जानते है।
झुकते किसी को थे न जो, नृप-मुकुट रत्नों से जड़े,
वे अब शृगालों के पदों की ठोकरें खाते पड़े।
पेशी समझ माणिक्य यह विहग देखो ले चला,
पड़ भोग की ही भ्रांति में, संसार जाता है छला।
हो मुग्ध गृद्ध किसी के लोचनों को खींचते,
यह देखकर घायल मनुज अपने दृगों को मींचते।
मानो न अब भी वैरियों का मोह पृथ्वी से हटा,
लिपटे हुए उस पर पड़े, दिखला रहे अंतिम छटा।
यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला।
दारुण दृश्य! रुधिर के छींटे, अस्थिखंड की माला।।
वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कातर वाणी।
मिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी।।
बहु चील्ह नोंचि ले जात तुच, मोद मठ्यो सबको हियो।
जनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहुँ दियो।।
कितनी सुखमय स्मृतियाँ, अपूर्ण रुचि बनकर मँडराती विकीर्ण,
इन ढेरों में दुख भरी कुरुचि दब रही अभी बन यंत्र जीर्ण।।
आती दुलार को हिचकी-सी, सूने कोनों में कसक भरी,
इस सूखे तरु पर मनोवृत्ति, आकाश बेलि-सी रही हरी।
वस्तु घिनौनी देखी सुनि घिन उपजे जिय माँहि।
छिन बाढ़े बीभत्स रस, चित की रुचि मिट जाँहि।
निन्द्य कर्म करि निन्द्य गति, सुनै कि देखै कोइ।
तन संकोच मन सम्भ्रमरु द्विविध जुगुत्सा होइ।।
अब तक हम वीभत्स रस के 10 उदाहरण जान चुके है। चलिए कुछ और वीभत्स रस के छोटे उदाहरण जानते है।
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथों तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आख़िर हत्या होगी।।
लेकिन हाय मैंने यह क्या देखा,
तलवों में वाण विधते ही,
पीप भरा दुर्गंधित नीला रक्त,
वैसा ही बहा,
जैसा इन जख्मों से अक्सर बहा करता है।।
जहँ-तहँ मज्जा मॉस, रूचिर लखि परत बयारे।
जित-जित छिटके हाड़, सेत कहुँ-कहुँ रतनारे।।
गिद्ध चील सब मंडप छावहिं काम कलोल करहि औ गावहिं।
आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते
भोजन में श्वान लगे, मुरदे थे भू पर लेटे
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सम बहते बहते बेटे।।
निष्कर्ष
हमने देखा कि किस प्रकार वीभत्स रस की उपस्थिति में घृणा व त्याग का भाव होता है, जो कि काव्य में किसी चरित्र के द्वारा ऐसी घृणित या अन्य त्याग योग्य नकारात्मक परिस्थिती उत्पन्न करने के कारण लक्षित चरित्र के व्यव्हार में एक तरह की चिंता, पलायन आदि परिवर्तन को लाता है और लक्षित व्यक्ति की एक घृणा विशेष आनन अभिव्यक्ति व शारीरिक अभिव्यक्ति को संचालित करता है।
ऐसी घृणा की स्थिती में काव्य में लक्षित चरित्र के पलायन, अंगों को समेटने की प्रवृत्ती होती है तथा चरित्र उद्दीपन से दूर जाना चाहता है या उद्दीपन को ही दूर कर देना चाहता है और उद्दीपन की उपस्थिती में चरित्र पीछे की ओर हटने या जाने लगता है।
उसे एक अजीब सी चिंता उपजने लगती है तथा कभी-कभी उसके रोंगटे उठने लगते हैं। भौतिक उद्दीपन से घृणा की स्थिती में उप्काई भी आती है या आ सकती है व विशेष आनन् अभिवक्ति जैसे मुह सिकुड़ना, नाक सिकुड़ना, चेहरा बहुत खराब सा बना लेना, थूकना आदि की प्रेरणा मिलती है।
FAQ
काव्य को सुनने पर जब घृणा के से भाव की अनुभूति होती है तो इस अनुभूति को ही वीभत्स रस कहते हैं।
जहँ-तहँ मज्जा मॉस, रूचिर लखि परत बयारे।
जित-जित छिटके हाड़, सेत कहुँ-कहुँ रतनारे।।
वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है।
अंतिम शब्द
इस लेख में हमने आपको वीभत्स रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण (Vibhats Ras in Hindi) के बारे में विस्तारपूर्वक बताया है। आर्टिकल पसंद आये तो शेयर जरुर करें। यदि आपके मन में इस आर्टिकल को लेकर किसी भी प्रकार का कोई सवाल या फिर सुझाव है, तो कमेंट बॉक्स में हमें जरूर बताएं।
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