बिहारी का पूरा नाम बिहारी लाल चौबे था और ये हिंदी साहित्य के एक महान यशस्वी और विद्धान कवि के रूप में जाने जाते थे। बिहारी रीतिकाल के कवी थे, बिहारी लाल उस समय के कविराज कहे जाते थे। इनके काव्य का अर्थ शाब्दिक नहीं होता था, ये थोड़े में अथाह का भाव व्यक्त करते थे। बिहारी अपनी रचना सतसई (Bihari Satsai) (इसमें 719 Bihari Ke Dohe संकलित है) के लिए जाने जाते थे। इनका जन्म 1600 वसुवा गोविंदपुर, ग्वालियर, भारत में हुआ था और 1664 में जीवनकाल पूरा हुआ।

आज हम आपको Bihari Ke Dohe बताने जा रहे हैं। उम्मीद करते हैं आपको यह संग्रह पसंद आएगा। तो आइये जानते हैं Bihari Ke Dohe in Hindi.
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महाकवि बिहारी लाल के प्रसिद्ध दोहे हिंदी अर्थ सहित – Bihari Ke Dohe
Bihari Ke Dohe in Hindi
दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
बिहारी जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि प्रेम की रीति सबसे अनूठी है। इसमें उलझते है तो नयन है, लेकिन परिवार से टूट जाते हैं। प्रेम की यह रीति तो नई है। इससे चतुर प्रेमियों के चीत तो जुड़ जाते हैं, पर दुश्मनों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।
परिति गांठि दुरजन – हियै, दई नई यह रीति।।
स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बिहारी जी कहते हैं कि हे बाज, दुसरें लोगों के अहम की तुष्टि के लिए अपने पक्षियों को मत मारो। इन पर विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिध्द है और न ही यह काम शुभ है, इसमें तो तुम अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो। यह बात बिहारी जी ने जब कही तब शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध हिन्दू राजा जयशाह किया करते थे। यह बात बिहारी जी को अच्छी नहीं लगी।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।
तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आवै कीन्हि बाट।
विकट जटे जौं लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट।।बिहारी जी इस दोहे में कहते हैं कि जिस प्रकार हमारे घर का दरवाजा बंद होता है, तब तक उस घर में कोई उस दरवाजे को बिना खोले नहीं प्रवेश कर सकता, तब तक उस दरवाजे को खोल नहीं देते। ठीक इसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने मन में छल और कपट के दरवाजे खोल नहीं देता तब तक उस मनुष्य के मन में भगवान प्रवेश नहीं कर सकते हैं। अर्थात यदि मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति चाहता है तो उसको अपने मन से छल कपट को दूर करके अपने मन निर्मल करना होगा।
कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
बिहारी लाल जी कहते हैं कि धतूरे में सोने से भी सौ गुना ज्यादा मादकता होती है। जब कोई व्यक्ति धतूरे को खाता है तो वह पगला जाता है। जबकि सोने को पाते ही व्यक्ति पागल और अभिमानी हो जाता है।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।
या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोय,
बिहारी लाल जी इस दोहे के माध्यम से अपने आराध्य श्री कृष्ण की भक्ति का वर्णन करते हुए कहना चाहते है कि जिसका मन प्रेम और अनुराग से भर जाता है फिर उस मन की गति को समझना अत्यंत ही कठिन होता है। इस मन की गति बहुत ही विचित्र है क्योंकि कभी तो यह मन श्री कृष्ण की भक्ति में डूब जाता है। जबकि कभी यह सांसारिक मोह माया की ओर हो जाता है।
ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग। त्यों त्यों उज्ज्जल होय।।
कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
बिहारी जी कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपको दीन होकर आपको कितने समय तक पुकार रहा हूँ और आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरू, स्वामी ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आपको भी इस संसार की हवा लग गई है या फिर आप भी इस संसार की तरह स्वार्थी हो गये हैं।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।
मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु, यौ राजत नंद नंद।
बिहारी जी कहते है कि राधा जी श्री कृष्ण के सौंदर्य और सुंदरता से मुग्ध होकर भगवान श्री कृष्ण के सर पर सुशोभित मोर पंख की तुलना चन्द्रमा से करते हुए अपने मन की स्थिति का वर्णन अपनी सखी के सामने करती है और सखी को कहती है कि भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित होकर उनकी सुन्दरता को और भी बढ़ा देता है। उसी प्रकार श्री कृष्ण शिव जी से भी अधिक सुंदर लगने के लिए मयूर पंख रुपी सैंकड़ों चन्द्रमाओं को अपने सर पर धारण कर लिए है।
मनु ससि शेखर की अकस, किय सेखर सत चंद।।
या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
बिहारी जी कहते हैं कि इस प्रेम की गति को कोई समझ ही नहीं सकता है। जैसे-जैसे श्री कृष्ण के प्रेम का रंग चढ़ता जाता है वैसे-वैसे मन उज्ज्वल होता जाता है। अर्थात् श्री कृष्ण से प्रेम होने के बाद मन और भी अधिक निर्मल और स्वच्छ हो जाता है।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।
नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि।
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।।बिहारी लाल जी भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं कि कान्हा शायद तुम्हें अब अनदेखा करना ही अच्छा लगने लगा है या फिर मेरी पुकार फीकी पड़ रही है। मुझे लगता है कि हाथी को तैरने के बाद तुमने अपने भक्तों की मदद करना छोड़ दिया है।
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Bihari Ke Dohe
जगतु जान्यौ जिहिं सकलु सो हरि जान्यौ नाहिं।
बिहारी लाल जी इस दोहे के माध्यम से ईश्वर के सभी भक्तों को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि वें अपने आराध्य, जिसने सम्पूर्ण संसार को ज्ञान कराया है, सभी को उसके बारे में जान लेना चाहिए। बिहारी लाल जी कहते हैं कि जिस ईश्वर ने तुम्हें इस संसार में मनुष्य बनाकर भेजा है, उस ईश्वर को तुमने अभी तक सही से जाना नहीं है।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखि न देखी जाहिं।।
मेरी भाव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।
बिहारी जी अपने ग्रन्थ के सफल समापन के लिए राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएं वही चतुर राधा दूर करेगी, जिनके शरीर की छाया पड़ते ही सांवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं। अर्थात् मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेगी, जिनकी झलक दिखने मात्र से सांवले कृष्ण हरे अर्थात् प्रशन हो जाते हैं।
जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़ै दुख-दंदु।
इस दोहे में बिहारी लाल जी कहते हैं कि यदि किसी राज्य में दो राजा शासन करेंगे तो उस राज्य की जनता को दोहरा दुःख देखना पड़ेगा और दोनों राजाओं की आज्ञाओं का पलना करना पड़ेगा और दोनों राजाओं के लिए अलग अलग सुख सुविधा की व्यवस्था करनी पड़ेगी। ये तो प्रजा के लिये दोहरा दुःख ही हुआ। यह वैसे ही है जैसे अमावस्या की तिथि के दिन सूर्य और चन्द्रमा दोनों एक ही राशि में मिलकर सम्पूर्ण संसार को और अधिक अंधकारमय कर देते हैं।
अधिक अन्धेरो जग करैं मिल मावस रवि चंदु।।
कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
बिहारी जी कहते हैं कि जैसे पानी में नमक पूरी तरह से घुल जाता है। उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण प्रेम समा गया है और इसे दूर करना असंभव है। अब कोई भी कितना ही प्रयत्न क्यों न कर लें, पर जैसे पानी में से नमक को अलग करना संभव नहीं है। उसी प्रकार मेरे हृदय से कृष्ण प्रेम को अलग करना या मिटाना भी असंभव है।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।
नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।
जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ।।इस दोहे में बिहारी जी मनुष्य के लिए विनम्रता के महत्व का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मनुष्य और एक नल के जल की स्थिति एक समान होती है। जिस तरह नल का जल जितना नीचे रहता है और जब नल को चलाया जाता है तो वह जल उतना ही ऊपर ऊपर चढ़ता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी अपने अहंकार और अवगुणों को त्याग कर जितना विनम्र और नम्रता का आचरण करता है। वह उतना ही ऊँचाइयों को छू लेता है और मनुष्य श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होता जाता है।
तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
बिहारी लाल जी कहते हैं कि राधा को ये प्रतीत हो रहा है कि कृष्ण किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में बंध गये हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है कि हे राधिका अच्छे से जान लो कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे। क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बस गई हो।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।
बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु।
बिहारी जी इस दोहे के माध्यम से समाज की वास्तविकता को उजागर करते हुए कहते हैं कि जिस मनुष्य में बुराई बस जाती है जो सभी का बुरा ही सोचता है, अहित सोचता है, दुष्ट व्यवहार करता है। इस संसार में उसी का समान होता है। क्योंकि जिस तरह इस समाज के लोग अच्छे ग्रह को अच्छा कहकर वैसे ही छोड़ देते हैं, किन्तु जो ग्रह उनका अहित कर सकता है। उस ग्रह की शांति के लिए दान धर्म और जप आदि कराते हैं।
भलौ भलौ कहि छोडिये, खोटै ग्रह जपु दानु।।
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि या तो मैं पागल हूँ या फिर पूरा गांव पागल है। मैंने कई बार सुना है और सभी लोग भी कहते हैं कि चन्द्रमा शीतल है। लेकिन Tulsidas ke dohe के अनुसार माता सीता ने इस चन्द्रमा से कहा था मैं विरह की आग में जल रही हूं। यह देखकर ये अग्निरूपी चन्द्रमा भी आग की बारिश नहीं करता।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।
वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।
बिहारी लाल जी इस दोहे के माध्यम से गुणवान व्यक्तियों को सलाह देते हुए कहते हैं कि इस समाज के अज्ञानी लोगों के बीच आपके ज्ञान का कोई महत्व नहीं हैं। क्योंकि तुम तो अपने अन्दर गुलाब के फुल की तरह सुन्दर और अच्छे गुण समाहित किये हुए हो। किन्तु ये अज्ञानी लोग तुम्हारे अच्छे गुणों को कभी नहीं देख पाते हैं और ये तुम्हे गुणहीन ही मानते रहेंगे। ऐसे में तुम्हारे गुणों का होना और ना होना दोनों ही एक समान है।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।
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