Spanish Flu in Hindi: हिंदी भाषा के मशहूर कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ 1918 में 22 वर्ष के हुए होंगे। उन्होंने अपनी आत्मकथा “कुल्ली भाट” में बताया कि “मैं दालमऊ में गंगा के तट पर खड़ा था। मेरी जहां तक नज़र पहुंचती गंगा के पानी में सिर्फ इंसानी लाशे ही दिखाई पड़ रही थी। उन्हें अपने ससुराल से ये भी ख़बर मिली कि उनकी पत्नी मनोहरा देवी भी अब नहीं रही।
उसके साथ ही मेरे बड़े भाई का 15 वर्ष का बेटा और मेरी एक वर्ष की बेटी ने भी अपने प्राण छोड़ दिए थे। इसके चलते बाकि परिवार के सदस्य भी जा रहे थे। लोगों के दाह संस्कार करने के लिए लकड़ियां तक कम पड़ने लग गई थी। कुछ ही पलों में मेरा परिवार मेरी आँखों से ओझल हो गया। इसलिये मुझे अपने चारों और सिर्फ अंधेरा ही दिखाई पड़ रहा था। इन सबके बीच कुछ अख़बारों से जानकारी मिली कि यह सब एक बड़ी भयानक महामारी के चपेट में आये है।”
महात्मा गाँधी और प्रेमचंद भी हुए स्पैनिश फ़्लू से पीड़ित
इस भयानक जानलेवा बीमारी ने अधिकतर लोगों को अपनी चपेट में ले लिया था। निराला के परिवार के साथ ही भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी इस महामारी के शिकार हो गये थे। महात्मा गांधी के पोते शांति और उनकी पुत्रवधु गुलाब भी इस जानलेवा बीमारी से अपनी जान गंवा बैठे थे। उस समय यदि महात्मा गांधी इस बीमारी से हार मान लेते तो आज भारत की आजादी का इतिहास कुछ और ही होता।
इस भयानक बीमारी ने भारत के लगभग 1 करोड़ 80 लाख लोगों को अपना शिकार बना लिया था। ये भी कहा जाता है कि मुंशी प्रेमचंद जो कि एक मशहूर उपन्यासकार हुए वो भी इस बीमारी से संक्रमित हो गये थे।
1918 में 29 मई को इस जानलेवा बीमारी ने अपना करतब शुरू किया। जब प्रथम विश्व युद्ध मौर्चे से लौट रहे भारतीय जवानों का जहाज बंबई बंदरगाह पर आया था और लगभग दो दिन तक वहां पर लंगर डाले खड़ा था।
मेडिकल इतिहासकार और ‘राइडिंग द टाइगर’ पुस्तक के लेखक अमित कपूर लिखते हैं, “10 जून, 1918 को पुलिस के सात सिपाहियों को जो बंदरगाह पर तैनात थे, नज़ले और ज़ुकाम की शिकायत पर अस्पताल में दाखिल कराया गया था। ये भारत में संक्रामक बीमारी स्पैनिश फ़्लू का पहला मामला था। तब तक ये बीमारी पूरी दुनिया में फैल चुकी थी।”
एक अनुमान के अनुसार पूरी दुनिया में इस बीमारी ने 10 से 20 करोड़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया था जॉन बैरी अपनी किताब ‘द ग्रेट इनफ़्लुएंज़ा – द एपिक स्टोरी ऑफ़ द डेडलिएस्ट पेंडेमिक इन हिस्ट्री’ में लिखते हैं, ”साढ़े 10 करोड़ की आबादी वाले अमरीका में इस बीमारी से क़रीब 6 लाख 75 हज़ार लोग मारे गए थे। 1918 में इस बीमारी से पूरी दुनिया में इतने लोग मर चुके थे जितने पहले किसी बीमारी से नहीं मरे थे। 13वीं सदी में फैली ब्यूबोनिक प्लेग में यूरोप की 25 फ़़ीसदी आबादी ज़रूर ख़त्म हो गई थी। लेकिन तब भी 1918 में फैले Spanish Flu से मरने वालों की संख्या उससे भी अधिक थी।”
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स्पैनिश फ्लू का शरीर पर प्रभाव और दर्दनाक मौतें
जॉन बैरी आगे लिखते हैं, ‘1918 की महामारी में 24 हफ़्तों में जितने लोग मारे गए थे उतने एड्स से 24 सालों में नहीं मरे हैं। यह बीमारी सबसे अधिक असर मनुष्य के फेफड़ों पर डालती थी। इसके पश्चात असहनीय खांसी शुरू हो जाती थी फिर कभी-कभी तो नाक और कान से खून भी बहना शुरू हो जाता था। पूरे शरीर दर्द से टूटने लगता था मानो शरीर में सभी हड्डियाँ एक साथ टूट रही हो।
जो इस बीमारी से ग्रसित हो जाता था उसके शरीर की खाल का रंग पहले नीला और फिर बाद में बैंगनी हो जाता था। इसके बाद सबसे अंत में वह काले रंग में परिवर्तित हो जाता था। अमरीका में फ़िलाडेल्फ़िया में आलम ये था कि पादरी घोड़े पर सवार होकर घर-घर जाते थे और लोगों से कहते थे कि अपने घर के दरवाज़े खोल कर अंदर रखे शवों को उनके हवाले कर दें। वो उस अंदाज़ में आवाजें लगाते थे जैसे आजकल कबाड़ीवाले घर-घर जाकर पुकारते हैं।
स्पैनिश फ्लू को पहले छुपाया गया
‘शुरू में जब ये बीमारी फैली तो दुनिया भर की सरकारों ने इसे इसलिए छिपाया कि इससे मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों का मनोबल गिर जाएगा।
भारत में स्पैनिश फ्लू का फैलाव
इस बीमार ने बम्बई में तो अपना कब्जा कर ही लिया था। लेकिन भारतीय रेल ने इस बीमार को और भी कई हिस्सों में फैला दिया। पूरी दुनिया में 1920 के अंत तक 5 से 10 करोड़ लोगों ने इस बिमारी से अपनी जान गंवा ली थी। यह संख्या प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में हुई मौतों से भी अधिक है।
जॉन बेरी ने अपनी किताब में भारत में इस बीमारी के फैलाव का ब्यौरा देते हुए लिखा है, ‘भारत में लोग ट्रेनों में अच्छे-भले सवार हुए। जब तक वो अपने गंतव्य तक पहुंचते वो या तो मर चुके थे या मरने की कगार पर थे। बंबई में एक दिन 6 अक्तूबर, 1918 को 768 लोगों की मौत हुई थीं। दिल्ली के एक अस्पताल में इनफ़्लुएंज़ा के 13190 मरीज़ भर्ती किए गए जिनमें से 7044 की मौत हो गई।’
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ऐसे पड़ा स्पेनिश फ्लू नाम
पूरी दुनिया में सबसे पहले स्पेन देश ने इस बीमारी के अस्तित्व को स्वीकार किया था। इस कारण इस बीमारी को स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया।
स्पेनिश फ्लू पर नियन्त्रण
यह बीमारी भारत में मार्च 1920 में नियंत्रण में कर ली गई और पूरे विश्व में दिसम्बर 1920 में इसका अंत हो सका।
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