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बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित

Bihari Ke Dohe: बिहारी का पूरा नाम बिहारी लाल चौबे था और ये हिंदी साहित्य के एक महान यशस्वी और विद्धान कवि के रूप में जाने जाते थे। बिहारी रीतिकाल के कवी थे, बिहारी लाल उस समय के कविराज कहे जाते थे।

इनके काव्य का अर्थ शाब्दिक नहीं होता था, ये थोड़े में अथाह का भाव व्यक्त करते थे। बिहारी अपनी रचना सतसई (इसमें 719 बिहारी लाल के दोहे संकलित है) के लिए जाने जाते थे। इनका जन्म 1600 वसुवा गोविंदपुर, ग्वालियर, भारत में हुआ था और 1664 में जीवनकाल पूरा हुआ।

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बिहारीलाल के दोहे अर्थ सहित

यहां पर बिहारी सतसई के दोहे अर्थ सहित (bihari lal ke dohe) बता रहे हैं। यह दोहे सरल भाषा में हिंदी अर्थ सहित शेयर किये है।

बिहारी के दोहे अर्थ सहित (Bihari Ke Dohe)

Bihari Ke Dohe in Hindi

दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन – हियै, दई नई यह रीति।।

बिहारी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि प्रेम की रीति सबसे अनूठी है। इसमें उलझते है तो नयन है, लेकिन परिवार से टूट जाते हैं। प्रेम की यह रीति तो नई है। इससे चतुर प्रेमियों के चीत तो जुड़ जाते हैं, पर दुश्मनों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।

स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।

बिहारी कहते हैं कि हे बाज, दुसरें लोगों के अहम की तुष्टि के लिए अपने पक्षियों को मत मारो। इन पर विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिध्द है और न ही यह काम शुभ है, इसमें तो तुम अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो।

यह बात बिहारी जी ने जब कही तब शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध हिन्दू राजा जयशाह किया करते थे। यह बात बिहारी को अच्छी नहीं लगी।

सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।

इस दोहे में बिहार के दोहे को नाविक के तीर की तरह बताया गया है। जिस तरह नाविक का तीर दिखने में तो छोटा होता है लेकिन उसका प्रहार और उससे लगे घाव बहुत ही गंभीर होते हैं, ठीक उसी प्रकार बिहारी के दोहे भी दिखने में छोटे हैं लेकिन इन छोटे-छोटे दोह के जो अर्थ है वह परीपूर्ण है।

तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आवै कीन्हि बाट।
विकट जटे जौं लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट।।

बिहारी इस दोहे में कहते हैं कि जिस प्रकार हमारे घर का दरवाजा बंद होता है, तब तक उस घर में कोई उस दरवाजे को बिना खोले नहीं प्रवेश कर सकता, तब तक उस दरवाजे को खोल नहीं देते।

ठीक इसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने मन में छल और कपट के दरवाजे खोल नहीं देता तब तक उस मनुष्य के मन में भगवान प्रवेश नहीं कर सकते हैं।

अर्थात यदि मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति चाहता है तो उसको अपने मन से छल कपट को दूर करके अपने मन निर्मल करना होगा।

कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।

बिहारी लाल कहते हैं कि धतूरे में सोने से भी सौ गुना ज्यादा मादकता होती है। जब कोई व्यक्ति धतूरे को खाता है तो वह पगला जाता है। जबकि सोने को पाते ही व्यक्ति पागल और अभिमानी हो जाता है।

या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोय,
ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग। त्यों त्यों उज्ज्जल होय।।

बिहारी लाल इस दोहे के माध्यम से अपने आराध्य श्री कृष्ण की भक्ति का वर्णन करते हुए कहना चाहते है कि जिसका मन प्रेम और अनुराग से भर जाता है फिर उस मन की गति को समझना अत्यंत ही कठिन होता है।

इस मन की गति बहुत ही विचित्र है क्योंकि कभी तो यह मन श्री कृष्ण की भक्ति में डूब जाता है। जबकि कभी यह सांसारिक मोह माया की ओर हो जाता है।

कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।

बिहारी कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपको दीन होकर आपको कितने समय तक पुकार रहा हूँ और आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरू, स्वामी ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आपको भी इस संसार की हवा लग गई है या फिर आप भी इस संसार की तरह स्वार्थी हो गये हैं।

मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु, यौ राजत नंद नंद।
मनु ससि शेखर की अकस, किय सेखर सत चंद।।

बिहारी कहते है कि राधा जी श्री कृष्ण के सौंदर्य और सुंदरता से मुग्ध होकर भगवान श्री कृष्ण के सर पर सुशोभित मोर पंख की तुलना चन्द्रमा से करते हुए अपने मन की स्थिति का वर्णन अपनी सखी के सामने करती है और सखी को कहती है कि भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित होकर उनकी सुन्दरता को और भी बढ़ा देता है।

उसी प्रकार श्री कृष्ण शिव जी से भी अधिक सुंदर लगने के लिए मयूर पंख रुपी सैंकड़ों चन्द्रमाओं को अपने सर पर धारण कर लिए है।

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भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने नायिका के सुंदरता को शब्दों और छंदों से बहुत खूबसूरत तरीके से प्रस्तुत किया है। नायिका न केवल रंग रूप में सुंदर है अपितु वह चंपक वर्णी पद्मिनी नारी है।

नायिका के शरीर का रंग जिस तरह है, उसी रंग के अनुरूप उसने हल्के पीले रंग के वस्त्र धारण किए हुए हैं। उसके वस्त्र के रंग शरीर के रंग से इस तरह मिल रहा है कि दोनों के बीच में कोई अंतर ही नहीं दिखाई दे रहा है।

अर्थात नायिका के खूबसूरती के रंग से उसकी अंगिया भी छिप गई है। नायिका अत्यंत आकर्षक प्रतीत हो रही हैं।

लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर।।

उपरोक्त दोहे के माध्यम से बिहारी ने नायिका के अतिशय सौंदर्य का खूबसूरत वर्णन करते हुए कहा है कि नायिका की सौंदर्य छवि का चित्र बनाने के लिए ना जाने कितने ही अभिमानी और गर्वीले चित्रकार आए लेकिन सभी असफल सिद्ध हुए। सबका अहंकार चूर-चूर हो गया।

क्योंकि इस सौंदर्य नायिका की सुंदरता क्षण-प्रतिक्षण बढ़ता ही जा रहा था। अतः जब चित्रकार चित्र बनाकर जैसे ही चित्र और उस सुंदरी का मिलान करता उसको भिन्नता दिखाई देती।

इस दोहे से सुंदरता की यह परिभाषा सिद्ध होती है कि जो क्षण क्षण में कुछ नया दिखाई पड़े वही वास्तविक सुंदरता है और इसी परिभाषा के अनुसार बिहारी ने अपने नायिका को आदर्श सुंदरी सिद्ध किया है।

सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने भगवान श्री कृष्ण के साँवले रंग की सुंदरता का बखान करते हुए कहा है कि भगवान श्री कृष्ण के सांवले शरीर पर पीला वस्त्र इस तरह शोभा दे रहा है मानो नीलमणि पहाड़ पर सूर्योदय की किरण पड़ रही हो।

या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।

बिहारी कहते हैं कि इस प्रेम की गति को कोई समझ ही नहीं सकता है। जैसे-जैसे श्री कृष्ण के प्रेम का रंग चढ़ता जाता है वैसे-वैसे मन उज्ज्वल होता जाता है। अर्थात् श्री कृष्ण से प्रेम होने के बाद मन और भी अधिक निर्मल और स्वच्छ हो जाता है।

नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि।
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।।

बिहारी लाल भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं कि कान्हा शायद तुम्हें अब अनदेखा करना ही अच्छा लगने लगा है या फिर मेरी पुकार फीकी पड़ रही है। मुझे लगता है कि हाथी को तैरने के बाद तुमने अपने भक्तों की मदद करना छोड़ दिया है।

जगतु जान्यौ जिहिं सकलु सो हरि जान्यौ नाहिं।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखि न देखी जाहिं।।

बिहारी लाल इस दोहे के माध्यम से ईश्वर के सभी भक्तों को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि वें अपने आराध्य, जिसने सम्पूर्ण संसार को ज्ञान कराया है, सभी को उसके बारे में जान लेना चाहिए।

बिहारी लाल कहते हैं कि जिस ईश्वर ने तुम्हें इस संसार में मनुष्य बनाकर भेजा है, उस ईश्वर को तुमने अभी तक सही से जाना नहीं है।

मेरी भाव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।
जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।

बिहारी अपने ग्रन्थ के सफल समापन के लिए राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएं वही चतुर राधा दूर करेगी, जिनके शरीर की छाया पड़ते ही सांवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं।

अर्थात् मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेगी, जिनकी झलक दिखने मात्र से सांवले कृष्ण हरे अर्थात् प्रशन हो जाते हैं।

दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़ै दुख-दंदु।
अधिक अन्धेरो जग करैं मिल मावस रवि चंदु।।

इस दोहे में बिहारी लाल कहते हैं कि यदि किसी राज्य में दो राजा शासन करेंगे तो उस राज्य की जनता को दोहरा दुःख देखना पड़ेगा और दोनों राजाओं की आज्ञाओं का पलना करना पड़ेगा और दोनों राजाओं के लिए अलग अलग सुख सुविधा की व्यवस्था करनी पड़ेगी।

ये तो प्रजा के लिये दोहरा दुःख ही हुआ। यह वैसे ही है जैसे अमावस्या की तिथि के दिन सूर्य और चन्द्रमा दोनों एक ही राशि में मिलकर सम्पूर्ण संसार को और अधिक अंधकारमय कर देते हैं।

कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।

बिहारी कहते हैं कि जैसे पानी में नमक पूरी तरह से घुल जाता है। उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण प्रेम समा गया है और इसे दूर करना असंभव है।

अब कोई भी कितना ही प्रयत्न क्यों न कर लें, पर जैसे पानी में से नमक को अलग करना संभव नहीं है। उसी प्रकार मेरे हृदय से कृष्ण प्रेम को अलग करना या मिटाना भी असंभव है।

नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।
जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ।।

इस दोहे में बिहारी मनुष्य के लिए विनम्रता के महत्व का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मनुष्य और एक नल के जल की स्थिति एक समान होती है। जिस तरह नल का जल जितना नीचे रहता है और जब नल को चलाया जाता है तो वह जल उतना ही ऊपर ऊपर चढ़ता है।

ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी अपने अहंकार और अवगुणों को त्याग कर जितना विनम्र और नम्रता का आचरण करता है। वह उतना ही ऊँचाइयों को छू लेता है और मनुष्य श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होता जाता है।

तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।

बिहारी लाल कहते हैं कि राधा को ये प्रतीत हो रहा है कि कृष्ण किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में बंध गये हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है कि हे राधिका अच्छे से जान लो कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे। क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बस गई हो।

बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु।
भलौ भलौ कहि छोडिये, खोटै ग्रह जपु दानु।।

बिहारी इस दोहे के माध्यम से समाज की वास्तविकता को उजागर करते हुए कहते हैं कि जिस मनुष्य में बुराई बस जाती है, जो सभी का बुरा ही सोचता है, अहित सोचता है, दुष्ट व्यवहार करता है। इस संसार में उसी का समान होता है।

क्योंकि जिस तरह इस समाज के लोग अच्छे ग्रह को अच्छा कहकर वैसे ही छोड़ देते हैं, किन्तु जो ग्रह उनका अहित कर सकता है। उस ग्रह की शांति के लिए दान धर्म और जप आदि कराते हैं।

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।

उपरोक्त दोहे के माध्यम से बिहारी ने नायक को व्यंग्य करते हुए कहा है कि नायिका में नायक इस हद तक आसक्त हो चुका है कि वह राजकीय कार्य को भूल चुका है।

ऐसे में कवि कहते हैं कि अभी ना तो इस कली में पराग आया है, ना मधुर मकरंद, ना इसके विकास का क्षण आया है। अभी तो यह एक कली मात्र है।

जब तू अभी से ही इसके मोह में अंधा बन रहा है तो जब यह कली बनकर पराग और मकरंद युक्त होगी अर्थात जब नायिका संपन्न सरसता से प्रफुल्लित हो जाएगी उस समय नायक की क्या दुर्दशा होगी?

कोऊ कोटिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार।
मो संपति जदुपति सदा, बिपति-बिदारनहार।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने भगवान श्री कृष्ण को ही असली संपत्ति बताई है। इस दोहे के माध्यम से बिहारी ने संपत्ति के पीछे भागने वाले लालची लोगों पर व्यंग्य करते हुए कहा है कि कोई करोड़ एकत्र करें या कोई लाख हजार, मुझे उससे कुछ भी लेना देना नहीं। क्योंकि मेरी असली संपत्ति तो यादवेंद्र श्री कृष्णा है, जो सदैव मेरी विपत्ति और मेरे कष्टो को दूर करते हैं।

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गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूढे जहां हजारु।
बहे सदा पसु नरनु कौ प्रेम-पयोधि पगारु।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी कहते हैं कि पर्वत से भी ऊंची रसिकता रखने वाले प्रेमी जन प्रेम के सागर में हजार बार भी डूब जाने के बाद भी वे उसकी थाह ढूंढने में असफल होते हैं। वहीं नर पशु को अर्थात अरसिक प्रवृत्ति के लोगों को वही प्रेम का सागर एक छोटी खाई के समान लगता है।

मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।

इस दोहे में बिहारी कहते हैं कि या तो मैं पागल हूँ या फिर पूरा गांव पागल है। मैंने कई बार सुना है और सभी लोग भी कहते हैं कि चन्द्रमा शीतल है।

लेकिन तुलसी दास के दोहे के अनुसार माता सीता ने इस चन्द्रमा से कहा था मैं विरह की आग में जल रही हूं। यह देखकर ये अग्निरूपी चन्द्रमा भी आग की बारिश नहीं करता।

वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।

बिहारी लाल इस दोहे के माध्यम से गुणवान व्यक्तियों को सलाह देते हुए कहते हैं कि इस समाज के अज्ञानी लोगों के बीच आपके ज्ञान का कोई महत्व नहीं हैं। क्योंकि तुम तो अपने अन्दर गुलाब के फुल की तरह सुन्दर और अच्छे गुण समाहित किये हुए हो।

किन्तु ये अज्ञानी लोग तुम्हारे अच्छे गुणों को कभी नहीं देख पाते हैं और ये तुम्हे गुणहीन ही मानते रहेंगे। ऐसे में तुम्हारे गुणों का होना और ना होना दोनों ही एक समान है।

घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।

बिहारी राजा जयसिंह के राज कवि थे। विवाह के बाद उनका ध्यान राज्य के कार्य और उसके विकास पर कम होने लगा था। तब दोहे के माध्यम से बिहारी ने उन्हें राज काज पर ध्यान देने के लिए समझाया था।

बिहारी की बात राजा को समझ में आ गई और उन्होंने फिर से राज्य पर ध्यान देना शुरू कर दिया। जब शाहजहां ने बलख पर हमला किया, जो सफल नहीं रहा और शाही सेना को वहां से निकालना मुश्किल हो गया तब जयसिंह ने अपनी चतुराई से सेना को वहां से कुशलतापूर्वक बाहर निकाला।

मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने भगवान श्री कृष्ण के उस रंग रूप की प्रशंसा की है, जिस रूप में वे उनके मन में बसते हैं। बिहार कहते हैं जिनके हाथ में मुरली हो, जो मधुर तान से सबके मन को मोहित कर देते हैं, जिनके सर पर मोर मुकुट है, जो पीले रंग का धोती धारण किए हुए हैं। भगवान श्री कृष्ण का यही रूप मेरे मन में बसता है।

जटित नीलमनि जगमगति, सींक सुहाई नाँक।
मनौ अली चंपक-कली, बसि रसु लेतु निसाँक।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने नायिका के नाक पर नीलम जड़ी हुई लोंग को देखकर उसकी बढी हुई सुंदरता का खूबसूरत वर्णन करते हुए कहते हैं कि नायिका की सुहावनी नाक पर नीलम से जड़ी हुई सुंदर जगमगाती लोंग इस तरह लग रहा है मानो चंपा की कली पर भौंरा बैठकर निशंक होकर रसपान कर रहा है।

कहत,नटत, रीझत,खीझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है,नैननु ही सब बात।

बिहारी के उपरोक्त दोहे में कक्ष में गुरुजनों की उपस्थिति से भरे भवन में नायक नायिक से किस तरह नेत्रों से परस्पर बातचीत करते हैं, उसकी सुंदर प्रस्तुति की गई है।

भरे भवन में अनेक सामाजिकों की भीड़ में नायक नायिका मुख से वार्तालाप करने में असमर्थ है। अतः वे दोनों आंखों के संकेत से एक दूसरे से वार्तालाप करते हैं। नायक आंखों के संकेत से नायिका को काम क्रीड़ा के लिए प्रार्थना करता है। लेकिन नायिका उसके निवेदन को अस्वीकार कर देती है।

हालांकि यहां पर उसका अस्वीकार भी स्वीकार का ही वाचक है। तभी तो नायक नायिका के अस्वीकार को भी उसकी हां समझ कर रिझ जाता है। नायक को नायिका के निषेध पर भी रिझते हुए देख नायिका को खींझ उत्पन्न होती है।

अंत में दोनों में समझौता हो जाता है। नायक पुनः प्रसन्न होता है। लेकिन नायक को इस तरह मुस्कुराते देख नायिका को लज्जा आती है और लज्जित होने का कारण है कि वे दोनों प्रेम विषयक विविध चेष्टाएं लोगों से भरे भवन में करते हैं।

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने भगवान श्री कृष्ण और राधा की जोड़ी को श्लेष अलंकार से अलंकृत करते हुए कहा है कि यह जोड़ी चिरंजीव हो। हो भी क्यों ना दोनों में गहरा प्रेम है, एक वृषभानु की पुत्री है दूसरा बलराम का भाई है। एक वृषभ (बैल) की अनुजा (बहन) हैं और दूसरा हलधर (बैल) के भाई हैं।

कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।

उपरोक्त दोहे के माध्यम से बिहारी ने भीषण गर्मी से बेहाल जंगली जानवरों के हालात का खूबसूरत चित्रण करते हुए कहा है कि इस भीषण गर्मी में जानवर एक ही स्थान पर बैठे हुए हैं। मोर और सांप एक साथ बैठे हैं हिरण और बाघ एक साथ बैठे हुए हैं।

जानवरों की इस तरह हालत देखकर कवि को लगता है कि भीषण गर्मी में जंगल को किसी तपोवन की तरह कर दिया है। जिस तरह तपोवन में विभिन्न इंसान आपसी द्वेष को बुलाकर एक साथ बैठते हैं, ठीक उसी तरह मोर और सांप, हिरण और बाघ एक दूसरे के कट्टर दुश्मन होने के बावजूद एक साथ बैठे हुए हैं।

पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने नायिका के मुख को पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सुंदर बताया है। नायिका की सुंदरता इस हद तक है कि उसके घर के चारों ओर हमेशा पूर्णिमा ही बना रहता है, जिसके परिणाम स्वरुप तिथि की जानकारी हो ही नहीं पाती है। इसीलिए तिथि जानने के लिए पंचांग की सहायता लेनी पड़ती है।

जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे रामु।।

उपरोक्त दोहे में बिहारी ने भगवान के भक्ति के लिए सच्चा तरीका बताते हुए कहा है कि ईश्वर की भक्ति करने के लिए बाहरी आडंबर का सहारा लेना जैसे समाज को दिखाने के लिए मूर्ति की पूजा करना, मस्तिष्क एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक छाप लगाना, मंत्र विशेष का जाप करना इत्यादि से स्वयं को बहुत बड़ा भक्त दिखाने से काम पूरा नहीं होता है।

कच्चे मन वाला व्यक्ति व्यर्थ में ही नाचते रहता है। भगवान राम कभी उससे प्रसन्न नहीं होते। वे तो उस भक्त से प्रसन्न होते हैं, जो सच्चे मन से भक्ति करता है।

निष्कर्ष

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Rahul Singh Tanwar
Rahul Singh Tanwar
राहुल सिंह तंवर पिछले 7 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे हैं। इनको SEO और ब्लॉगिंग का अच्छा अनुभव है। इन्होने एंटरटेनमेंट, जीवनी, शिक्षा, टुटोरिअल, टेक्नोलॉजी, ऑनलाइन अर्निंग, ट्रेवलिंग, निबंध, करेंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान जैसे विविध विषयों पर कई बेहतरीन लेख लिखे हैं। इनके लेख बेहतरीन गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं।

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