Shant Ras in Hindi: हिंदी व्याकरण जिसमें बहुत सारी इकाइयां पढ़ने को मिलती है। विद्यार्थी शुरू से हिंदी ग्रामर की पढ़ाई शुरू करता है, जो आगे तक निरंतर चलती रहती है। हिंदी ग्रामर में बहुत सारी इकाइयां है, जिसमें रस इकाई भी महत्वपूर्ण है।
यह इकाई कक्षा 11वीं के विद्यार्थियों से शुरू होती है, जो उच्च शिक्षा के सभी विद्यार्थियों के लिए मुख्य अतिथि के रुप में मानी जाती है। आज के इस लेख में शांत रस की परिभाषा उदाहरण सहित (Shant Ras Ki Paribhasha Udaharan Sahit) समझने वाले है और शांत रस के छोटे उदाहरण सहित शांत रस की पूरी जानकारी जानेंगे।
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शांत रस की परिभाषा (Shant Ras Ki Paribhasha)
अन्य सभी रसों की अनुपस्थिती ही शांत रस है। शांत रस एक ऐसा रस है, जिसमें किसी भी रस का अनुभव ना हो।
अथवा एक ऐसी स्थिती या मनोभाव जिसमें राग, द्वेष, क्रोध, प्रेम, घृणा, हास्य, मोह किसी भी तरह का भाव उत्पन्न ना होकर एक ऐसा भाव हो, जिसमें इन सभी भावों की अनुपस्थिती का भाव या अनुभूति हो वही शांत रस है।
शांत रस परिचय
शांत रस का काव्य के सभी नौ रसों में एक बहुत ही मत्वपूर्ण स्थान है। वीर रस, वीभत्स रस, श्रृंगार रस तथा रौद्र रस ही प्रमुख रस हैं तथा शांत रस, भयानक, वात्सल्य, करुण, भक्ति, हास्य रसों की उत्पत्ति इन्हीं प्रमुख चार रसों से हुई है।
शांत रस की उपस्थिती ऐसे काव्य में होती है, जिस काव्य में काव्य की विषय वस्तु में चाहे किसी भी प्रकार के उद्दीपन व अलाम्बनों का का समावेश हो परन्तु लक्षित व्यक्ति या चरित्र की उदासीन होती है।
शांत रस चरित्र की उस मनःस्थिती को बताता है जब उसमें आलंबन के प्रति या विरुद्ध कोई आसक्ति या विरक्ति किसी भी तरह का भाव नहीं होता। किसी परस्थिती में वह न तो हर्षित होता है ना ही दुखी। वह हर परिस्थिती में उदासीन रहता है।
शांत रस के अवयव
- स्थायी भाव: निर्वेद।
- आलंबन (विभाव): आत्म चिंतन, संसार का विश्लेषण, मोहभंग जनित परिस्थितियाँ आदि।
- उद्दीपन (विभाव): ध्यान, सत्संग, परमात्मा का विचार आदि।
- अनुभाव: आँखें भीग जाना, आँखें बंद कर लेना, विश्राम आदि।
- संचारी भाव: स्मृति, निर्विचार, शांतचित्तता आदि स्मृति।
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शांत रस का स्थायी भाव क्या है?
शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद है।
शांत रस के भेद
विद्वानों के अध्ययन व विश्लेषण के परिणामस्वरूप शांत रस के चार भेद बताए गए थे, परन्तु उनके विरोध में दिए गए तथ्यों के कारण उन्हें मान्यता नहीं मिली। फिर भी इन चारों का एक संक्षेप परिचय यहाँ दिया जा रहा है ताकि शांत रस को बारीकी से समझा जा सके।
तत्व साक्षात्कार
जब लक्षित चरित्र को संसार का या संसार के सभी अंगों व आयामों का मूल्य समझ में आ जाता है तो उसे तत्व साक्षात्कार कहा जाता है तथा ऐसी स्थिति में चरित्र का मन शांत व आवेग मुक्त हो जाता है।
वैराग्य
लक्षित चरित्र चरित्र को जब दुनिया में मोह माया के बंधन से छुटकारा मिल जाता है या इस संसार से वो विरक्ति अथवा जुड़ाव का नो होना महसूस करने लगता है।
ऐसे में उसे उसके सगे संबंधी उसके परिचित चरित्र और गैर लोगों में को अंतर महसूस होना बंद हो जाता है। अब ना उसे कोई दुःख उग्र बना सकता है और ना ही कोई ख़ुशी उसे खुश कर सकती है।
दोष-विग्रह
दोष-विग्रह एक ऐसी स्थिति है कि इसमें लक्षित व्यक्ति का व्यक्तित्व दोषरहित होने लगता है तथा साथ ही उसे किसी भी परिस्थिति में कोई भी दोष महसूस नहीं होता या ये कहिए कि उसे किसी से कोई भी शिकायत नहीं होती।
संतोष
यह एक ऐसी स्थिती है, जिसमें लक्षित व्यक्ति संतोष की अनवरत व सतत स्थिती में रहता है। उद्दीपन चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिती पैदा करने वाले हो या कितने भी कष्टदायक हो परन्तु लक्षित व्यक्ति सदैव संतोष की स्थिति में ही रहता है।
शांत रस के उदाहरण (Shant Ras Ke Udaharan)
शांत रस के 10 उदाहरण
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं
सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देख्याँ माहीं।।
मेरा तार हरि से जोड़े,
ऐसा कोई संत मिले।।
लम्बा मारग दूरी घर, विकट पंथ बहुमार।
कहौ संतों क्यूँ पाइए दुर्लभ हरि दीदार।।
कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।।
समरस थे जड़ या चेतन सुंदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती आनंद अखंड घना था।
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाए छिन में, गरब करे क्या इतना।।
देखी मैंने आज जरा
हो जावेगी क्या ऐसी मेरी ही यशोधरा
हाय! मिलेगा मिट्टी में वह वर्ण सुवर्ण खरा
सुख जावेगा मेरा उपवन जो है आज हरा।।
धूम समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
नहिं तहं सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचन की।।
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम वचन भरु हीते
सहसबाहु दस बदन आदि नृप, बचे न काल बलीते।।
ओ क्षणभंगुर भव राम राम!
भाग रहा हूँ भार देखा, तू मेरी ओर निहार देख
मैं त्याग चला निस्सार देख अटकेगा मेरा कौन काम।
ओ क्षणभंगुर भव राम राम!
शांत रस के १० उदाहरण
अब लौं नसानी, अब न नसैहौं।
राम कृपा भव-निसा सिरानी, जागै फिरि न डसैहौं।।
पायौ नाम चारु-चिन्तामनि, उर-करते न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, उर-कंचनहि कसैहौ।।
परबस जानि हस्यौ इन इन्द्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन-मधुकर पन करि तुलसी, रघुपति पद-कमल बसैंहौं।।
बैठे मारुति देखते राम चरणाबिंद।
युग अस्ति-नास्ति के एक रूप गुण गुण अनिंद्य।।
भरा था मन में नव उत्साह सीख लूँ ललित कला का ज्ञान
इधर रह गंधर्वों के देश, पिता की हूँ प्यारी संतान।
ऐसी मूढता या मन की।
परिहरि रामभगति-सुरसरिता, आस करत ओसकन की।।
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
एक-दूसरे से न मिल सकें,
यह विडंबना है जीवन की।
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगौ।
श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा तें सन्त सुभाव गहौंगो।
जथालाभ सन्तोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो।
परहित-निरत-निरंतर, मन क्रम वचन नेम निबहौंगो।
मन फूला फूला फिरै जगत में कैसा नाता रे।
चार बाँस चरगजी मँगाया चढ़े काठ की घोरी।
चारों कोने आग लगाया फूँकि दिया जस होरी।
हाड़ जरै जस लाकड़ी केस जरै जस घास।
सोना जैसी काया जरि गई, कोई न आए पास।।
मन रे! परस हरि के चरण,
सुलभ
सीतल कमल कोमल,
त्रिविधा ज्वाला हरण।
ज्यौं गज काँच बिलोकि सेन जड़ छांह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की।।
तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत,
वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश
बताओ यह कैसा उद्वेग?
मोरी चुनरी में परि गयो दाग पिया।
पाँच तत्त की बनी चुनरिया सोरहसै बंद लागे जिया।
यह चुनरी मोरे मैके ते आई ससुरे में मनुवाँ खोय दिया।
मलि मलि धोई दाग न छूटै ज्ञान को साबुन लाय पिया।
कहें कबीर दाग तब छुटि हैं जब साहब अपनाय लिया।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि कैसे शांत रस अन्य रसों से विभिन्नता रखता है। परिस्थिती में चाहे कितने भी विपरीत उद्दीपन हो, परन्तु लक्षित व्यक्ति की मनोस्थिती शांत ही रहती है। वह विकार हीन ही रहता है।
शांत रस कि उपस्थिति में लक्षित व्यक्ति के मन में राग, द्वेष, क्रोध, प्रेम, घृणा, हास्य, मोह आदि भावों की उपस्थिती शून्यप्राय होते हैं तथा लक्षित व्यक्ति के व्यक्तित्व में वैराग्य, संतोष, दोष-विग्रह तथा तत्व साक्षात्कार जैसे गुण स्थान ले लेते हैं।
FAQ
अन्य सभी रसों की अनुपस्थिती ही शांत रस है। शांत रस एक ऐसा रस है, जिसमें किसी भी रस का अनुभव ना हो।
मेरा तार हरि से जोड़े,
ऐसा कोई संत मिले।।
शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद है।
अंतिम शब्द
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