संत कबीर के दोहे (kabir das ke dohe) पथ प्रदर्शक के रूप में आज भी उतने ही प्रासंगिक है, जितने की उनके समय में थे। कबीर ने दोहों के माध्यम से समाज को आइना दिखाने का काम किया है।
समाज में फैली तमाम कुरीतियों पर कबीर के दोहे (kabir ke dohe) कड़ा प्रहार करते है। इनके दोहों को लौकिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टि से समझा जाना चाहिए। रुढ़िवादी परम्परा और आडम्बरों पर कड़ी चोट करने वाले संत कबीर की वाणी आज भी हर घर में गूंजती हैं।
कबीर एक संत के साथ-साथ महान समाज सुधारक भी थे। उनकी वाणी ने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया।
कबीर दास जी के दोहे (kabir ke dohe) पढ़कर हर व्यक्ति के मन में एक प्रेरणा और सकारात्मक भाव आते है।
इस लेख में हम कबीर दास के दोहे (kabir das ke dohe) का अमूल्य संग्रह लेकर आये है, हम उम्मीद करते है आपको यह जरूर पसंद आएगा।
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कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित (Kabir Ke Dohe)
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
कबीर दास जी कहते है कि खजूर के पेड़ जैसा बड़ा होने से कोई फायदा नहीं है। क्योंकि खजूर के पेड़ से न तो पंथी को छाया मिलती और उसके फल भी बहुत दूर लगते है, जो तोड़े नहीं जा सकते। कबीर दास जी कहते है कि बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का भला नहीं होता।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष वनराय।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय।।
इस दोहे में पत्ता वृक्ष को संबोधित करते हुए कहता है कि हे वनराय इस बार के वियोग होने पर हम न जाने कितने दूर चल जाएंगे, फिर हमारा दोबारा मिलन होगा या नहीं। इस उदाहरण के माध्यम से कबीर दास जी मनुष्य को समझाने की कोशिश करते हैं कि मनुष्य भी अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग योनि में जन्म लेते रहता है। इसीलिए उसे मनुष्य योनि में ही भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।
तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय।।
एक तिनके को भी कभी छोटा नहीं समझना चाहिए, भले ही वो पांव तले ही क्यूं न हो, यदि वह आपकी आँख में चला जाये तो बहुत तकलीफ देता है। वैसे ही गरीब और कमजोर व्यक्ति की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मीलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
कबीर दास जी कहते है कि मैं बुराई की खोज में निकला तो मुझे कोई बुराई नहीं मिली। लेकिन जब मैंने मेरे खुद के मन में देखा तो मुझे मुझसे बुरा कोई नहीं मिला।
गुरू गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।
कबीर दास जी कहते है कि यदि आपके सामने गुरू और इश्वर दोनों ही खड़े हो तो आप किसके चरण स्पर्श सबसे पहले करेंगे, गुरू ने अपने ज्ञान से हमें इश्वर तक पहुंचाया है तो गुरू की महिमा इश्वर से अधिक है, इसलिए हमें गुरू के चरण स्पर्श सबसे पहले करने चाहिए।
कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी प्रेम के महत्व को दर्शाते हैं। वे कहते हैं कि जीवन में जो व्यक्ति प्रेम को नहीं चखा होता है, उसका स्वाद नहीं लिया होता है, वह व्यक्ति सुने घर में आए एक अतिथि के समान होता है, जो जिस तरह आता है। वैसे ही वापस लौट जाता है, वह कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।
हिन्दू काहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोऊ जाना।।
कबीर दास जी कहते है कि हिन्दू को राम प्यारा है और तुर्क (मुसलमान) को रहमान। इस बात पर हिन्दू और मुस्लीम लड़ लड़ कर मौत के मुंह में जा रहे है और फिर भी इनमें से कोई सच को नहीं जान पाया।
kabir das ji ke dohe
गुरू की आज्ञा आवै, गुरू की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय।।
कबीर दास जी कहते है कि व्यवहार में भी साधु को गुरू की आज्ञा के अनुसार ही आना जाना चाहिए। कबीर कहते है कि संत वही है, जो जन्म और मरण से पार होने के लिए साधना करते है।
ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी लोगों को कहते हैं कि यह संसार तो माटी का है, जिसमें मृत्यु के बाद जीवन और जीवन के बाद मृत्यु का क्रम चलता ही रहता है। इसीलिए मनुष्य को सदैव ज्ञान पाने की कोशिश करते रहनी चाहिए।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
कबीर दास जी कहते है कि जो हमेशा प्रयास करते रहते है, वो अपने जीवन में कुछ न कुछ पा ही लेते है। जैसे गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता है और जो डूबने के डर से प्रयास नहीं करता है, वो किनारे पर ही रह जाता है।
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ने हर व्यक्ति के पसंद को दर्शाते हुए कहा है कि जिस तरीके से मछली को पानी प्यारा लगता है, एक लोभी व्यक्ति के लिए धन प्यारा होता है और एक मां के लिए उसका पुत्र प्यारा होता है, ठीक उसी तरह एक भक्त के लिए भगवान उसका सबसे प्यारा होता है।
कबीर माला मनहि कि, और संसारी भीख।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख॥
यहाँ कबीर कह रहे है कि माला तो मन की होती है, बाकी सब लोक दिखावा मात्रा है। माला फेरने से भगवान की प्राप्ति होती तो रहट (पानी निकालने का यन्त्र) के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है। माला फेरने से नहीं मन की माला से ही भगवान प्राप्ति की जा सकती है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।।
कबीर दास जी कहते है कि कई सारे लोग बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर मृत्यु को चले गये। लेकिन कोई विद्वान नहीं बन पाया। कबीर दास जी का मनाना है कि यदि कोई प्यार और प्रेम के ढाई अक्सर ही पढ़ लेता है और वह प्रेम का सही मतलब जान लेता है तो वही सच्चा ज्ञानी है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
कबीर दास जी कहते है कि जरूरत से ज्यादा बोलना अच्छा नहीं होता और जरूरत से ज्यादा चूप रहना भी अच्छा नहीं होता। जैसे बहुत अधिक मात्रा में वर्षा भी अच्छी नहीं होती और धूप भी अधिक अच्छी नहीं होती।
गुरू पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महंत।।
कबीर दास जी कहते है कि गुरू और पारस-पत्थर में अंतर है। ये अंतर सभी संत ही जानते है। पारस-पत्थर तो लोहे को सोना ही बनाता है। परन्तु गुरू अपने शिष्य को अपने से भी महान बना देता है।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
उपर्युक्त दोहे के माध्यम से कबीर दास जी सभी को मुख से सही शब्द निकालने की सीख देते हैं। वे कहते हैं कि जो अच्छी वाणी बोलता है, वही जानता है कि वाणी अनमोल रत्न है और ऐसे व्यक्ति सदैव हृदय रूपी तराजू में शब्दों को तोलकर ही मुख से बाहर निकालते हैं। सही और सीमित वाणी बोलने से ही लोग आपसे प्रसन्न होते हैं।
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kabir dohe
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
कबीर दास जी कहते है कि कोई व्यक्ति लम्बे समय तक अपने हाथों में मोतियों की माला तो फेरता है। परन्तु उसके मन का भाव नहीं बदलता। कबीर दास जी की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को छोड़कर अपने मन के मोतियों की माला फेरे।
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी मनुष्य के तृष्णा और लालच पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि इस संसार में रहते हुए ना माया मरती है ना मन मरता है। शरीर कई बार मर जाता है लेकिन मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती हैं।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेय होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
कबीर दास जी कहते है कि जब तक तेरे पास देह है तब तक तू दान करते जा। जब तेरे देह से प्राण निकल जायेगा तो न ही तेरी यह सुंदर देह रहेगी और न ही तू। फिर तेरी देह मिट्टी में मिल जाएगी और देह देह नहीं कहलाएगी।
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।।
गुरु और गोविंद (ईश्वर) दोनों एक साथ खड़े हो तो किसको प्रणाम करना चाहिए? ऐसी स्थिति में कबीर कहते है गुरु के चरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा प्रसाद से गोविन्द के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरा करो सम्हार।।
कबीर दास जी ने इस दोहे के माध्यम से बताया है कि मैं जन्म से ही अपराधी हूं, मेरे नाखून से लेकर मेरे चोटी तक विकार बड़े हुए हैं। ऐसे में वे भगवान से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि अब आप ही मेरे दुख को दूर करें। आप सर्वर ज्ञानी हैं आप मुझे संभाल कर मुझे कष्टों से मुक्त करें।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
कबीर दास जी कहते है कि इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को तो बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।।
कबीर दास जी कहते है कि मनुष्य इश्वर को दुःख में ही याद करता है। सुख में कोई भी इश्वर को नहीं याद करता है। यदि सुख में इश्वर को याद करें तो दुःख किस बात का होय।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी लोगों को परोपकारी होना सिखाते हैं। वे कहते हैं कि मृत्यु के बाद तुम्हें कोई दान करने के लिए नहीं कहेगा। अतः मनुष्य को निश्चित रूप से अपने जीवन में लोगों के उपकार करने चाहिए, यही जीवन का फल है।
साई इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय।
मै भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय।।
यहां कबीर ईश्वर से प्रार्थना करते हुए यह कह रहे है कि हे भगवान मुझे इतना दीजिये, जिसमें मेरा गुजारा चल जाये, मैं स्वयं भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमान को भी भोजन करा सकूँ।
कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोया।।
कबीर दास जी कहते है कि शिष्य पूरा कुबुद्धि जैसे कीचड़ से भरा है। इसे धोने के लिए गुरू का ज्ञान ही जल है। कबीर दास जी कहते है कि गुरुदेव जन्म-जन्म की बुराई को क्षण में ही नष्ट कर देते है।
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी समय के सदुपयोग के महत्व को बताते हुए कहते हैं कि अब तक सरा समय व्यर्थ ही गुजर गया। ना कभी सज्जनों के संगत में रहे ना ही कोई अच्छा काम किया। बिना प्रेम और भक्ति के इंसान भी पशु के समान ही हो जाता है। जो इंसान भक्ति करता है, उसके हृदय में भगवान का वास होता है।
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
कबीर दास जी कहते है कि कंकर पत्थर से बनी मस्जिद में मुल्ला जोर जोर से अजान देता है। कबीर दास जी कहते है कि क्या खुदा बहरा है।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।
इस दोहे के माध्यम से कबीरदास जी मनुष्य को कभी हार ना मानने की शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि जीवन में जय और पराजय केवल मन के ही भाव होते हैं। अगर हम किसी कार्य को शुरू करने से पहले ही हार मान ले तो निश्चित ही हमे उसमें पराजय ही मिलता है। इसीलिए कार्य को शुरू करते समय हमें सकारात्मक मन के साथ शुरू करना चाहिए। क्योंकि मन के भाव ही हमारे कर्मों के परिणाम निश्चित करते हैं।
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कबीर दास जी के दोहे
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरू चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।
कबीर दास जी कहते है कि यह दुनिया दो दिन का झमेला है, इससे मोह नहीं जोड़े। कबीर दास जी कहते है कि सदगुरुदेव की चरणों में मन लगाओ। वह पर ही सुख मिलेगा।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।
उपर्युक्त दोहे के माध्यम से कबीर दास जी इंसान को स्वयं पर गर्व ना करने की सीख देते हुए कहते हैं कि हे मानव तू स्वयं पर गर्व क्यों करता है? काल अपने हाथों में तेरे केस पकड़े हुए खड़ा है, ना जाने कहां देश या प्रदेश में वह तुझे मार डाले। इस तरह जब इस जीवन का कोई भरोसा ही नहीं तो क्यों स्वयं पर गर्व करना ?
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।
कबीर दास जी कहते है कि अपने मन में धीरज रखना चाहिए। मन में धीरज रखने से ही सब कुछ होता है। जैसे माली यदि पेड़ को सौ घड़े से सींचता है, पर फल तो ऋतु आने पर होते है।
कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव
आतम द्रिष्टि कहां लिखै, जित देखो तित पीव।
कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है। वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नहीं है।
आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है। हम तो जहां भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा को ही पाते हैं।
कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ।।
कबीर दास जी ने इस दोहे के माध्यम से स्वयं पर अभिमान ना करते हुए अच्छे लोगों से अच्छे गुण अपनाने की सीख दी है। वह कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह बीच भी कुछ सांस ले लेता है और चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है। लेकिन उसी स्थान पर बांस अपनी लंबाई बड़ेपन और बड़प्पन के कारण डूब जाता है। लेकिन इस तरह किसी को नहीं डूबना चाहिए। हमें जितना हो सके, अच्छे संगति में रहते हुए उनके अच्छे गुणों को ग्रहण करना चाहिए।
कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि
सबै हरफ है द्वात मह, द्वात ना हरफन माहि।
मैं कितनी शिक्षा देता रहूं, स्वयं अपने मन में समझों। सभी अक्षर दावात में है पर दावात
अक्षर में नहीं है। यह संसार परमात्मा में स्थित है, पर परमात्मा इस सृष्टि से भी बाहर तक असीम है।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी एक सज्जन व्यक्ति का गुणगान करते हुए कहते हैं कि एक सज्जन व्यक्ति को सैकड़ों दुष्ट व्यक्ति क्यों ना मिले लेकिन वह अपने भले स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता। जिस तरह एक चंदन के पेड़ से सांप के लिपटने के बावजूद चंदन का वृक्ष अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
ज्ञान भक्ति वैराग्य सुख पीव ब्रह्म लौ ध़ाये
आतम अनुभव सेज सुख, तहन ना दूजा जाये।
ज्ञान,भक्ति,वैराग्य का सुख जल्दी से तेज गति से भगवान तक पहुंचाता है।
पर आत्मानुभव आत्मा और परमात्मा का मेल कराता है। जहां अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता है।
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय।।
उपरोक्त दोहे के माध्यम से कबीर दास जी मन के मेल को दूर करने की शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि आप कितने बार भी नहा धो लो लेकिन जब तक मन का मेल दूर नहीं होता तब तक व्यक्ति साफ नहीं होता है। जिस प्रकार मछली सदा जल में रहती है लेकिन कितने बार भी उसको धो लो उससे बदबू नहीं जाती हैं। इस तरह अगर आपका मन साफ नहीं है तो आप कितने बार भी नहा लें, आप हमेशा अस्वच्छ ही रहेंगे। इसीलिए व्यक्ति को मन से साफ रहना चाहिए।
ताको लक्षण को कहै, जाको अनुभव ज्ञान
साध असाध ना देखिये, क्यों करि करुन बखान।
जिसे अनुभव का ज्ञान है, उसके लक्षणों के बारे में क्या कहा जाय। वह साधु असाधु में भेद नहीं देखता है। वह समदर्शी होता है। अतः उसका वर्णन क्या किया जाय।
दूजा हैं तो बोलिये, दूजा झगड़ा सोहि
दो अंधों के नाच मे, का पै काको मोहि।
यदि परमात्मा अलग अलग हों तो कुछ कहां जाएं। यही तो सभी झगड़ों की जड़ है। दो अंधों के नाच में कौन अंधा किस अंस अंधे पर मुग्ध या प्रसन्न होगा?
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।
इस दोहे में कबीर दास जी संसार के भले के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। इस संसार में आकर अपने जीवन में बस केवल सबका भला चाहते हैं, वे चाहते हैं कि संसार में अगर कोई दोस्ती ना हो तो कम से कम दुश्मनी भी ना हो।
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Kabir ke Dohe in Hindi
नर नारी के सूख को, खांसि नहि पहिचान
त्यों ज्ञानि के सूख को, अज्ञानी नहि जान।
स्त्री पुरुष के मिलन के सुख को नपुंसक नहीं समझ सकता है। इसी तरह ज्ञानी का सुख एक मूर्ख अज्ञानी नहीं जान सकता है।
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी मनुष्य जन्म के महता को बताते हुए कहते हैं कि मनुष्य को हमेशा भला करते रहना चाहिए। अगर वह बुरा करेगा तो स्वयं अपने दुष्कर्म का फल पाएगा। यह मनुष्य जन्म उत्तम अवसर है, जो बार-बार नहीं मिलता इसीलिए इस जन्म में भरपूर लोगों का भला करना चाहिए।
निरजानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय
अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।
अज्ञानी नासमझ से क्या कहा जाये। कबीर को कहते लाज लग रही है। अंधे के सामने नाच दिखाने से उसकी कला भी व्यर्थ हो जाती है। अज्ञानी के समक्ष आत्मा परमात्मा की बात करना व्यर्थ है।
ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार
सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।
एक ज्ञानी व्यक्ति जो परामर्श तरीका बतावें उस पर सुन कर विचार करना चाहिए। परंतु एक अंधे व्यक्ति की पत्नी किस के लिये सज धज श्रंगार करेगी।
अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल
आँखों से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।
वस्तुतः यह अंधों का हाथी है, जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है। वह अपने आँखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है। अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है।
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभू दूरि।
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर धूरि।।
उपरोक्त दोहे के माध्यम से कबीर दास जी सबको विनम्र रहने की सीख देते हैं। वह कहते हैं कि हमेशा हमें छोटा बनकर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। यहां छोटे का अर्थ है कि हमेशा विनम्र रहना चाहिए। विनम्र रहने से लोगों में हमारी मान बढ़ती है और हमें ईश्वर की प्राप्ति भी होती है। जिस तरह चींटी विनम्र है, जिसके कारण उसे हमेशा शक्कर मिलता है, वहीं हाथी को अपने विशाल आकार का घमंड है, जिसके कारण वह हमेशा अपने सूंढ से धूल उठाकर अपने सिर पर डालता रहता है। इसीलिए अगर हम विनम्र रहते हैं तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं।
कबीर जी के दोहे
सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग।।
कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि इस संसार में सुख और दुख आते ही रहता है। जिन घरों में शप्त स्वर गूंजा करते थे, हर पल उत्सव मनाए जाते थे। आज वह घर खाली पड़े हैं, जहां पर कौए बैठने लगे हैं। इस तरह समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। जहां खुशियां थी, वहां गम छा जाता है। इस तरह हर्ष और विषाद आते-जाते रहता है।
ज्ञानी भुलै ज्ञान कथि निकट रहा निज रुप
बाहिर खोजय बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।
तथाकथित ज्ञानी अपना ज्ञान बघारता है जबकी प्रभु अपने स्वरुप में उसके अत्यंत निकट हीं रहते है। वह प्रभु को बाहर खोजता है जबकी वह अनुपम आकर्षक प्रभु हृदय के विराजमान है।
सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी मनुष्य को बाहरी दिखावा करने से रोकते हैं। वे कहते हैं कि एकचित्त होकर परमात्मा का सुमिरन करना चाहिए। मुंह से कुछ ना बोल कर बाहरी दिखावे को बंद कर अपने सच्चे दिल से ईश्वर का ध्यान लगाना चाहिए।
वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि
बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।
वेदों के वचन,अनुभव,युक्तियाॅं आदि परमात्मा के प्राप्ति के आनंद की परछाई मात्र है। ज्ञाप स्वरुप एकात्म आदि पुरुष परमात्मा के बारे में मैं कुछ भी नहीं बताने के लायक हूॅं।
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय।
कह कबीर कछु भेद नहिं, काह रंक कहराय।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ईश्वर भक्ति के महत्व को दर्शाते हुए कहते हैं कि ईश्वर भक्ति एक गेंद के समान है। इसे चाहे राजा ले जाए या कंगाल इसमें कोई भेद नहीं समझा जाता। अर्थात ईश्वर की भक्ति सभी के लिए एक समान होती है। ईश्वर कभी भी अपने भक्तों में भेदभाव नहीं करते।
ज्ञानी मूल गंवायीयाॅ आप भये करता
ताते संसारी भला, सदा रहत डरता।
किताबी ज्ञान वाला व्यक्ति परमात्मा के मूल स्वरुप को नहीं जान पाता है। वह ज्ञान के दंभ में स्वयं को ही कर्ता भगवान समझने लगता है। उससे तो एक सांसारिक व्यक्ति अच्छा है, जो कम से कम भगवान से डरता तो है।
जाके जिव्या बन्धन नहीं, हृदय में नहीं साँच।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच।।
इस दोहे के माध्यम से कबीरदास जी बुरे लोगों से दूर रहने के लिए कहते हैं। वे कहते हैं कि जिस व्यक्ति का अपने जीव पर नियंत्रण नहीं और मन में सच्चाई नहीं ऐसे व्यक्ति से हमें हमेशा दूर रहना चाहिए। ऐसे मनुष्य के साथ रहने से हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान
त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।
गूंगे लोगों के इशारे को एक गूंगा ही समझ सकता है। इसी तरह एक आत्म ज्ञानी के आनंद को एक आत्म ज्ञानी ही जान सकता है।
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात
सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।
परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
इस दोहे के माध्यम से कबीरदास मन के अशांत स्वभाव को दर्शाते हुए कहते हैं कि सारे दिन केवल कहने और सुनने में ही चले गए लेकिन अब तक मन उलझा है, अब तक यह सुलझ नहीं पाया है। कबीरदास जी कहते हैं कि मन आज तक पहले जैसा ही है, वह चेता नहीं है।
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान
अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।
अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।
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संत कबीर के दोहे (sant kabir ke dohe)
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी उन लोगों की ओर संकेत करते हैं, जो पूरा जीवन धन के पीछे भागते हैं। इस दोहे के माध्यम से वे लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि जीवन में केवल उस धन को इकट्ठा करना चाहिए, जो भविष्य में काम आए। क्योंकि धन की गठरी बांध कर आज तक इस जीवन से किसी को नहीं ले जाते हुए देखा है।
आतम अनुभव सुख की, जो कोई पुछै बात
कई जो कोई जानयी कोई अपनो की गात।
परमात्मा के संबंध में आत्मा के अनुभव को किसी के पूछने पर बतलाना संभव नहीं है। यह तो स्वयं के प्रयत्न, ध्यान, साधना और पुण्य कर्मों के द्वारा ही जाना जा सकता है।
आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद
चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।
जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।
ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।
भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय
रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।
एक धनी निर्धन और निर्धन धनी हो सकता है। परंतु परमात्मा का निवास होने पर वह कभी पूर्ण भरा या खाली नहीं रहता। अनुभव यही कहता है। परमात्मा से पुर्ण हृदय कभी खाली नहीं-हमेशा पुर्ण ही रहता है।
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक
जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।
हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल।।
कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से लोगों को समझाते हुए कहते हैं कि किताबी ज्ञान बहुत पढ़ लिया और उसे देख भी लिया। लेकिन उसका कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ। क्योंकि अब तक मन का संचय मिट नहीं पाया है तो आखिर ऐसे ज्ञान का क्या अर्थ यही तो दुख का मूल कारण है। असल में ज्ञान मानवता है और मानवता आचरण में ना हो तो महज किताबी ज्ञान से कोई लाभ नहीं होता। मनुष्य में सद्गुण होना चाहिए और उसे नेक राह पर चलना चाहिए।
लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात
दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।
परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हिन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।।
इस जीवन में देह धारण करने का दंड हर किसी को मिलता है। बस अंतर इतना है कि ज्ञानी व्यक्ति इस देह धारण दंड को संतुष्टि और समझदारी से भोगता है लेकिन अज्ञानी व्यक्ति रोते हुए दुखी मन से इस दंड को जलता है। इस प्रकार इस दोहे से कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीवन में दुख हर इंसान को है लेकिन कुछ इंसान इसे संतुष्टि के साथ स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन कुछ इंसान जीवन भर इसके बारे में सोच कर दुखी ही रहते हैं।
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कबीर दास के मशहूर दोहे
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं, वे सभी अत्यंत भ्रम में है।
माली आवत देख के, कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुन लिए, काल हमारी बार।।
उपरोक्त दोहे के माध्यम से कबीर दास जी संसार के बहुत ही संवेदनशील और सनातन सत्य जीवन और मृत्यु के रहस्य की ओर संकेत करते हैं। सनातन सत्य को वे माली और कलियों के माध्यम से बताने की कोशिश करते हैं। कलियां आपस में बात करते हुए कहती हैं कि माली समय समय पर आकर फूलों को तोड़ ले जाता है। ठीक उसी तरह यमराज वृद्ध अवस्था में लोगों के जीवन को हरण कर लेता है।
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल स्नेही साइयाँ, आवा अन्त का यार।।
कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से मनुष्य के मन में विराजमान भगवान की छवि देखने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं कि जो तुम्हारे बचपन का मित्र है, आरंभ से अंत तक का मित्र है, जो तुम्हारे अंदर ही रहते हैं। तुम अपने अंदर के पर्दे को हटाकर देखो भगवान तुम्हारे सामने बैठे नजर आएंगे।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।
कबीरदास जी इस दोहे के माध्यम से उन लोगों की ओर संकेत करते हुए उन्हें समझाना चाहते हैं, जो निरंतर अपने काम को टालते रहते हैं। कभी भी अपने काम को कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। जो कार्य आप कल करना चाहते हैं, उसे आज ही कर लेना चाहिए और जो आज करना है, उसे अभी कर देना चाहिए। क्योंकि पल में कुछ भी प्रलय हो सकता है। तो मनुष्य अपने कार्यों को आखिर करेगा कब। इसीलिए हर कार्य को समय पर करना चाहिए।
हंसा मोती विणन्या, कुंचन थार भराय।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी सही चीज के परख करने की शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि अगर मोती को सोने की थाल में बेचा जाए तो जो व्यक्ति उसका मूल्य नहीं समझता है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन जो हंस रूपी जोहरी है, वहीं इस मोती की कीमत को पहचान सकता है।
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी मनुष्य के ऊपर मन के काबू को दर्शाते हुए कहते हैं कि जिस तरह बाजीगर अपने बंदर को इशारों पर तरह-तरह के नाच कराता है। ठीक उसी तरह हमारा मन भी हमें जीवन भर इशारों पर चलाता ही रहता है।
निष्कर्ष
हम उम्मीद करते है कि आपको कबीर के दोहे (kabir das dohe) का संकलन बेहद पसंद आया होगा। और इससे जुड़ा कोई भी सवाल या सुझाव हो तो हो तो कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
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