भक्ति काल (Bhakti Kaal): भक्तिकाल को एक और नाम पूर्व मध्यकाल हिंदी साहित्य नाम से जाना जाता है, इस समय को हिंदी काल का स्वर्णिम युग माना जाता है। इसका समय 1350 ई० से 1650 ई० तक रहा।

भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) हिंदी साहित्य का सम्पूर्ण इतिहास | Bhakti Kaal
भक्तिकाल का उदय
”भक्तिकाल का उदय” के बारे में सबसे पहले जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपना विचार रखा और उनका मानना था कि यह कल ईसायत की देन है। तो वही ताराचंद जी मानते थे कि भक्तिकाल अरबो के कारण उदीयमान है।
रामचंद्र शुक्ल के मत के अनुसार
देश में मुस्लिम राज्य के स्थापित हो जाने के बाद हिन्दुओ का मन गौरव गर्व और उत्साह से विरक्त हो गया, जब हिन्दुओ के सामने उनके मंदिर नष्ट कर दिए जाते थेकि उनके इष्ट देवताओ की मूर्तियों को भंग किया जाता था। उनके पंडितो तथा पुजारियों के अपमान के कारण, वे ऐसे स्थिति में लाचार और विवश थे। उनकी दशा दयनीय थी। वे वीरता भरे गीतों को सम्मान से ना तो गा सकते थे और ना ही सुन सकते थे।
इस हताश प्रजा के पास अपनी विवशता लेकर भगवान के शरण में जाने के अलावा कोई और मार्ग शेष ना था। यह भक्ति की गाथा जो दक्षिण से उत्तर की ओर से पहले से ही आ चुकी थी। लेकिन जनता ने उसे राजनितिक परिवर्तन की वजह से इसे फलने फूलने का पूरा मौका दिया।
भक्तिकाल के मुख्य कवि और उनकी रचनाये
भक्तिकाल के प्रमुख कवि: चैतन्य महाप्रभु, रसखान, सूरदास, व्यास जी, मीराबाई, स्वामी हरिदास, गोविंदस्वामी, कुम्भनदास, नंददास, मदनमोहन, कृष्णदास, परमानन्द, चतुर्भुजदास, हितहरिवंश, संत शिरोमणि, गदाधर भट्ट।
भक्तिकाल के कवि मुख्यतः दो धाराओ में विभक्त थे।
- निर्गुण काव्य धारा
- सगुण काव्य धारा
निर्गुण काव्य धारा के कवियों की विशेषता
निर्गुण काव्य धारा के कवि ईश्वर के निर्गुण अर्थात निराकार रूप की भक्ति करते थे, इनकी भी धाराएं दो भागों में विभक्त थी।
- संत काव्य धारा
- सूफी काव्य धारा
संत काव्य धारा के कवियों में सबसे प्रमुख
कबीर दास जी: कबीर दास जी संत काव्य धारा के कवियों में सबसे प्रमुख थे। कबीर संत परम्परा के मुख्य कवि है। इन्हें संत परम्परा का प्रतिनिधि कवि कहा जाता है। लेकिन इनके जन्म के विषय में विद्वानों में मतभेद है। ऐसा मानते है कि इनके जन्म जन्म का समय 1398 ई० तथा मृत्यु की समय सीमा 1518 ई० है।
कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के यहा हुआ था। लोक लाज के डर से उन्होंने इनका परित्याग कर दिया था। और एक तालाब में बहा दिया था। तब नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपत्ति ने, जो खुद नि:संतान थे, इस बालक का पालन पोषण किया। जो बड़ा होकर कबीरदास के नाम से विख्यात हुआ। इनके गुरु का नाम रामानन्द था।
वैसे तो कबीर स्वयं पढ़े लिखे नही थे, लेकिन इनकी वाणी को संजोकर किताब का आकार देने में इनके शिष्यों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कबीर की रचनाये बीजक नाम से प्रसिद्द है। इनकी रचनाओ में समाज के अन्धविश्वासो और कुरीतियों का घोर विरोध देखने को मिलता है। सामाजिक बुराइयों के प्रति इन्होने अपने पदों के माध्यम से कड़ा विरोध किया है।
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रामानंद जी: रामानंद जी के जन्म और मृत्यु के कोई ठोस साक्ष्य मौजूद नही है। इनके जीवन के विषय में कोई जानकारी नही है। ऐसा माना जाता है की इनका जन्म 15वी शती हो सकती है। इनके शिक्षण का स्थान काशी रहा तथा ये जिस परम्परा के शिष्य थे, वे रामानुजाचार्य थे।
नामदेव: इन्हें महाराष्ट्रियन भक्त के उपनाम से जाना जाता है। इनका जन्म स्थान सतारा जिले का नरसी बैनी गाँव था। जन्म का समय लगभग 1267 ई० था। इनके गुरु संत विसोवा खेवर जी थे। नामदेव की भाषा मराठी और हिंदी दोनों ही
थी। ये दोनों ही भाषाओ ने भजन गाने में निपुण थे। इनका विरोध मुख्य: रूप से हिन्दुओ तथा मुसलमानों की झूठी रूढ़िवादिता के खिलाफ था।
सूफी काव्य धारा के मुख्य कवि
मलिक मुहम्मद जायसी: सूफी काव्य धारा के मुख्य कवि मलिक मुहम्मद जायसी है। मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म रायबरेली जिले में जायस नामक स्थान पर सन 1492 ई० में हुआ था। इनके बचपन का नाम मलिक शेख मुन्सफी था। जन्मस्थान जायस होने के कारण जायसी शब्द इनके नाम में जुड़ गया। मलिक जायसी सूफी काव्य धारा के प्रेममार्गी शाखा का प्रतिनिधित्व करते है और इस शाखा के वे प्रतिनिधि कवि है। उनकी सबसे प्रमुख रचना पद्मावत की प्रेम पद्धति है। इसके अलावा उन्होंने अखरावट, आखिरी कलम, चित्ररेखा नामक कविताओ की रचना की है।
सूफी काव्य धारा के दूसरे मुख्य कवि
मुल्ला दाउद: सूफी कविताओ के रचनाकार मुल्ला दाउद की रचनाओ में सबसे प्रमुख रचना चंदायन था। जिसकी रचना की अवधि सन 1397 था। इसे प्रेमाख्यानक परम्परा का कहा जाता था।
कुतुबन: कवि कुतुबन की सबसे प्रमुख रचना का नाम मृगावती था। सन 1503 में इसकी रचना की गयी थी, चिश्ती वंश के प्रसिद्द शेख बुरहान इनके गुरु थे। और बुरहान जौनपुर के शासक हुसैनशाह के दरबार में उनके दरबारी कवि थे। मृगावती अवधी भाषा में लिखी गयी रचना थी।
निर्गुण काव्य की प्रमुख विशेषता
जैसा कि यहां पहले ही बताया जा चुका है, भक्तिकाल में काव्य में धाराए दो भागों में विभक्त थी। सगुण काव्यधारा और निर्गुण काव्यधारा।
इस प्रकार निगुण काव्यधारा की शाखाये दो भागो में बंटी थी।
- पहली ज्ञानाश्रयी तथा
- दूसरी प्रेमाश्रयी शाखा
ज्ञानाश्रयी: ज्ञानाश्रयी शाखा साधू संतो द्वारा आगे बढाया गया। फलस्वरूप इस काव्य धारा की महत्ता आम लोगो के लिए काफी बढ़ गयी। इसे जन जन में जीवन की पवित्रता को सुधारने वाला काव्य माना जाने लगा।
इस सन्दर्भ में डॉ. श्यामसुंदर दास ने अपना मत व्यक्त किया और कहा: संत कवियों द्वारा निर्गुण भक्ति को जन जन के समक्ष जिस प्रकार प्रस्तुत किया गया, उससे जनता के ह्रदय में आशा जग उठी। इसी काव्य धारा ने कुछ अधिक समय तक समस्याओ की जलराशि के ऊपर इसे बने रहने को विवश किया। संतो और कवियों ने विभिन्न कुरीतियों सामाजिक आडम्बरो, रुढियो आदि का पर्दाफाश करके जनता सच्चे और अच्छे मार्ग पर चले इसके लिए उन्हें प्रेरित किया।
ज्ञानाश्रयी शाखा अथवा संत काव्यधारा की प्रवृति एवं विशेषता निम्न है।
निजी धार्मिक सिद्धांतो का ना होना
इस साहित्य में निजी सिद्धांतो की कमी है ब्रह्म, जीवो, सांसारिक, माया आदि की बाते इसमें वर्णित है। वह पहले के कवियों द्वारा दी गयी है, पूर्व में आचार्यो ने जो बाते कही है, वही इनमे दोहरा दी गयी है।
आचार पक्षों का प्रधान होना
संत कवियों ने अपने काव्य में जो मत प्रस्तुत किया है, उनमे असंयम, आनाचार, एवं आडम्बरो का घोर विरोध है और खान पान, विचारो की शुद्धता, सदाचारी होने का विशेष महत्त्व बताया गया है। इन आचारो और विचारो पर अनेक पन्थो
का निर्माण हुआ, भारत में नानक पंथ, कबीर पंथ, दादू पंथ का निर्माण हुआ, लेकिन इनकी मौलिक एकता समान है।
गुरु के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा
संत कवियों की रचनाओ में गुरू को ऊँचा स्थान प्राप्त है। उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है, कि प्रभु की प्राप्ति के लिए सद्गुरु के चरण प्राप्त करना आवश्यक है। सद्गुरु शिष्यों को अनेक प्रकार से सद्मार्गो पर चलने की प्रेरणा देता है। वह अपनी आध्यात्म की शक्ति द्वारा अपने शिष्यों को परम तत्वों की प्राप्ति में हर प्रकार से सहायता प्रदान करता है।
निम्न जाति अथवा छोटी जातियों के कवि
निर्गुण काव्यधारा में अधिकतर जो भी कवि हुए, वे निम्न जाति से आते थे। समाज में उनका स्थान निचले स्तर का माना जाता था। निचली जातियों में जन्म लेने के कारण इनके संबंध ऊंची जाति वालों से कटुता के थे। इन कवियों में कबीर जुलाहा, रैदास चमार, नाभा दास डोम जैसे घरों से आते थे। समाज में का स्थान निम्न स्तर का माना जाता था।
सामाजिक बुराइयों का विरोध
यह सभी कवि एक साथ एक स्वर में जाति संबंधी समस्याओं और कुरीतियों का विरोध करते रहे समाज में इनका स्तर नीचा माना जाने के कारण इन्हें ज्ञान प्राप्ति के अवसर अथवा अधिकार नहीं थे। इन कवियों ने ज्ञान प्राप्ति के लिए संघर्ष किया, आगे आए किंतु कोई भी पंडित अथवा महात्मा ना तो इन्हीं शिक्षा देने के लिए तैयार हुआ ना ही इनका गुरु बनने के लिए तैयार आई।
शिक्षा की कमी
इनमें से अधिकतर संत कवि पढ़े-लिखे नहीं थे और कबीरदास के संबंध में तो एक दोहा भी अति प्रसिद्ध है।
मसि कागज छूयो नही, कलम गहि नही हाथ।
चारिक जुग को महातम, मुखहि जनाई बात।
इसका परिणाम यह निकला कि इन कवियों ने जो भी ज्ञान प्राप्त किया वह पंडितों महात्माओं संतो तथा भिन्न-भिन्न स्थानों पर भ्रमण करके जो अनुभव इन्हें प्राप्त हुआ। वहीं का ज्ञान भंडार बना इनके काव्य की यह विशेषता है कि इनमें मन की गुनी, कान की सुनी और आंखों से देखी हुई बात तो अथवा घटनाओं की ही मुख्य रूप से चर्चा है।
काव्य रूप: निर्गुण काव्यधारा को जिस रूप में लिखा गया है। वह रूप है साहित्य मुक्तक का लेकिन इनमें प्रबंधन की कमी है अधिकतर रचनाएं पदों और दोहे के रूप में ही मिलती हैं। यह कवि मस्त मौला स्वभाव के तथा अल्लाह अपने के अनुकूल ही अपने पदों और दोनों में स्वच्छंदता भरकर लिखते थे।
भाषाएं: संत कबीर मुख्यतः घुमक्कड़ भाषा का प्रयोग करते थे, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकना और जगह-जगह की भाषा का ग्रहण कर लेना इसी कारण इन कवियों में भाषाओं का और उसकी विविधताओं का भंडार था। इनकी भाषा को खिचड़ी नाम दिया जा सकता है। इनकी साधुक्कड भाषाएं अपरिमार्जित है। स्थान स्थान पर गूढ़ ज्ञान होने के कारण कई बार भाषा का क्लिष्ट हो जाना स्वाभाविक है, किंतु यह भी एक परम सत्य है कि यह कवि भाषाओं पर अपना जबरदस्त अधिकार रखते हैं।
सगुण काव्य धारा के कवियों की विशेषता
सगुण काव्य धारा के अंतर्गत कवि प्रभु के सगुण रूप साकार रूप की वंदना करते थे। यह भी मुख्यतः दो शाखाओं में विभक्त थी।
- राम भक्ति काव्य धारा
- कृष्ण भक्ति काव्य धारा
राम काव्य धारा के प्रमुख कवि
तुलसीदास: तुलसीदास जी किसी परिचय के मोहताज नहीं है, अपनी सबसे प्रमुख कृति रामचरितमानस अवधी रूप देखकर इन्होंने अपना नाम अमर कर लिया। इनके जन्म काल पर इन विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। उन्होंने कुल 13 ग्रंथों की रचना की इनमें रामचरित मानस, दोहावली, कवितावली, गीतावाली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, बरवै रामायण, हनुमान बाहुक, रामाज्ञा प्रश्न, वैराग्य संदीपनी, रामलला नहछू, जानकीमंगल, पार्वती मंगल।
तुलसीदास जी के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहां <क्लिक करें>
नाभदास: नाभा दास के गुरु का नाम अग्रदास जी था। अग्रदास जी बड़े भक्त और साधु प्रवृति के थे। इनकी समय सीमा 1657 के लगभग मानी जाती है और गोस्वामी तुलसीदास की मृत्यु के कई सालों तक भी यह जीवित रहे थे।
मुख्य रूप से उनकी तीन रचनाएं प्रकाश में है।
- रामाष्ट्याम
- भक्तमाल
- रामचरित संग्रह
स्वामी अग्रदास: अग्रदास जी के गुरु कृष्णदास पयहारी जी थे। कृष्णदास पयहारी जी रामानंद की परंपरा के शिष्य थे। इनके द्वारा लिखी गई चार पुस्तकों की जानकारी मिलती है।
प्रमुख कृतियों के नाम है
- हितोपदेश उपखाड़ा
- बावनी ध्यानमंजरी
- राम अष्टयाम
- रामध्यानमंजरी
कृष्ण काव्य धारा के मुख्य कवि
सूरदास जी: सूरदास जी कृष्ण काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में जाने जाते हैं। यह जन्म से ही नेत्रहीन थे, इनके जन्म का समय 1478 और मृत्यु 1573 ईसवी बताई जाती है। इसके पदो में गेय को माना जाता हैं।
इनकी रचनाओं में मुख्य रूप से तीन पुस्तकों की जानकारी मिलती है।
प्रमुख पुस्तक सुर सारावली जो 1103 पदों से सुसज्जित है। साहित्य लहरी इसके अलावा सूरसागर। सूरसागर में 12 स्कंध है और ऐसा माना जाता है कि इसमें सवा लाख पद थे लेकिन अब 45000 पदों का ही प्रमाण मिलता है यह श्रीमद्भागवत पुराण पर आधारित है।
कुंभन दास: कुंभन दास अष्टछाप के मुख्य कवि हैं, यह मथुरा के गोवर्धन में 1468 में पैदा हुए थे। तथा इनकी मृत्यु 1582 भी मानी जाती है। कुंभन दास के ज्यादातर पद फुटकल ही मिलते हैं।
नंद दास: नंददास 16 सती के अंतिम चरणों के कवि माने जाते थे। इनका जन्म रामपुर में हुआ था और जन्म का समय 1513 ईसवी था तथा उनकी मृत्यु की समय सीमा 1583 मानी जाती है। यह अधिकतर ब्रज भाषा का प्रयोग करते थे।
इनकी 13 रचनाएं उपलब्ध है:
- श्याम सगाई
- भंवर गीत
- गोवर्धन लीला
- रूपमंजरी
- विरहमंजरी
- सुदामा चरित
- रुक्मणी मंगल
- भाषा दशम स्कंध
- पदावली, मानमंजरी
- अनेकार्थ मंजरी
- सिध्दांत पंचाध्याई
- रास पंचाध्यायी
रसखान: रसखान का पूरा नाम सैयद इब्राहिम था। इनका जन्म 1533 में जिला हरदोई में हुआ था। इनका संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता। इन्हें उपनाम दिया गया प्रेम रस की खान। इनकी प्रमुख रचनाएं प्रेमवाटिका, सुजान रसखान है।
मीराबाई: मीराबाई को कृष्ण की सबसे बड़ी भक्तिनी माना जाता है। इनके जन्म का समय 1498 तथा मृत्यु का समय 1547 ईसवी है। मध्यकाल में इन्होंने स्त्रियों की परितंत्रिता की बाधाओं को तोड़कर स्वतंत्रता के साथ कृष्ण प्रेम का साहस करने और उसका प्रदर्शन करने की चेष्टा की।
समाज और परिवार के रीति रिवाज और दस्तूर सदैव इनकी बेड़ियां बनने का प्रयास करते रहे, किंतु उन्होंने स्थिति का बहादुरी से मुकाबला किया, तथा कृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगी, यही नहीं वह कृष्ण को अपना पति मानती थी। लेकिन विवाह के पश्चात मीराबाई के ससुराल पक्ष में कृष्ण भक्ति करना वहां के राजघराने की परंपरा के विरुद्ध था, उनका परिवार यह नहीं चाहता था कि मीरा कृष्ण भक्ति करें इस कारण उन्होंने इन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया और इन पर अत्याचार भी किए।
मीराबाई स्वयं को कृष्ण की प्रेमिका मान बैठी थी, तथा उनके सभी पद भी इसी प्रकार रचित थे , इनके पद भी मुख्य रूप से गेय ही थे। इनकी मृत्यु को लेकर अलग-अलग अनुमान लगाए जाते हैं कि इनके पति द्वारा इन्हें जहर दे दिया गया था। इनकी रचनाएं मीराबाई पदावली के नाम से प्रसिद्ध है।
सगुण भक्ति काव्य की विशेषताएं
पूर्व मध्यकाल हिंदी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण “स्वर्णिम युग” कहा जाने वाला काल भक्ति काल ही है। भक्ति काल की समय सीमा विद्वानों के मतानुसार 1375 से 1700 ईश्वी तक मानी जाती है। सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, राजनैतिक दृष्टि से अंतर्विरोध से से परिपूर्ण भक्ति काल में भक्ति का ऐसा रस प्रवाहित हुआ कि विद्वानों ने इसे एक साथ ही भक्ति काल नाम ही दे दिया।
भक्ति शब्द में भज धातु है तथा क्तिन प्रत्यय के साथ निर्मित यह शब्द इतना व्यापक है तथा गहन है।
सगुण भक्ति से तात्पर्य है: आराध्य का रूप, आकार तथा गुण की कल्पना को अपने भाव के के अनुसार ही उस रूप के दर्शन कर लेना। सगुण भक्ति में ब्रह्मा के अवतारी रूप ही प्रतिष्ठित है और अवतारवाद पुराण के साथ ही चर्चा में है। इस प्रकार विष्णु और ब्रह्मा के प्रथम तथा द्वितीय अवतार राम और कृष्ण की उपासना करने वाले लोगों के हृदय में राम और कृष्ण ही बसने लगे। जो राम और कृष्ण के उपासक है वह उन्हें विष्णु का अवतार मानने के पक्ष में नहीं बल्कि उन्हें परम ब्रह्म मानते हैं और यह बात जगह-जगह कई स्थानों पर चर्चित भी है ।
भक्तिकाल की सगुण काव्य धारा में आराधना किए जाने वाले देवताओं में श्री कृष्ण सबसे सर्वोपरि स्थान रखते हैं। श्री कृष्ण का उल्लेख वेदों में भी है ऋग्वेद में श्री कृष्ण (अंगिरास) के नाम से उल्लेखित है। लेकिन पुराणों तक सिर्फ कृष्ण ही नहीं राम भी अवतारों के रूप में प्रतिष्ठित हुए उन्हें पूर्ण ब्रह्मा के रूप में श्रीमद्भागवत पुराण में उनकी चर्चा है तथा चित्रण भी है।
भक्ति काल में श्री कृष्ण की भक्ति करने का प्रचार उनके जन्म एवं लीला की भूमि से ही बड़ा व्यापक रूप में हुआ था। वैष्णव भक्ति के संप्रदाय में निम्बाकार्चार्य – निंबार्क, श्री हित हरिवंश – राधा वल्लभ, चैतन्य महाप्रभु – गौड़ीय संप्रदाय, वल्लभाचार्य – पुष्टिमार्ग इन सभी संप्रदाय के लोगों ने श्री कृष्ण को पूर्णरूपेण ब्रह्म मानकर तथा राधा रानी को उनकी अर्धांगिनी मानकर शक्ति की मनसे उपासना की।
सत्य-चित्त तथा आनंद की प्रत्यक्ष प्रतिमा श्री कृष्ण यशोदा जी के आंगन में भिन्न भिन्न बाल लीलाओं के माध्यम से सभी गोकुल वासियों को आनंदित करते हैं उन्हें सुख प्रदान करते हैं, तो वही बाल रूप में ही राक्षसियो का तथा बड़े बड़े भयानक राक्षसों का अंत करके अपने दिव्य रूप को अत्यंत ही सहज रूप प्रदान कर देते है और यह बताते हैं कि वह अजर अमर अगम सर्वव्यापक सभी लक्षणों से युक्त है और ब्रज के सभी वासी उनकी लीलाओं से परम सुख की प्राप्ति करते हैं।
कृष्ण भक्ति हिंदी साहित्य के काव्य का आधार है, यह परंपराओं के स्वरूप में उपलब्ध है (आदिकाल में कृष्ण काव्य में 2 नाम उल्लेखित है चंदबरदाई और विद्यापति जी)। भक्ति कालीन युग में कृष्ण भक्त के कवियों में महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सभी को विशेष रूप से प्रभावित किया। उन्होंने कृष्ण के बाल और किशोर रूप की लीला का गायन अपने शोरूम में किया तथा श्रीनाथजी को गोवर्धन पर्वत पर प्रतिष्ठा देकर मंदिर निर्माण करवाया वल्लभाचार्य जी ने प्रभु के अनुग्रह को महत्व दिया और इसी पर विशेष बल दिया।
तो वही दार्शनिक क्षेत्र में विष्णु स्वामी के शब्द भेद अधिक प्रभावित दिखाई देते हैं। भक्ति मार्ग को पुष्टिमार्ग का नाम दिया और कई शिष्यों को कृष्ण भक्ति का मंत्र देकर उन्हें दीक्षा प्रदान भी किया।
उन्हें अष्टछाप के कवि अथवा अष्ट सखा के नाम से जाना गया। अष्टछाप के कवियों में सूरदास, परमानंद दास, कृष्णदास- चार, कुंभनदास श्री वल्लभाचार्य के शिष्य जी एवं गोविंद स्वामी जी ,चतुर्भुज दास – चार जो स्वामी वल्लभाचार्य के पुत्र श्री विट्ठलनाथ के परम शिष्य थे । यह संख्या में आठ थे इस कारण इनका नाम अष्टछाप पड़ा।
यह सभी भक्त कवि श्री कृष्ण की लीला का गान करते हैं लेकिन इनका आधार श्रीमद्भगवद्गीता ही था। अपने आराध्य श्री कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के लिए इन्होंने भगवत प्रेम को ही आधार बताया है। पुष्टिमार्ग का अनुयाई भक्त आत्मा का समर्पण करके रसात्मक प्रेम द्वारा ही प्रभु की लीला में ध्यान लगाकर आनंद की परम अवस्था को प्राप्त होता है।
सभी कृष्ण भक्त कवियों की रचनाएं संगीत, भक्ति और कवियों की कविता का समन्वय रूप है। लीला करने वाले श्री कृष्ण की ओर भक्ति का आवेश इन अष्टछाप कवियों के हृदय से गीतिकाव्य की झरना फूट पड़ी उसने भगवत काव्य के इन भक्तों को आकंठ रूप से निमग्र की भावना से ओतप्रोत कर दिया।
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