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गुरु पर संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित

नमस्कार दोस्तों, हर किसी को अपने जीवन के लिए एक मार्गदर्शक की जरूरत पड़ती है, जो हमें एक अच्छे संस्कार के साथ ही अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें।

हमारे पहले गुरू माता पिता होते हैं, जो हमें इस दुनिया में लाते है। जिनकी शिक्षा हमारे जीवन में हर जगह पर काम आती है।

गुरू शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। पारमार्थिक और सांसारिक ज्ञान देने वाले व्यक्ति को गुरू कहा जाता है।

माता-पिता के बाद गुरू ही होता है, जो हमें बिना किसी भेदभाव और निस्वार्थ भाव से हमारे जीवन को सकारात्मकता की ओर ले जाने में हमारी मदद करते हैं और हमें नकारात्मकता से दूर रखते हैं।

हमारे जीवन में गुरू के महत्व को धर्म ग्रंथों में विस्तार से संस्कृत भाषा में समझाया गया है।

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इस पोस्ट में हमने गुरु श्लोक संस्कृत (guru purnima shlok) शेयर किये है। इन श्लोकों में गुरू के महत्व को समझा जा सकता है।

हम उम्मीद करते हैं कि आपको यह गुरु वंदना श्लोक पसंद आयेंगे, इन्हें आगे शेयर जरूर करें। आपको यह प्रेरणादायक श्लोक कैसे लगे, हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।

गुरु पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित (Sanskrit Slokas on Guru in Hindi)

guru brahma guru vishnu sloka in hindi meaning

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

भावार्थ:
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है। गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है, उन सद्गुरु को प्रणाम।

slokas on guru

विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतं ज्ञानम्।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः।।

भावार्थ:
विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति (स्थायित्व) है,
और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध (बंधनमुक्ति तथा मोक्ष) है।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

भावार्थ:
उस महान गुरु को अभिवादन, जिसने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और मृत्य (मृत) में।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।

भावार्थ:
धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्।।

भावार्थ:
गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पर ही बैठना चाहिए। गुरु के आते हुए दिखाई देने पर भी अपनी मनमानी से नहीं बैठे रहना चाहिए। अर्थात गुरू का आदर करना चाहिए।

गुरु पूर्णिमा संस्कृत श्लोक (guru shloka in sanskrit)

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्।।

भावार्थ:
बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है।

गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते।
गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशयः।।

भावार्थ:
गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से निस्संदेह (मनुष्य​) सभी कुछ प्राप्त कर ही लेता है।

विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।

भावार्थ:
ज्ञानवान, निपुणता, विनम्रता, पुण्यात्मा, मनन चिंतन हमेशा सचेत और प्रसन्न रहना ये साथ शिक्षक के गुण है।

गुरु पर श्लोक (guru purnima sanskrit shlok with meaning)

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते।।

भावार्थ:
जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्।।

भावार्थ:
शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम (काबू) में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख (सामने) देखना चाहिए।

दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन।।

भावार्थ:
जैसे दूध के बिना गाय, फूल के बिना लता, चरित्र के बिना पत्नी, कमल के बिना जल, शांति के बिना विद्या, और लोगों के बिना नगर शोभा नहीं देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता।

प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः।।

भावार्थ:
प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है।

गुरु श्लोक संस्कृत

गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते।।

भावार्थ:
‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का निरोध (ज्ञान का प्रकाश देकर अंधकार को रोकना) करता है, वही वास्तव में गुरू कहलाता है।

यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः।
जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः।।

भावार्थ:
गुरु सब प्राणियों के प्रति वीतराग और मत्सर से रहित होते हैं। वे जीतेन्द्रिय, पवित्र, दक्ष और सदाचारी होते हैं।

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

भावार्थ :
जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार।

गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते।
कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः।।

भावार्थ:
अर्थ- जहाँ गुरु की निंदा होती है, वहाँ उसका विरोध करना चाहिए। यदि यह शक्य (संभव) न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए और यदि यह भी शक्य (संभव) न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए।

एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत्।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत्।।

भावार्थ:
गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें।

गुरु पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः।
क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः।।

भावार्थ:
जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु शायद हि दिखाई देते हैं।

पूर्णे तटाके तृषितः सदैव भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः।
कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी।।

भावार्थ:
जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी(अज्ञानी) रहे, वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के पास होते हुए भी प्यासा, घर में अनाज होते हुए भी भूखा, और कल्पवृक्ष के पास रहते हुए भी दरिद्र है।

सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः।
अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु।।

भावार्थ:
अभिलाषा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले, और मिथ्या उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं है।

guru purnima quotes in sanskrit

योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः।।

भावार्थ:
योगियों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समझा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर में समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं।

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम्।
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि।।

भावार्थ:
तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती । गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाता ! सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक है।

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Rahul Singh Tanwar
Rahul Singh Tanwar
राहुल सिंह तंवर पिछले 7 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे हैं। इनको SEO और ब्लॉगिंग का अच्छा अनुभव है। इन्होने एंटरटेनमेंट, जीवनी, शिक्षा, टुटोरिअल, टेक्नोलॉजी, ऑनलाइन अर्निंग, ट्रेवलिंग, निबंध, करेंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान जैसे विविध विषयों पर कई बेहतरीन लेख लिखे हैं। इनके लेख बेहतरीन गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं।

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