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शिक्षाप्रद और ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग

Prerak Prasang in Hindi: कई बार छोटी-छोटी घटनाएं हमें ऐसी सीख से जाती है जो कोई नहीं दे पाता। इस पोस्ट में हम शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंग (Prerak Prasang) शेयर कर रहे है जो हमें अपने जीवन में एक नई ऊर्जा का संचार करेगी।

Prerak Prasang in Hindi
New Prerak Prasang in Hindi for all Students

हमने यहाँ पर 15 से भी अधिक छोटे प्रेरक प्रसंग (Chote Prerak Prasang) शेयर किये है, जिनमें स्वतंत्रता सेनानियों के प्रेरक प्रसंग, ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग, शिक्षक दिवस पर प्रेरक प्रसंग, विद्यार्थियों के लिए प्रेरक प्रसंग (Prerak Prasang for Students) आदि शामिल है हम उम्मीद करते हैं कि आपको यह ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग पसंद आयेंगे।

शिक्षाप्रद और ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग | Prerak Prasang in Hindi

विषय सूची

प्रेरक प्रसंग 1: आजादी की कीमत

किशोर भगतसिंह कक्षा में बैठे विचारों में तल्लीन थे। इसी बीच कक्षा में इंस्पेक्टर ने प्रवेश किया। सभी विद्यार्थी उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगतसिंह उसी विचार मुद्रा में अपने स्थान पर बैठे रहे। उन्हें देखकर इंस्पेक्टर ने पूछा- ‘बेटे! तुम किस विचार में खोए हुए थे?’

‘आजादी के बारे में, भगतसिंह ने कहा।

‘लेकिन बेटे, आजादी उतनी आसानी से नहीं मिल सकती-जितनी आसान तुम समझते हो, ‘ इंस्पेक्टर बोले।

आसान होता नहीं जनाब, बल्कि बनाया जाता है। मैं एक ना एक दिन देश को आजाद करवाकर ही दम लूंगा, ‘ भगतसिंह ने विश्वासपूर्वक उत्तर दिया।

‘शाबास बेटे! तुम धन्य हो। तुम्हें आजादी की कीमत मालूम है।’ यह कहकर इंस्पेक्टर आगे बढ़ गए।

प्रेरक प्रसंग 2: ऐसे थे जाकिर हुसैन

घटना उन दिनों की है, जब जाकिर साहब विशेष अध्ययन हेतु जर्मनी में थे। वहां ऐसा रिवाज है कि किसी अजनबी व्यक्ति से दोस्ती करने के लिए अपना नाम बताकर हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया जाता है।

उस दिन महाविद्यालय में वार्षिकोत्सव था। कार्यक्रम का समय हो चुका था, इसलिए वह जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रहे थे।

जैसे ही जाकिर साहब ने महाविद्यालय में प्रवेश किया, कॉलेज के एक प्राध्यापक महोदय ने भी प्रवेश किया। जल्दबाजी और अनजाने में जाकिर हुसैन और प्राध्यापक महोदय एक-दूसरे से टकरा गए।

इस पर प्रोफेसर साहब ने गर्म होते हुए जाकिर साहब से कहा – गधा। ‘जाकिर हुसैन, ‘जाकिर साहब तपाक से बोल पड़े और अपना हाथ प्रोफेसर साहब के आगे बढ़ा दिया।

प्राध्यापक महोदय जाकिर हुसैन की इस हाजिर जवाबी से अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने मुस्कराते हुए जाकिर हुसैन से हाथ मिला लिया। बाद में उनकी हाजिर जवाबी की उन्होंने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

प्रेरक प्रसंग 3: बालगंगाधर के बचपन की प्रेरक प्रसंग

एक बार की बात है, जब बाल गंगाधर तिलक छोटे थे और स्कूल जाया करते थे। तब एक दिन उनकी कक्षा में कुछ लड़कों ने मूंगफली खा कर छिलके वहीं फेंक दिए, जिससे की पूरी क्लास गंदी हो गई थी और देखने में बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। परंतु तिलक छोटे थे, वह कर भी क्या सकते थे। उन्होंने सिर्फ अपनी किताब पर ध्यान दिया और पढ़ते रहे।

कुछ समय के पश्चात जब वहां पर अध्यापक आये और उन्होंने जब इस प्रकार की क्लास को गंदा पाया तो वह बहुत क्रोधित हुए। उनके पूछने पर किसी ने नहीं बताया कि क्लास किसने गंदी की अध्यापक ने सबको छड़ी से मारना शुरू कर दिया। पहली पंक्ति के सभी बच्चे मार खाएं, उसके बाद दूसरी पंक्ति के सभी बच्चे मार खाएं। जब तिलक की बारी आई तो उन्होंने अपना हाथ मार खाने के लिए नहीं बढ़ाया। अध्यापक के कहने पर उन्होंने कहा “मैं क्यों मार खाऊँ मैंने तो क्लास गंदी नहीं की है।”

यह सुनकर अध्यापक और भी क्रोधित हूए। उसका इस तरह बर्ताव देखकर उन्होंने उसकी शिकायत प्रधानाचार्य से की। प्रधानाचार्य ने उसकी शिकायत उनके पिताजी से की। अगले दिन उनके पिताजी को विद्यालय आना पड़ा और उनसे पूछा गया कि आपका बच्चा ऐसी हरकत करता है और दंड पाने के लिए उसने अपने हाथ भी आगे नहीं बढ़ाएं। उनके पिताजी ने जवाब दिया “वह मूंगफली नहीं खा सकता। क्योंकि उसको खरीदने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे।”

तिलक जी अन्याय के सामने नहीं झुके। उनका कहना है यदि आप अन्याय नहीं करते तब उसके सामने कभी झुकना मत। यदि उस दिन तिलक जी मार खा जाते हैं तो शायद उनका साहस वहीं पर समाप्त हो जाता और वह जीवन में सेनानी न कहलाते।

शिक्षा: इस प्रेरक प्रसंग से हमें ये शिक्षा मिलती है कि आप अन्याय के सामने कभी न झुके चाहे झुकाने वाला कितना भी बड़ा क्यों न हो।

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प्रेरक प्रसंग 4: भगत सिंह की प्रेरक प्रसंग

कहा जाता है कि “पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं।”

भगत सिंह हमेशा से देशभक्त और स्वतंत्रता प्रेमी थे। आज उनके एक बचपन की कहानी हम आपको बताने जा रहे हैं।

भगत सिंह अनोखे थे और उनके खेल भी अनोखे ही हुआ करते थे। 5 वर्ष की अवस्था वह अपने मित्रों के साथ कुछ ऐसे खेल खेला करते थे, जो युद्ध आक्रमण से संबंधित थे। वे अपने मित्रों को लेकर दो टोलिया बनाते थे और एक टोली को दूसरी टोली पर आक्रमण करने के लिए कहते थे और बड़े निर्भीक और निडर होकर उस टोली का निवारण करते थे।

इन खेलों में भगत सिंह का साहस और निर्भरता प्रदर्शित होती थी। भगतसिंह बचपन से ही इतनी निडर और साहसी थे। एक बार उनके पिता श्री सरदार किशन सिंह जी उन्हें लेकर अपने मित्र नंदकिशोर के पास गए। नंदकिशोर खेत में कुछ बीज बो रहे थे।

श्री सरदार किशन सिंह को देख वे दोनों आपस में बैठकर बातें करने लगे और काफी चर्चा करने के बाद उनकी नजर भगत के खेल पर गई। भगत सिंह मिट्टी इखट्टा करके उसमें कुछ दबा रहा था। नंदकिशोर को भगत से बात करने का मन हुआ।

उन्होंने पूछा “बेटा तुम्हारा क्या नाम है।”

“भगत सिंह”- भगत सिंह ने जवाब दिया।

“तुम उस मिट्टी में क्या दबा रहे हो।”?

“मैं बंदूक बो रहा हूं” भगत ने जवाब दिया।

“बंदूक”

“हाँ बंदूके”

ऐसा क्यों”?

“अपने देश को स्वतंत्र कराने के लिए।”

“तुम्हारा धर्म क्या है भगत सिंह?”

“मेरा धर्म देशभक्ति है और देश को स्वतंत्र करना मेरा लक्ष्य।”

नंदकिशोर जी भी देशभक्त थे। उन्होंने बड़े स्नेह पूर्वक भगत सिंह को बुलाया और उसे अपनी गोद में उठा लिया, उन्हें पुत्र पर बड़ा फक्र हुआ। नंदकिशोर मेहता जी ने किशन जी से कहा “किशन जी आप तो भाग्यवान निकले, जो आपके घर ऐसा पुत्र जन्मा। यह एक दिन आपका नाम पूरी दुनिया में रोशन करेगा।”

कहा जाता है कि उनकी की गई भविष्यवाणी आज सत्य निकली। भगत सिंह को आज एक देशप्रेमी और स्वतंत्रता सेनानी के बड़े उदाहरण के रूप में जाना जाता है।

शिक्षा- इस प्रेरक पसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि परिस्थितियां कैसी भी हो लेकिन साहस और निडरता से उस पद को नहीं छोड़ना चाहिए। साहस और निडरता से आज हम स्वतंत्र हैं, जो आजादी हमें भगत सिंह जैसे अनेक सेनानियों ने दिलवाई है।

प्रेरक प्रसंग 5: ऐसे थे राजेन्द्र बाबू

यह घटना भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से सम्बन्धित है। जितना सादा उनका जीवन था उतने ही वे सहृदय थे। एक बार विदेश यात्रा के दौरान उपहार में हाथी दांत की एक कलम-दवात उन्हें मिली। राजेन्द्रबाबू को शीघ्र ही कलम-दवात बहुत प्रिय हो गए। लिखते समय वे उसी कलम-दवात का अधिक प्रयोग करते थे।

जिस कमरे में उन्होंने कलम-दवात रखी थी उसकी सफाई का काम उनका प्रिय सेवक तुलसी करता था। तुलसी – राजेन्द्र बाबू की सेवा और उनका कार्य बड़ी तत्परता, अनुराग और मन लगाकर करता था। एक दिन मेज साफ करते समय कपड़े की फटकार से कलम-दवात नीचे गिर कर टूट गए। कलम-दवात तो टूटा ही उसकी स्याही से भारी कीमत का कालीन भी खराब हो गया।

राजेंद्र बाबू जब अपने कार्यालय में आए तो कलम दवात को टूटा हुआ देखकर समझ गए कि तुलसी से ही वह दवात टूटा होगा। उन्होंने अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए सचिव से कहा, ऐसे आदमी को तुरन्त बदल दो। सचिव ने आदेश के अनुसार तत्काल तुलसी को वहां से हटा दिया तथा राष्ट्रपति भवन में दूसरा काम दे दिया।

उस दिन राजेन्द्र बाबू काम तो करते रहे, आने जाने वाले अतिथियों से भी मिलते रहे, किन्तु उनके मन में खलबली मची रही कि आखिर एक मामूली-सी गलती के लिए उन्होंने तुलसी को इतना बड़ा दण्ड क्यों दिया।

उनको बार-बार लग रहा था कि इस तरह की घटना तो कितनी भी सावधानी बरतने पर हो सकती है।

शाम को राजेन्द्र बाबू को जब फुर्सत मिली तो उन्होंने अपने सचिव से कहा कि तुलसी को बुलाओ।

तुलसी को बुलाया गया। उसे डर लगा कि कहीं कोई और विपदा तो नहीं आने वाली। बेचारा सकपकाया-सा आकर खड़ा हो गया। उसके हाथ-पांव कांप रहे थे। उसके आते ही राजेंद्र बाबू कुर्सी से खड़े हो गए और बोले तुलसी मुझे माफ कर दो, बेचारे तुलसी की समझ में नहीं आया कि वह क्या जवाब दे? उसे तो जैसे पाला मार गया। उसके मुंह से कुछ न निकल सका।

वह असमंजस की स्थिति में राजेन्द्र बाबू के पैरों पर गिर पड़ा और रुंधे स्वर में बोला “बाबू! आप यह क्या कह रहे हैं? आप तो दयालु हैं, हमारे अन्नदाता हैं। आपके सहारे ही तो मैं यहां हूं।” डॉ. राजेन्द्र बाबू बोले कि पहले तुम अपनी पहली वाली ड्यूटी पर आओ तब मुझे संतोष होगा।

यह सुनते ही तुलसी की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। उसने राजेंद्र बाबू के चरण पकड़ लिए। तुलसी फिर से वहीं काम करने लगा। राष्ट्रपति भवन के सभी कर्मचारियों पर इस घटना से काफी प्रभाव पड़ा।

प्रेरक प्रसंग 6: धैर्य से सफलता का आगमन होता है (शिक्षक दिवस पर प्रेरक प्रसंग)

एक बार की बात है। एक गुरुदेव और उनके चार शिष्य एक आश्रम की ओर जा रहे थे। वह गांव के रास्ते से होकर गुजर रहे थे। आस पास घने जंगल भी थे। गुरुजी को काफी प्यास लगी और वह उस गांव के किनारे एक पेड़ की छांव में बैठ गए। उन्होंने अपने एक शिष्य से कहां “पुत्र जाओ, मुझे बहुत प्यास लगी है। मेरे लिए पानी लेकर आओ।”

वह उस जंगल की ओर निकल गया और पानी की तलाश में इधर-उधर घूमने लगा। कुछ देर बाद एक नदी दिखाई दी। उस नदी में कुछ आदमी और औरतें कपड़े धो रहे थे। उसने दूसरी तरफ देखा तो कुछ व्यक्ति उसमें नहा रहे थे, जिनकी वजह से पानी बहुत गंदा था। उसने पानी नहीं लिया और वापस चला आया।

गुरुजी के पूछने पर उसने उत्तर दिया कि गुरु जी ऐसी बात है इसकी वजह से मैं पानी नहीं लाया। गुरुजी ने दूसरे शिष्य को भेजा। दूसरा शिष्य पानी लाने गया और इस बार दूसरा स्वच्छ पानी लेकर लोट आया। गुरुजी के पूछने पर उसने उत्तर दिया:

“गुरुजी मैं उन व्यक्तियों का जाने का इंतजार किया। उसके बाद जब वह चले गए और पानी में मिट्टी नीचे बैठ गयी तब पानी साफ हो गया और मैं पानी लेकर आ गया।”

गुरु जी ने पहले शिष्य को समझाया यदि तुम धैर्य रखते और उन व्यक्तियों का जाने तक इंतजार करते हैं तो तुम पानी ला सकते थे। तुम्हारे अंदर धैर्य की कमी है। उन्होंने सभी शिष्यों को समझाते हुए कहा जीवन में धैर्य बहुत जरूरी इंसान बहुत ही जल्द उतावला हो जाता है। परंतु उसे धैर्य की जरूरत है मेरे बिना सफलता नहीं प्राप्त होती। क्योंकि हमारा जीवन उस नदी के पानी के जैसा है, जो कुछ देर रुकने पर मिट्टी नीचे बैठ जाती है और हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाते हैं।

मनुष्य के जीवन में कई बार दुख और परेशानियां आती हैं, जो मिट्टी के समान होती है। हमें उनका बैठने का इंतजार करना चाहिए और कुछ देर बाद समस्या मुक्त जीवन में प्राप्त होता है, जो हमारे लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है।

शिक्षा- इंसान को जीवन में सब्र करना चाहिए। क्योंकि सब्र और धैर्य के मध्य जीवन प्राप्त होता है। वह अत्यंत सुंदर और उत्साहजनक होता है।

प्रेरक प्रसंग 7: गुरु की महानता

प्रसंग उस समय का है, जब एक गुरु तथा शिष्य कहीं तीर्थाटन को जा रहे थे। चलते-चलते संध्या हो गई तब रात्रि विश्राम के लिए दोनों एक वृक्ष के नीचे रुक गए। गुरुजी रात्रि में मात्र तीन-चार घंटे नींद लेते थे। ज्योंही उनकी नींद पूरी हुई, वे दैनिककार्यों से निवृत्त होकर पूजा-पाठ में लग गए। इसी बीच उन्होंने एक विषधर सर्प को अपने शिष्य की ओर जाते देखा।

शिष्य गहरी नींद में था। गुरु पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे। गुरुजी ने सर्प से प्रश्न किया- ‘सोए हुए शिष्य की ओर जाने का उसका क्या प्रयोजन है? ‘सर्प रुक गया और बोला, ‘महात्मन्! आपके शिष्य से मुझे बदला लेना है। पूर्व जन्म में इसने मेरी हत्या कर दी थी। अकाल मृत्यु होने से मुझे यह सर्प योनि मिली है, अतः मैं आपके शिष्य को डसना चाहता हूं।’

एक क्षण विचार कर गुरुजी ने कहा, ‘भाई! मेरा शिष्य बहुत ही सदाचारी एवं होनहार है। वह एक अच्छा साधक है। उसे काट लेने पर भी तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। अब तुम उसे यमलोक पहुंचा कर, क्यों संसार को उसके ज्ञान एवं प्रतिभा से वंचित कर रहे हो?’

गुरुजी के समझाने पर भी सर्प ने अपना निश्चय नहीं बदला। तब गुरुजी ने एक प्रस्ताव सर्प के सामने रखा और कहा- ‘देखो भाई! मेरे शिष्य की साधना अभी पूरी नहीं हुई है। अभी वह अपनी साधना में अपरिपक्व है। उसे अभी इस क्षेत्र में बहुत कुछ करना है। इसके विपरीत मुझे अब कुछ करना नहीं है। मेरा जीवन भी अब अधिक नहीं है। मेरे नाश से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए हे सर्पराज! आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे शिष्य के स्थान पर मुझे डस लो। इसके लिए मैं सहर्ष तैयार हूं’

कहते हैं गुरुजी के इस प्रकार के परोपकारी वचन सुनकर सर्प का हृदय परिवर्तन हो गया और उसने शिष्य को काटने का विचार छोड़ दिया और गुरुदेव को प्रणाम कर वहां से चला गया।

प्रेरक प्रसंग 8: माँ एक शिक्षक होती है

एक बार की बात है। ईश्वर चंद्र विद्यासागर अपनी घर के दरवाजे पर खड़े हुए थे। एक भिखारी को देख रहे थे, जो कि घरों-घरों में भीख मांग रहा था। उन्हें यह देखकर बहुत ही बुरा लगा, उस भिखारी पर उनको बहुत दया आ रही थी। वह दौड़ते हुए अपनी मां के पास गए हैं और माँ से कहां “मां मुझे उस भिखारी को कुछ देना है। कृपया मुझे कुछ दीजिए, जिससे कि मैं उस भिखारी की मदद कर सकूं।”

माँ सोने के कंगन पहनी हुई थी। उन्होंने अपने सोने के कंगन उतार कर उसको दे दीये और कहा इसे बेचकर तुम जरूरतमंदों और भिखारियों की मदद करो। जब तुम बड़े हो जाओगे तब मुझे ऐसे ही सोने के कंगन बनवा देना। ईश्वर चंद्र विद्यासागर उसे बेचकर उस भिखारी और जरूरतमंदों की मदद की। जब ईश्वर चंद विद्या सागर बड़े हुए तो उन्होंने अपनी पहली कमाई से अपनी मां के लिए सोने के कंगन बनवाया और अपनी मां को दिया और कहा मां मैने आपका कर्ज उतार दिया है, जो मैंने बचपन में लिया था।

माँ ने कहा बेटा मेरा कर्ज तो तब उतरेगा जब किसी दूसरे जरूरतमंद की जरूरत के लिए मुझे यह कंगन नहीं देने होंगे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर को समझ में आ गया। मां द्वारा कही गयी बात। यह बात उनके दिल को छू गई और उन्होंने अपने जीवन में प्रण किया कि मैं हमेशा गरीब और जरूरतमंदों की मदद करूंगा। मैं अपना पूरा जीवन और अपना पूरे जीवन की कमाई हुई पूंजी को जरूरतमंदों को दे दूंगा।

महापुरुष ऐसे ही नहीं महान कहलाते हैं। उनका जीवन काटों और संघर्षों से भरा होता है। वह अपने जीवन में कई ऐसे परेशानियों को कर विजय प्राप्त करके आते हैं, जो आम इंसान के बस की बात नहीं होती, वह एक दिन में महापुरुष नहीं बनते हैं। उनका पूरा जीवन लग जाता है जब वह महान बनते हैं। मैं ऐसे मां और ऐसे महापुरुष को सादर प्रणाम करता हूं।

शिक्षा- प्रत्येक माँ अपने संतान के लिए एक शिक्षक होती है। वह हमेशा उसे उस मार्ग पर भेजना चाहती है, जो सफलता की ओर जाता है। हमारे माता पिता हमेशा चाहते है कि उनकी संतान उनसे बढ़ कर करें और वे अपने जीवन में अपनी संतान को सफल होना देखना चाहते है। यही उनकी उपलब्धि होती है।

प्रेरक प्रसंग 9: बिना जाने न बोले (विद्यर्थियों के लिए प्रेरक प्रसंग)

एक बार की बात है। एक आदमी अपने पुत्र के साथ ट्रेन में सफर कर रहा था। पुत्र ने ट्रेन की खिड़की वाली सीट पर बैठने के लिए जिद की। पुत्र को पिता ने उसे खिड़की वाली सीट पर बैठने के लिए दे दी और वह खुद दूसरी सीट पर बैठ गया। आसपास काफी लोग बैठे हुए थे। सबको यह देख कर अच्छा लगा।

अब जैसे ही ट्रेन चलती है लड़का जोर-जोर से चिल्लाने लगता है और कहता है “पिताजी वह देखे है, बादल पीछे जा रहा है”, पिताजी ऊपर देखो हमसे बादल पीछे जा रहे हैं।” पिताजी गाड़ी देखो पीछे निकल रही है।, पिताजी पेड़ पीछे जा रहे हैं।” और जोर जोर से चिल्लाता रहा और अजीब हरकतें करता रहा हूं।

वहां पर बैठे सभी लोगों ने उसकी हरकतें देख कर उसे दिमागी रोगी समझा रहे थे। कुछ देर बाद एक व्यक्ति ने उसके पिता से कहा आप इसे क्यों किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाते। नहीं पिता का जवाब था। मैं डॉक्टर के पास से ही आ रहा हूं।

यह अंधा था। इसकी आंखें दूसरी लगाई गयी है। अब इसे सब कुछ दिखाई दे रहा है। यह उसी प्रकार खुश है जब किसी चिड़िया को पिंजरे से आजाद किया जाता है और वह उड़ कर पूरा आसमान घूमती है। वहां पर बैठे हैं बाकी लोगों ने उसके पिता से माफी मांगी और वह भी उसकी खुशी में शामिल हो गए।

शिक्षा- इस प्रेरक प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें किसी के बारे में न जानते हुए उसके विषय में आलोचना नहीं करनी चाहिए। क्या पता वह उस क्षेत्र का खिलाड़ी हो, ऐसा ही हमारी जिंदगी में भी होता है। हम जीवन मे आने वाली परेशानियों को गंभीरता पूर्वक नही सोचते और वही हमे हरा कर चली जाती है और सफलता का रास्ता हमसे दूर होता चला जाता है।

प्रेरक प्रसंग 10: आपने लक्ष्य पर ध्यान दे (विद्यर्थियों के लिए प्रेरक प्रसंग)

एक बार की बात है। एक तालाब में कई सारे मेढ़क रहते थे। उन मेढ़को में एक राजा मेंढक था। एक दिन सारे मेढक ने कहा, क्यों न कोई प्रतियोगिता खेली जाए। तालाब में एक पेड़ था। राजा मेंढक ने कहाकि “जो भी इस पेड़ पर चढ़ जाएगा, वह विजई कहलाएगा।

सारे मेढ़क द्वारा यह प्रतियोगिता स्वीकार कर ली गई और अगले दिन उस प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। सभी मेंढक तैयार थे। इस प्रतियोगिता मैं भाग लेने के लिए सारे मेंढक जैसे ही प्रतियोगिता शुरू हुई एक एक करके उस पेड़ पर चढ़ने लगे। कुछ मेढ़क ऊपर चढ़ते गए और फिर फिसलते गए। फिर नीचे गिर जाते थे।

ऐसे ही कई मेंढक ऊपर चढ़ते रहे और फ़िसलते रहे और फिर नीचे गिर जाते। इसी बीच कुछ मेढ़क ने हार मान कर बंद कर चढ़ना बन्द कर दिया। परंतु कुछ मेढ़क चढ़ते रहे, जो मेढ़क नहीं चढ़ पाए थे और छोड़ दिया था। वह कह रहे थे कि “इस पर कोई चढ़े ही नहीं पाएगा। यह असंभव है, असंभव है।”

इस पर कोई नहीं कर सकता। जो मेंढक दोबारा चढ़ रहे थे, उन्होंने भी हार मान ली। परंतु उनमें से एक मेंढक लगातार प्रयास करता रहा। लगातार प्रयास करने के कारण अंत में वह पेड़ पर चढ़ गया और सभी मित्रों द्वारा तालियां बजाई गई और सबने उससे चढ़ने का कारण पूछा उनमें से एक पीछे से एक ने कहा यह तो बहरा है, इसे कुछ सुनाई नहीं देता। उस बहरे मेंढक के एक दोस्त ने उससे पूछा तुमने यह कैसे कर लिया। उसने कहा मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मुझे लग रहा था कि नीचे खड़े यह लोग मुझे प्रोत्साहित कर रहे हैं कि तुम कर सकते हो। अब तुम ही हो तुम कर सकते हो और मैं आखिरकार इस पेड़ पर चढ़ गया।

सब ने उसकी खूब तारीफ की और उसे पुरस्कृत किया गया।

शिक्षा- इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें सिर्फ अपने लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए दुनिया क्या कहती है, उस पर ध्यान बिल्कुल नहीं देना चाहिए।

प्रेरक प्रसंग 11: डॉ. राजेन्द्र बाबू और अंग्रेज

एक बार डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नौका में बैठकर अपने गांव जा रहे थे, उनके पास ही एक अंग्रेज अधिकारी बैठा हुआ था, जो सिगरेट पी रहा था। काफी देर तक राजेन्द्र बाबू सिगरेट के धुएं की गंध सहते रहे। थोड़ी देर बाद वे अंग्रेज अधिकारी से बोले- ‘ये सिगरेट जो आप पी रहे हैं, क्या आपकी है?’अंग्रेज अधिकारी ने घूरते हुए कहा- ‘मेरी नहीं तो क्या तुम्हारी है?’

‘तो फिर यह धुआं भी आपका ही है, इसे आप अपने पास संभालकर रखो। इसे क्यों दूसरे पर फेंकते हो?’ डॉ. राजेन्द्र बाबू बोले।

राजेन्द्र बाबू का करारा जवाब सुनकर उस अंग्रेज अधिकारी को आखिर सिगरेट फेंकनी पड़ी और साथ ही लज्जित भी होना पड़ा।

प्रेरक प्रसंग 12: देश-प्रेम (Prerak Prasang in Hindi)

स्वामी रामतीर्थ एक जहाज में अमरीका के लिए यात्रा कर रहे थे। उसी जहाज में लगभग डेढ़ सौ जापानी छात्र अमरीका में विशेष अध्ययन के लिए जा रहे थे। जापानी छात्रों में कई धनी और सभ्य घराने के युवक भी थे।

स्वामीजी ने उनसे पूछा, आप विद्या अध्ययन के लिए अमरीका जा रहे हैं। वहां धन की व्यवस्था क्या होगी?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘स्वामीजी। हम तो जहाज का किराया भी घर से लेकर नहीं चले हैं। जहाज में कार्य करके उसका किराया दे देंगे। अपने राष्ट्र का धन व्यर्थ विदेशों में क्यों खर्च करें?’

वे सारे छात्र जहाज में सफाई आदि और छोटे-बड़े कार्य करके जहाज के किराए के पैसे दे रहे थे। स्वामी रामतीर्थ उन छात्रों का देशप्रेम देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने मन ही मन सोचा, काश विदेशों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र भी अपने देश का इतना ध्यान रखते तो देश में धन का इतना अभाव न होता।

प्रेरक प्रसंग 13: बापू की उदारता

गांधीजी नेपाल से स्वदेश लौट रहे थे। वहां के सैकड़ों लोगों ने उन्हें विदाई में रजत और स्वर्ण आभूषण, मूल्यवान् घड़ियां और हीरे की अंगूठियां उपहार में दी। गांधीजी सोच रहे थे कि इन मूल्यवान् उपहारों का क्या किया जाए? बा ने कहा- “आपने हमारे तो सारे आभूषण ले लिए हैं। अब ये उपहार यहां के निवासियों ने श्रद्धा से हमें दिए हैं, पर आप नहीं चाहते कि ये आभूषण मेरे पुत्रों की शादी में काम आएं और उनकी बहुएं पहनें। फिर ये उपहार मुझे मिले हैं, इन पर आपका क्या अधिकार है?”

गांधीजी ने निर्विकार भाव से समझाया, “बा! क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं यह हमारे जन सेवा के बदले मिले उपहार हैं। अत: इनका उपयोग जनहित के लिए ही किया जाना चाहिए। “सन् 1986 तथा 1901 में गांधीजी को जो उपहार मिले उन्हें सार्वजनिक उपयोग के उद्देश्य से बैंक में जमा करवा दिया गया। वह अपने को सदैव सार्वजनिक वस्तु का प्रहरी मानते थे।

प्रेरक प्रसंग 14: हिंदी प्रेम (Prerak Prasang in Hindi)

सन् 1962 की घटना है। प्रत्येक भारतीय चीनी आक्रमण के कारण भयाक्रांत था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित होना था, इसलिए प्रभारी अधिकारी मोहनसिंह सेंगर प्रधानमंत्री के आवास पर ध्वन्यांकन के लिए गए। विचारानुसार प्रधानमंत्री को पहले मूल अंग्रेजी में राष्ट्र को सम्बोधित करने के पश्चात् उसका हिन्दी अनुवाद पढ़ना था। सेंगर साहब को यह नहीं जंचा कि अंग्रेजी को अहमियत देकर उसे मूल पाठ के रूप में पढ़ा जाए और राष्ट्रभाषा हिन्दी को अनुवाद की भाषा बनाकर उसके साथ सौतेला व्यवहार किया जाए। नेहरूजी प्रधानमंत्री थे जबकि सेंगर साहब एक सरकारी अधिकारी। बोले- ‘सर! आपातकाल के इस समय में भारत का प्रधानमंत्री हिन्दी अनुवादक हो, यह ठीक नहीं लगता। ऐसे समय में आप यदि मूल हिन्दी में ही बोलें तो प्रभावी रहेगा।’

एक क्षण को नेहरूजी सेंगर साहब को देखते ही रह गए। कुछ सोचकर बोले- ‘हां, तुम ठीक कहते हो। मूल हिन्दी में संबोधित करना ज्यादा ठीक रहेगा।’ नेहरूजी का जवाब सुनकर सेंगरजी गदगद हो उठे।

प्रेरक प्रसंग 15: गांधी जी की प्रेरणा (ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग)

भारत के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गांधी से आप सब परिचित हैं। उनका मानना था कि जो काम हिंसा से नहीं हो सकता, उसे आहिंसा से किया जा सकता है। उन्होंने हमेशा ऐसे कई उपदेश दिए और ऐसे ही कई घटनाओं से हमें उनसे सीखने को भी मिला। तो ऐसी ही एक घटना उनके साथ घटी।

एक बार गांधीजी ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। वे किसी मीटिंग के दौरान कहीं जा रहे थे। वे आराम से सीट पर बैठे हुए थे। उनके बगल में एक व्यक्ति और बैठा हुआ था। गांधी जी कुछ पुस्तकें पढ़ रहे थे और अचानक उनके पैर से एक चप्पल रेल गाड़ी के नीचे गिर गई। गांधी जी ने उस चप्पल को नीचे गिरते देखा और उन्होंने अपना दूसरा चप्पल भी निकाल कर फेंक दिया। उनके बगल में बैठा उस व्यक्ति ने गांधी जी से पूछा “आपने उस चप्पल को उठाने के बजाय दूसरी चप्पल भी फेंक दी। ऐसा क्यों?”

गांधी जी ने जवाब दिया “मैं इसे चप्पल को क्या करता। मेरा चप्पल तो नीचे गिर गया। यह चप्पल जो भी पाएगा, उसको वह भी प्रयोग नहीं कर पाएगा और न ही मैं इसे प्रयोग कर पाऊंगा। इसलिए अच्छा यही होगा कि यह चप्पल भी फेंक देता हूं और जो भी इसे पाएगा, वह कम से कम दोनों चप्पल प्रयोग कर पाएगा। इस उत्तर से उस आदमी को एक सिख मिल गयी और वह गांधी जी का शिष्य बन गया।

शिक्षा- प्रेरक प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जो वस्तु हमारे लिए अनुपयोगी है, उस वस्तु को उपयोगी मनुष्य को दे देना चाहिए।

प्रेरक प्रसंग 16: स्वर्ग नरक प्रेरक प्रसंग (ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग)

वेदों के ज्ञाता देवाचार्य जी के शशिष्य महेंद्र नाथ, जिन्होंने देवाचार्य से बहुत सारा ज्ञान अर्जित किया था और देवाचार्य भी महेंद्र नाथ को अपना परम शिष्य मानते थे। एक दिन महेंद्र नाथ अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे। उनके किसी एक मित्र ने उनसे पूछा महेंद्र नाथ बताओ क्या मैं मरने के बाद स्वर्ग जाऊंगा। महेंद्र नाथ ने जवाब दिया जब “मैं जाएगा” तब तुम स्वर्ग जाओगे। उनके मित्रों को ऐसा लगा कि वह अहंकारी हो गए हैं।

उनके मित्र उनकी शिकायत गुरुदेव आचार्य से की। उन्होंने पूरा वृतांत गुरुदेव आचार्य को बताया। गुरुदेव आचार्य कुछ विचार करने के उपरांत उन्होंने महेंद्र नाथ को बुलवाया और महेंद्र नाथ से उसी प्रश्न को दोहराते हुए कहा “महेंद्र नाथ क्या तुम मरने के बाद सर्व जाओगे।”

महेंद्र नाथ ने जवाब दिया जब “मैं जाएगा” तब मैं स्वर्ग जाऊंगा देवाचार्य अपने शिष्य को समझाते हुए कहते हैं कि जब मैं जाएगा अर्थात मनुष्य के अंदर से “मैं” अर्थात “अहंकार” जाएगा तब मनुष्य मरणो उपरांत स्वर्ग का भागीदार होगा। उनके शिष्यों को समझ में आ गया। महेंद्र नाथ से उनके मित्रो ने माफी मांगी।

शिक्षा- इस प्रेरक प्रसंग से हमें क्या शिक्षा मिलती है कि मनुष्य के अंदर से जब अहंकार घमंड निकल जाता है तो वह एक सभ्य और सामाजिक जीवन जीता है और उसे मरणोपरांत सर्व भी प्राप्त होता है।

स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग

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Rahul Singh Tanwar
Rahul Singh Tanwar
राहुल सिंह तंवर पिछले 7 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे हैं। इनको SEO और ब्लॉगिंग का अच्छा अनुभव है। इन्होने एंटरटेनमेंट, जीवनी, शिक्षा, टुटोरिअल, टेक्नोलॉजी, ऑनलाइन अर्निंग, ट्रेवलिंग, निबंध, करेंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान जैसे विविध विषयों पर कई बेहतरीन लेख लिखे हैं। इनके लेख बेहतरीन गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं।

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