Meera Bai Biography In Hindi: मीराबाई ने श्री कृष्ण के अलावा किसी को भी अपने ह्रदय में स्थान नहीं दिया। यही कारण था कि मीराबाई को महलों का सुख भी रास नहीं आया। कहा जाता है कि मीरा बाई पूर्व जन्म में श्री कृष्ण की अनन्य भक्त गोपी थी। श्री कृष्ण के प्रति मीराबाई का अनुराग जन्म जन्मांतर का रहा है।
मीराबाई का शरीर जरूर पंच प्रकृति का था, परंतु उनकी आत्मा में हमेशा उनके गिरधर का ही वास रहता था। ऐसी कृष्ण भक्त मीरा का जन्म राजस्थान के पाली (कुंडली) 1498 ई. में रतन सिंह के यहां हुआ। इनकी माता का नाम वीर कुमारी था। इन के परदादा का नाम जोधा जी था, जो जोधपुर के संस्थापक थे। इनके दादा जी का नाम दूदा जी था। इस लेख में हम मीराबाई का जीवन परिचय (mirabai ka jivan parichay) और मीराबाई की कृष्ण भक्ति के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे।
मीराबाई का जीवन परिचय (Meera Bai Biography In Hindi)
नाम | मीराबाई |
जन्म तारीख | 1498 ई. |
जन्मस्थान | कुड़की, पाली, राजस्थान |
पिता का नाम | रत्न सिंह |
माता का नाम | वीर कुमारी |
प्रसिद्धि | श्री कृष्ण की अनन्य भक्त |
मृत्यु | 1546 ई. |
मीरा बाई कौन थी?
मीराबाई 16 वीं शताब्दी की एक ऐसी महिला थी, जो भगवान श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम भक्ति करती थी। मीराबाई कृष्ण भक्ति में इतनी विलीन रहती थी कि बाहर क्या हो रहा है, उन्हें उसका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता था। वह कृष्ण भक्ति में प्रत्येक क्षण विलीन रहती थी। मीराबाई की भक्ति भगवान श्री कृष्ण के प्रति ऐसी थी कि वह उन्हें अपना पति मानती थी।
मीराबाई प्रत्येक क्षण भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रही थी। पति की मृत्यु के बाद वह साधु एवं संतों के साथ भजन कीर्तन करती थी। मंदिरों में हमेशा बैठकर वह कृष्ण भगवान की पूजा अर्चना करते थे और दूसरा उनकी प्रतिमा के सामने नृत्य करती थी। मीराबाई राजघराने की पुत्री थी, ऐसे में राजघराने वाले मीराबाई के इस भक्ति से प्रसन्न नहीं थे, जिसके कारण से वह मीराबाई को कई बार तो विष देकर मारने की कोशिश भी की।
इसी को लेकर मीराबाई तंग आकर द्वारका तथा वृंदावन चली गई, वहां भी कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार करती थी। इसके पश्चात मीराबाई कहीं भी जाती तो उन्हें लोगों द्वारा बहुत सम्मान मिलता था, जिसे देखकर वह बहुत पसंद थी। उस समय मीराबाई को लोग देवी माता की तरह मानते थे।
मीराबाई की कृष्ण भक्ति
मीराबाई भगवान श्री कृष्ण से बहुत लगाव रखती थी। मीराबाई के भक्ति भगवान श्री कृष्ण के प्रति ऐसी थी कि मानो भगवान श्री कृष्ण जी उनके लिए सब कुछ हो। मीराबाई की भक्ति भगवान श्री कृष्ण के प्रति ऐसी थी कि वह अपने पति के मृत्यु के बाद उन्हें सती करने का बहुत प्रयास किया गया लेकिन ऐसा करने के लिए मीराबाई तैयार नहीं हुई। उन्होंने केवल सती बनने से इनकार ही नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने पति के मृत्यु के बाद अपना श्रृंगार भी नहीं हटाया। क्योंकि वह अपने गिरधर गोपाल को ही अपना पति मानती थी।
भगवान श्री कृष्ण के प्रति मीराबाई की भक्ति इतनी महान थी कि वह भगवान श्री कृष्ण की मंदिर जहां कहीं भी देखती हैं, वहां जाकर भजन कीर्तन करने लगती और भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा के सामने झूम-झूम कर नृत्य करने लगती।
मीराबाई का बाल्यकाल काल
मीराबाई बचपन से श्री कृष्ण की अनन्य भक्त रही है। बचपन में ही श्री कृष्ण के मंदिर जाना उनकी प्रतिमा के सामने कई घंटों तक बैठे रहना, उनकी प्रतिमा को निहारना, ये गुण बचपन से ही मीरा बाई में जन्म ले चुके थे। मात्र जब मीराबाई 2 वर्ष की थी तब इनकी माता वीरकुमारी का देहांत हो चुका था।
बचपन में ही माता का देहांत होने की वजह से मीराबाई का अधिकतम समय मंदिर में ही गुजरने लगा था। ये सब देखते हुए इनके पिता ने इनका विवाह मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही प्रसिद्ध मेवाड़ राजवंश उदयपुर के महाराज राणा सांगा के पुत्र भोजराज से संपन्न करा दिया था।
मीराबाई के बचपन का नाम क्या था?
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त मीरा बाई के बचपन का नाम पेमल था। मीराबाई अपने बचपन से ही भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति को साथ रखती थी, जिसे वह खुद साफ करती, नहलाती एवं उसे बड़ी ही श्रद्धा के साथ अपने पास रखती थी।
मीराबाई का वैवाहिक जीवन कैसा था?
मीराबाई का विवाह चित्तौड़ के राजकुमार भोजराज सांगा के साथ हुआ था, जो कि चित्तौड़ के राजा महाराणा सांगा के जेष्ठ पुत्र थे। मीराबाई का वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं बीता, क्योंकि मीराबाई के पति भोजराज सांगा का निधन विवाह के कुछ समय पश्चात ही हो गया।
जिसके कारण से मीराबाई के ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। पति की मृत्यु के बाद मीराबाई के साथ सती करने का बहुत प्रयास किया गया, परंतु मीराबाई इसके लिए तैयार नहीं हुई, जिसके पश्चात वह संसार के ओर विरक्त हो गई।
मीराबाई का आध्यात्मिक परिचय
पति के वीरगति प्राप्त होने के बाद मीराबाई और आध्यात्मिक होती गई। मीराबाई ने अपना सर्वत्र श्री कृष्ण को समर्पित करने का निश्चय कर लिया था। इसीलिए मीराबाई का अधिकतम समय मंदिरों में श्री कृष्ण के भजन गाना और श्रीकृष्ण के समक्ष नृत्य करने में व्यतीत होने लगा।
मीराबाई के इस रवैया से इनके ससुर महाराणा सांगा प्रसन्न नहीं थे। कहा जाता है एक बार महाराणा सांगा ने मीरा को विष का प्याला दिया और कहा अगर तुम इस विष के प्याले को पीकर भी जीवित रहती हो तो मैं ये स्वीकार कर लूंगा कि तुम श्रीकृष्ण की सच्ची भक्त हो। वैसा ही हुआ मीराबाई ने श्री कृष्ण का नाम लेकर विष का प्याला पी लिया।
जब विष का कोई असर मीरा बाई पर नहीं हुआ तब इनके ससुर महाराणा सांगा ने इन्हें सम्मान के साथ आजाद कर दिया। तभी से ही मीराबाई राज महल के सारे सुख छोड़कर श्री कृष्ण के साकार रूप के दर्शन करने के लिए घुमक्कड़ बन गई।
इस तरह से मीराबाई का परिचय प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत रविदास से हुआ। मीराबाई ने रविदास को अपना गुरु बना लिया। मीराबाई ने अपने गुरु के मार्गदर्शन में निम्नलिखित ग्रंथ की रचना भी की। उन ग्रंथों को ना सिर्फ आपार सफलता भी मिली, बल्कि पाठ्यक्रम में शामिल है।
मीरा बाई द्वारा लिखे गये ग्रन्थ
- राग गोविंद
- गीत गोविंद
- गोविंद टीका
- राम सोरठा
- नरसी जी का मायरा
- मीरा की मल्हार
- मीरा के पद
जैसे ग्रंथों की रचना की। उनके ग्रंथों को समाज ने मान्यता दी और व्यापक रूप से उनके ग्रंथों का प्रचार हुआ। इससे ये सिद्ध होता है मीराबाई मध्यकालीन, आध्यात्मिक कवित्री एवं परम कृष्ण भक्त थी। उत्तर भारत में मीराबाई के ग्रंथों को व्यापक समर्थन मिला।
मीरा बाई के प्रसिद्ध पद जिनको कई म्यूजिक कंपनियों ने कंपोज भी किया है:
- पायोजी मैंने राम रतन धन पायो, वस्तु अमोलीक दी मेरे सतगुरु, किरपा करी अपनायो
- मतवारो बादल आयो रे हरि को संदेशों कछु ना लायो रे
- अच्छे मीठे फल चख बेर लाई भीलणी, ऐसी कहा अचारवली रूप नहीं एक रती
मीराबाई के बारे में कुछ रोचक तथ्य
- इनके पति जब वीरगति को प्राप्त हुए थे तब इन पर इनके पति के साथ ही सती होने का बाहरी, सामाजिक दबाव डाला जाने लगा। तब मीराबाई ने इस कु-प्रथा का जोरदार विरोध किया और सती ना होने का फैसला लिया। यह मीराबाई की आधुनिक सोच का जीता जागता उदाहरण था।
- महाराणा सांगा ने एक बार फूलों की टोकरी में भरकर विष वाला सांप मीराबाई के पास भेजा। मीराबाई ने जब टोकरी स्वीकार की, उस टोकरी में से श्रीकृष्ण की प्रतिमा निकली।
- यात्राओं का क्रम यहीं नहीं रुका, राणा सांगा ने मीराबाई को नुकीले कांटो पर भी सुलवाया, जो फूलों में परिवर्तित हो गये।
- कहा जाता है और ऐसी मान्यता है कि इन्हें श्री कृष्ण के साकार रूप के दर्शन हुए थे।
मीराबाई का अंतिम समय
राजमहल से मुक्त होने के बाद मीराबाई घुमक्कड़ साध्वी ही बन गई थी। जगह-जगह श्री कृष्ण के भजन गाना और श्री कृष्ण भक्ति का प्रचार करना, अपने अंतिम समय में अपने गुरु के कहने पर मीराबाई वृंदावन चली गई। वृंदावन में मीराबाई ने काफी समय व्यतीत किया।
इसके बाद मीराबाई द्वारिका चली गई, द्वारिका में ही परम कृष्ण भक्त मीरा बाई 1546 ई. में श्री कृष्ण भक्ति में लीन होती हुई श्रीकृष्ण के परम तत्व में विलीन हो गई।
मीराबाई के जीवन पर बनी फिल्म
- प्रसिद्ध पटकथा लेखक गीतकार निर्माता निर्देशक गुलजार में मीराबाई को केंद्र में रखकर 1979 में मीरा बाई नाम की फिल्म भी बनाई है, जिसमें हेमा मालिनी ने मीरा बाई का कैरेक्टर प्ले किया और विनोद खन्ना ने उनके पति भोजराज का।
- रामानंद सागर ने भी 2009 में मीराबाई के जीवन पर टीवी सीरियल बनाया।
मीरा के जीवन के अंतिम दिन कहां व्यतीत हुआ?
मीराबाई का अंतिम समय कहां गठित हुआ इसको लेकर इतिहासकारों के मध्य बहुत मतभेद है। कई इतिहासकारों का मानना है कि मीराबाई का अंतिम समय द्वारिका में बीता तो वहीं कई इतिहासकारों का मानना है कि मीराबाई का अंतिम समय वृंदावन में बीता। परंतु वही प्रचलित कथा की बात करें तो उसके अनुसार लोगों का यह मानना है कि जन्माष्टमी के दिन मीराबाई भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति के सामने कई घंटों तक लगातार भजन करती रही एवं नृत्य करती रही, उनकी इस व्यक्ति को देखकर सारे लोग तृप्त हो गए थे।
परंतु कुछ समय पश्चात नृत्य करते-करते वह जमीन पर गिर गई और मंदिर के द्वार अपने आप बंद हो गए। जब कुछ समय पश्चात मंदिर के द्वार को खोला गया तो लोगों ने देखा कि चारों और दिव्य रोशनी फैली हुई है और लोगों का मानना है कि उसी क्षण बांसुरी की मधुर ध्वनि सुनाई दे रही थी तथा मीराबाई की साड़ी भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति से लिपटी हुई थी। अर्थात लोगों का मानना है कि मीराबाई की मृत्यु नहीं हुई थी बल्कि वह कृष्ण भगवान की मूर्ति में विलीन हो गई थी।
यदि हम बात करें कि मीराबाई की मृत्यु का कोई ठोस प्रमाण है तो हम आपको बता दें कि मीराबाई की मृत्यु को लेकर अभी तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है। सभी इतिहासकारों के मध्य अलग-अलग मतभेद है।
FAQ
मीराबाई के ससुर चित्तौड़ के राजा थे, जिनका नाम महाराणा सांगा था, जिनके बड़े पुत्र भोजराज से मीराबाई का विवाह हुआ था।
कृष्ण भक्त मीरा बाई के बचपन का नाम पेमल था।
मीराबाई का अंतिम समय कहां गठित हुआ इसको लेकर इतिहासकारों के मध्य बहुत मतभेद है। कई इतिहासकारों का मानना है कि मीराबाई का अंतिम समय द्वारिका में बीता तो वहीं कई इतिहासकारों का मानना है कि मीराबाई का अंतिम समय वृंदावन में बीता।
मीराबाई के संपूर्ण जीवन का निष्कर्ष
मीराबाई के संपूर्ण जीवन का निष्कर्ष अगर निकाला जाए तो एक ही बात सामने निकल कर आती है कि उनका संपूर्ण जीवन श्रीकृष्ण की भक्ति में ही बीता। बचपन में मां के देहांत के बाद मीराबाई खिलौनों की जगह, मंदिर में जाकर श्री कृष्ण के दर्शन करने लगी।
कम उम्र में ही पति की मृत्यु हो गई तब उनका सबसे बड़ा बल आध्यात्मिक बल ही था, जिसके दम पर मीराबाई ने अपने श्वसुर राणा सांगा की यातनाएं सहन की। राजमहल से मुक्त होने के बाद मीराबाई का अंतिम लक्ष्य श्री कृष्ण की प्राप्ति ही था।
कहा जाता है उन्हें श्री कृष्ण के साक्षात दर्शन भी हुये। मीराबाई का परिचय महान आध्यात्मिक संत रविदास और कबीर दास से भी हुआ। उनका अंतिम समय द्वारिका में ही व्यतीत हुआ, वहीं उन्होंने अपने प्राण त्यागे।
अंतिम शब्द
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