Kabir Das ke Dohe in Hindi: संत कबीर दास जी के जन्म को लेकर अनेक विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोगों का मानना हैं कि संत कबीर का सामान्य जन्म न होकर काशी के लहरतला तालाब में कमल के फूल के ऊपर एक शिशु के रूप में हुआ था। वहीं दूसरी और लोगों का ऐसा भी मानना हैं कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में हिन्दू संत रामानंद के सानिध्य में रहे थे।
विद्वानों का ऐसा मानना हैं कि कबीर का देहांत 119 वर्ष की आयु में मगहर में हुआ था। सभी संतों और कवियों में संत कबीर का व्यक्तित्व बेहद निराला हैं, हिंदी साहित्य के इतिहास में 1200 वर्षों में तुलसीदास के अतिरिक्त इतनी प्रतिभा का धनी और कोई नहीं हुआ।
रुढ़िवादी परम्परा और आडम्बरों पर कड़ी चोट करने वाले संत कबीर की वाणी आज भी हर घर में गूंजती हैं, कबीर एक संत के साथ-साथ महान समाज सुधारक भी थे। उनकी वाणी ने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया।

कबीर दास जी के दोहे (Kabir Das Ji ke Dohe) पढ़कर हर व्यक्ति के मन में एक प्रेरणा और सकारात्मक भाव आते है। व्यक्ति को कुछ नया करने की प्रेरणा देते है।
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विषय सूची
कबीर दास जी के दोहे हिन्दी अर्थ सहित – Kabir Das ke Dohe in Hindi
कबीर दास के दोहे अर्थ सहित
बड़ा हुआ तो क्या हुआ दोहे का अर्थ (Bada Hua to Kya Hua)
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
कबीर दास जी कहते है कि खजूर के पेड़ जैसा बड़ा होने से कोई फायदा नहीं है। क्योंकि खजूर के पेड़ से न तो पंथी को छाया मिलती और उसके फल भी बहुत दूर लगते है जो तोड़े नहीं जा सकते। कबीर दास जी कहते है कि बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का भला नहीं होता।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मीलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
कबीर दास जी कहते है कि मैं बुराई की खोज में निकला तो मुझे कोई बुराई नहीं मिली। लेकिन जब मैंने मेरे खुद के मन में देखा तो मुझे मुझसे बुरा कोई नहीं मिला।
गुरू गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।
कबीर दास जी कहते है कि यदि आपके सामने गुरू और इश्वर दोनों ही खड़े हो तो आप किसके चरण स्पर्श सबसे पहले करेंगे गुरू ने अपने ज्ञान से हमें इश्वर तक पहुंचाया है तो गुरू की महिमा इश्वर से अधिक है इसलिए हमें गुरू के चरण स्पर्श सबसे पहले करने चाहिए
हिन्दू काहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोऊ जाना।।
कबीर दास जी कहते है कि हिन्दू को राम प्यारा है और तुर्क (मुसलमान) को रहमान। इस बात पर हिन्दू और मुस्लीम लड़ लड़ कर मौत के मुंह में जा रहे है और फिर भी इनमें से कोई सच को नहीं जान पाया।

कबीर दास के दोहे अर्थ सहित हिंदी में (Kabir Ke Dohe Download)
गुरू की आज्ञा आवै, गुरू की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय।।
कबीर दास जी कहते है कि व्यवहार में भी साधु को गुरू की आज्ञा के अनुसार ही आना जाना चाहिए। कबीर कहते है कि संत वही है जो जन्म और मरण से पार होने के लिए साधना करते है।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते है कि जो हमेशा प्रयास करते रहते है वो अपने जीवन में कुछ न कुछ पा ही लेते है। जैसे गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता है और जो डूबने के डर से प्रयास नहीं करता है वो किनारे पर ही रह जाता है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।।
कबीर दास जी कहते है कि कई सारे लोग बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़कर मृत्यु को चले गये। लेकिन कोई विद्वान नहीं बन पाया। कबीर दास जी का मनाना है कि यदि कोई प्यार और प्रेम के ढाई अक्सर ही पढ़ लेता है और वह प्रेम का सही मतलब जान लेता है तो वही सच्चा ज्ञानी है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
कबीर दास जी कहते है कि जरूरत से ज्यादा बोलना अच्छा नहीं होता और जरूरत से ज्यादा चूप रहना भी अच्छा नहीं होता। जैसे बहुत अधिक मात्रा में वर्षा भी अच्छी नहीं होती और धूप भी अधिक अच्छी नहीं होती।

Kabir Ke Dohe on Guru With Meaning
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कबीर दास के दोहे और उनके अर्थ
गुरू पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महंत।।
कबीर दास जी कहते है कि गुरू और पारस-पत्थर में अंतर है। ये अंतर सभी संत ही जानते है। पारस-पत्थर तो लोहे को सोना ही बनाता है। परन्तु गुरू अपने शिष्य को अपने से भी महान बना देता है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
कबीर दास जी कहते है कि कोई व्यक्ति लम्बे समय तक अपने हाथों में मोतियों की माला तो फेरता है। परन्तु उसके मन का भाव नहीं बदलता। कबीर दास जी की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को छोड़कर अपने मन के मोतियों की माला फेरे।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेय होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
कबीर दास जी कहते है कि जब तक तेरे पास देह है तब तक तू दान करते जा। जब तेरे देह से प्राण निकल जायेगा तो न ही तेरी यह सुंदर देह रहेगी और न ही तू। फिर तेरी देह मिट्टी में मिल जाएगी और देह देह नहीं कहलाएगी।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
कबीर दास जी कहते है कि इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को तो बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

Kabir Ke Dohe With Meaning in Hindi Language
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।।
कबीर दास जी कहते है कि मनुष्य इश्वर को दुःख में ही याद करता है। सुख में कोई भी इश्वर को नहीं याद करता है। यदि सुख में इश्वर को याद करें तो दुःख किस बात का होय।
कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोया।।
कबीर दास जी कहते है कि शिष्य पूरा कुबुद्धि जैसे कीचड़ से भरा है। इसे धोने के लिए गुरू का ज्ञान ही जल है। कबीर दास जी कहते है कि गुरुदेव जन्म-जन्म की बुराई को क्षण में ही नष्ट कर देते है।
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
कबीर दास जी कहते है कि कंकर पत्थर से बनी मस्जिद में मुल्ला जोर जोर से अजान देता है। कबीर दास जी कहते है कि क्या खुदा बहरा है।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरू चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।
कबीर दास जी कहते है कि यह दुनिया दो दिन का झमेला है, इससे मोह नहीं जोड़े। कबीर दास जी कहते है कि सदगुरुदेव की चरणों में मन लगाओ। वह पर ही सुख मिलेगा।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।
कबीर दास जी कहते है कि अपने मन में धीरज रखना चाहिए। मन में धीरज रखने से ही सब कुछ होता है। जैसे माली यदि पेड़ को सौ घड़े से सींचता है, पर फल तो ऋतु आने पर होते है।

अनुभव पर कबीर के दोहे – Kabir ke dohe Experience
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कबीर के दोहे हिंदी में
कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव
आतम द्रिष्टि कहां लिखै, जित देखो तित पीव।
कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है। वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नही है।
आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है। हम तो जहाॅ भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा
को ही पाते हैं।
कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि
सबै हरफ है द्वात मह, द्वात ना हरफन माहि।
मैं कितनी शिक्षा देता रहूॅ। स्वयं अपने मन में समझों। सभी अक्षर दावात में है पर दावात
अक्षर में नहीं है। यह संसार परमात्मा में स्थित है पर परमात्मा इस सृष्टि से भी बाहर तक असीम है।
ज्ञान भक्ति वैराग्य सुख पीव ब्रह्म लौ ध़ाये
आतम अनुभव सेज सुख, तहन ना दूजा जाये।
ज्ञान,भक्ति,वैराग्य का सुख जल्दी से तेज गति से भगवान तक पहुॅंचाता है।
पर आत्मानुभव आत्मा और परमात्मा का मेल कराता है। जहाॅं अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता है।
ताको लक्षण को कहै, जाको अनुभव ज्ञान
साध असाध ना देखिये, क्यों करि करुन बखान।
जिसे अनुभव का ज्ञान है उसके लक्षणों के बारे में क्या कहा जाय। वह साधु असाधु में भेद नहीं देखता है।
वह समदर्शी होता है। अतः उसका वर्णन क्या किया जाय।
दूजा हैं तो बोलिये, दूजा झगड़ा सोहि
दो अंधों के नाच मे, का पै काको मोहि।
यदि परमात्मा अलग अलग हों तो कुछ कहाॅ जाय। यही तो सभी झगड़ों की जड़ है। दो अंधों के नाच में कौन अंधा किस अंस अंधे पर मुग्ध या प्रसन्न होगा?
Kabir ke Dohe in Hindi
नर नारी के सूख को, खांसि नहि पहिचान
त्यों ज्ञानि के सूख को, अज्ञानी नहि जान।
स्त्री पुरुष के मिलन के सुख को नपुंसक नहीं समझ सकता है। इसी तरह ज्ञानी का सुख एक मूर्ख अज्ञानी नहीं जान सकता है।
निरजानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय
अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।
अज्ञानी नासमझ से क्या कहा जाये। कबीर को कहते लाज लग रही है। अंधे के सामने नाच दिखाने से उसकी कला भी व्यर्थ हो जाती है। अज्ञानी के समक्ष आत्मा परमात्मा की बात करना व्यर्थ है।
ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार
सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।
एक ज्ञानी व्यक्ति जो परामर्श तरीका बतावें उस पर सुन कर विचार करना चाहिये। परंतु एक अंधे व्यक्ति की पत्नी किस के लिये सज धज श्रंगार करेगी।
अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल
आँखों से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।
वस्तुतः यह अंधों का हाथी है जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है। वह अपने आँखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है। अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है।
ज्ञानी भुलै ज्ञान कथि निकट रहा निज रुप
बाहिर खोजय बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।
तथाकथित ज्ञानी अपना ज्ञान बघारता है जबकी प्रभु अपने स्वरुप में उसके अत्यंत निकट हीं रहते है। वह प्रभु को बाहर खोजता है जबकी वह अनुपम आकर्षक प्रभु हृदय के विराजमान है।
Kabir ke Pad
वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि
बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।
वेदों के वचन,अनुभव,युक्तियाॅं आदि परमात्मा के प्राप्ति के आनंद की परछाई मात्र है। ज्ञाप स्वरुप एकात्म आदि पुरुष परमात्मा के बारे में मैं कुछ भी नहीं बताने के लायक हूॅं।
ज्ञानी मूल गंवायीयाॅ आप भये करता
ताते संसारी भला, सदा रहत डरता।
किताबी ज्ञान वाला व्यक्ति परमात्मा के मूल स्वरुप को नहीं जान पाता है। वह ज्ञान के दंभ में स्वयं को ही कर्ता भगवान समझने लगता है। उससे तो एक सांसारिक व्यक्ति अच्छा है जो कम से कम भगवान से डरता तो है।
ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान
त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।
गूंगे लोगों के इशारे को एक गूंगा ही समझ सकता है। इसी तरह एक आत्म ज्ञानी के आनंद को एक आत्म ज्ञानी ही जान सकता है।
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात
सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।
परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान
अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।
अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।
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आतम अनुभव सुख की, जो कोई पुछै बात
कई जो कोई जानयी कोई अपनो की गात।
परमात्मा के संबंध में आत्मा के अनुभव को किसी के पूछने पर बतलाना संभव नहीं है। यह तो स्वयं के प्रयत्न,ध्यान,साधना और पुण्य कर्मों के द्वारा ही जाना जा सकता है।
आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद
चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।
जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।
ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।
भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय
रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।
एक धनी निर्धन और निर्धन धनी हो सकता है। परंतु परमात्मा का निवास होने पर वह कभी पूर्ण भरा या खाली नहीं रहता। अनुभव यही कहता है। परमात्मा से पुर्ण हृदय कभी खाली नहीं-हमेशा पुर्ण ही रहता है।
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक
जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।
हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।
लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात
दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।
परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हिन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।
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