नमस्कार दोस्तों, यहां पर विश्वविख्यात कवि रवींद्रनाथ टैगोर की कविता हिंदी में (Rabindranath Tagore Poems in Hindi) शेयर की है। रबिन्द्रनाथ टैगोर की कविताएँ देश और विदेश में बहुत ही विख्यात है और सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है। इनकी हर कविता बहुत ही अच्छी और लोकप्रिय है।
![rabindranath tagore poems in hindi](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/rabindranath-tagore-poems-in-hindi.jpg)
भारत का राष्ट्र-गान “जन गण मन” और बांग्लादेश का राष्ट्र-गान “आमार सोनार बाँग्ला” गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ही रचनाएं है।
यहां पर हमने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कुछ कविताएँ शेयर की है। उम्मीद करते हैं आपको यह हिंदी कविताएं (Hindi Kavita) बहुत पसंद आएगी। कमेंट बॉक्स में जरूर जरूर बताएं कि आपको यह कैसी लगी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं | Rabindranath Tagore Poems in Hindi
चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे पाश..
ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज तू अकेला!
जब हर कोई वापस जाय..
ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय..
कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय…
![rabindranath tagore poems in hindi](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/rabindranath-tagore-poems-in-hindi-1.jpg)
चुप-चुप रहना सखी
चुप-चुप रहना सखी, चुप-चुप ही रहना,
कांटा वो प्रेम का,छाती में बाँध उसे रखना!
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं अब तक उसकी क्षूधा,
भर दोगी उसमे क्या विष! जलन अरे जिसकी सब बेधेगी मर्म,
उसे खिंच बाहर क्यों रखना!!
पिंजरे की चिड़िया थी
पिंजरे की चिड़िया थी सोने के पिंजरे में
वन कि चिड़िया थी वन में
एक दिन हुआ दोनों का सामना
क्या था विधाता के मन में
वन की चिड़िया कहे सुन पिंजरे की चिड़िया रे
वन में उड़ें दोनों मिलकर
पिंजरे की चिड़िया कहे वन की चिड़िया रे
पिंजरे में रहना बड़ा सुखकर
वन की चिड़िया कहे ना…
मैं पिंजरे में क़ैद रहूँ क्योंकर
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
निकलूँ मैं कैसे पिंजरा तोड़कर
वन की चिड़िया गाए पिंजरे के बाहर बैठे
वन के मनोहर गीत
पिंजरे की चिड़िया गाए रटाए हुए जितने
दोहा और कविता के रीत
वन की चिड़िया कहे पिंजरे की चिड़िया से
गाओ तुम भी वनगीत
पिंजरे की चिड़िया कहे सुन वन की चिड़िया रे
कुछ दोहे तुम भी लो सीख
वन की चिड़िया कहे ना ….
तेरे सिखाए गीत मैं ना गाऊँ
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय!
मैं कैसे वनगीत गाऊँ
वन की चिड़िया कहे नभ का रंग है नीला
उड़ने में कहीं नहीं है बाधा
पिंजरे की चिड़िया कहे पिंजरा है सुरक्षित
रहना है सुखकर ज़्यादा
वन की चिड़िया कहे अपने को खोल दो
बादल के बीच, फिर देखो
पिंजरे की चिड़िया कहे अपने को बाँधकर
कोने में बैठो, फिर देखो
वन की चिड़िया कहे ना…
ऐसे मैं उड़ पाऊँ ना रे
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
बैठूँ बादल में मैं कहाँ रे
ऐसे ही दोनों पाखी बातें करें रे मन की
पास फिर भी ना आ पाए रे
पिंजरे के अन्दर से स्पर्श करे रे मुख से
नीरव आँखे सब कुछ कहें रे
दोनों ही एक दूजे को समझ ना पाएँ रे
ना ख़ुद समझा पाएँ रे
दोनों अकेले ही पंख फड़फड़ाएँ
कातर कहे पास आओ रे
वन की चिड़िया कहे ना….
पिंजरे का द्वार हो जाएगा रुद्ध
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
मुझमे शक्ति नही है उडूँ ख़ुद
अनसुनी करके
अनसुनी करके तेरी बात
न दे जो कोई तेरा साथ
तो तुही कसकर अपनी कमर
अकेला बढ़ चल आगे रे–
अरे ओ पथिक अभागे रे।
देखकर तुझे मिलन की बेर
सभी जो लें अपने मुख फेर
न दो बातें भी कोई क रे
सभय हो तेरे आगे रे–
अरे ओ पथिक अभागे रे।
तो अकेला ही तू जी खोल
सुरीले मन मुरली के बोल
अकेला गा, अकेला सुन।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे।
जायँ जो तुझे अकेला छोड़
न देखें मुड़कर तेरी ओर
बोझ ले अपना जब बढ़ चले
गहन पथ में तू आगे रे–
अरे ओ पथिक अभागे रे।
तो तुही पथ के कण्टक क्रूर
अकेला कर भय-संशय दूर
पैर के छालों से कर चूर।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे।
और सुन तेरी करुण पुकार
अंधेरी पावस-निशि में द्वार
न खोलें ही न दिखावें दीप
न कोई भी जो जागे रे-
अरे ओ पथिक अभागे रे।
तो तुही वज्रानल में हाल
जलाकर अपना उर-कंकाल
अकेला जलता रह चिर काल।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला बढ़ चल आगे रे।
विपदाओं से रक्षा करो, यह न मेरी प्रार्थना
विपदाओं से रक्षा करो-
यह न मेरी प्रार्थना,
यह करो: विपद् में न हो भय।
दुख से व्यथित मन को मेरे
भले न हो सांत्वना,
यह करो: दुख पर मिले विजय।
मिल सके न यदि सहारा,
अपना बल न करे किनारा; –
क्षति ही क्षति मिले जगत् में
मिले केवल वंचना,
मन में जगत् में न लगे क्षय।
करो तुम्हीं त्राण मेरा-
यह न मेरी प्रार्थना,
तरण शक्ति रहे अनामय।
भार भले कम न करो,
भले न दो सांत्वना,
यह करो: ढो सकूँ भार-वय।
सिर नवाकर झेलूँगा सुख,
पहचानूँगा तुम्हारा मुख,
मगर दुख-निशा में सारा
जग करे जब वंचना,
यह करो: तुममें न हो संशय।
रोना बेकार है
व्यर्थ है यह जलती अग्नि इच्छाओं की
सूर्य अपनी विश्रामगाह में जा चुका है
जंगल में धुंधलका है और आकाश मोहक है।
उदास आँखों से देखते आहिस्ता क़दमों से
दिन की विदाई के साथ
तारे उगे जा रहे हैं।
तुम्हारे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेते हुए
और अपनी भूखी आँखों में तुम्हारी आँखों को
कैद करते हुए,
ढूँढते और रोते हुए, कि कहाँ हो तुम,
कहाँ ओ, कहाँ हो…
तुम्हारे भीतर छिपी
वह अनंत अग्नि कहाँ है…
जैसे गहन संध्याकाश को अकेला तारा अपने अनंत
रहस्यों के साथ स्वर्ग का प्रकाश, तुम्हारी आँखों में
काँप रहा है,जिसके अंतर में गहराते रहस्यों के बीच
वहाँ एक आत्मस्तंभ चमक रहा है।
अवाक एकटक यह सब देखता हूँ मैं
अपने भरे हृदय के साथ
अनंत गहराई में छलांग लगा देता हूँ,
अपना सर्वस्व खोता हुआ।
यह भी पढ़े
नहीं मांगता
मेरा शीश नवा दो अपनी
चरण-धूल के तल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
अपने को गौरव देने को
अपमानित करता अपने को,
घेर स्वयं को घूम-घूम कर
मरता हूं पल-पल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
अपने कामों में न करूं मैं
आत्म-प्रचार प्रभो;
अपनी ही इच्छा मेरे
जीवन में पूर्ण करो।
मुझको अपनी चरम शांति दो
प्राणों में वह परम कांति हो
आप खड़े हो मुझे ओट दें
हृदय-कमल के दल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
गर्मी की रातों में
गर्मी की रातों में
जैसे रहता है पूर्णिमा का चांद
तुम मेरे हृदय की शांति में निवास करोगी
आश्चर्य में डूबे मुझ पर
तुम्हारी उदास आंखें
निगाह रखेंगी
तुम्हारे घूंघट की छाया
मेरे हृदय पर टिकी रहेगी
गर्मी की रातों में पूरे चांद की तरह खिलती
तुम्हारी सांसें, उन्हें सुगंधित बनातीं
मरे स्वप्नों का पीछा करेंगी।
![rabindranath tagore hindi poems](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/rabindranath-tagore-hindi-poems.jpg)
विविध वासनाएँ
विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी
वंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी;
संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।
अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको,
आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे,
बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही,
अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके।
मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता,
लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में,
निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते।
यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं;
मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही।
कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने,
रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।
मेरे प्यार की ख़ुशबू
मेरे प्यार की ख़ुशबू
वसंत के फूलों-सी
चारों ओर उठ रही है।
यह पुरानी धुनों की
याद दिला रही है
अचानक मेरे हृदय में
इच्छाओं की हरी पत्तियाँ
उगने लगी हैं
मेरा प्यार पास नहीं है
पर उसके स्पर्श मेरे केशों पर हैं
और उसकी आवाज़ अप्रैल के
सुहावने मैदानों से फुसफुसाती आ रही है।
उसकी एकटक निगाह यहाँ के
आसमानों से मुझे देख रही है
पर उसकी आँखें कहाँ हैं
उसके चुंबन हवाओं में हैं
पर उसके होंठ कहाँ हैं…
होंगे कामयाब
होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन।
![rabindranath tagore poem in hindi](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/rabindranath-tagore-poem-in-hindi.jpg)
दिन पर दिन चले गए
दिन पर दिन चले गए पथ के किनारे।
गीतों पर गीत अरे रहता पसारे।।
बीतती नहीं बेला सुर मैं उठाता।
जोड़-जोड़ सपनों से उनको मैं गाता।।
दिन पर दिन जाते मैं बैठा एकाकी।
जोह रहा बाट अभी मिलना तो बाकी।।
चाहो क्या रुकूँ नहीं रहूँ सदा गाता।
करता जो प्रीत अरे व्यथा वही पाता।।
![rabindranath tagore hindi poem](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/rabindranath-tagore-hindi-poem.jpg)
प्रेम में प्राण में गान में गंध में
प्रेम में प्राण में गान में गंध में
आलोक और पुलक में हो रह प्लावित
निखिल द्युलोक और भूलोक में
तुम्हारा अमल निर्मल अमृत बरस रहा झर-झर।
दिक-दिगंत के टूट गए आज सारे बंध
मूर्तिमान हो उठा, जाग्रत आनंद
जीवन हुआ प्राणवान, अमृत में छक कर।
कल्याण रस सरवर में चेतना मेरी
शतदल सम खिल उठी परम हर्ष से
सारा मधु अपना उसके चरणॊं में रख कर।
नीरव आलोक में, जागा हृदयांगन में,
उदारमना उषा की उदित अरुण कांति में,
अलस पड़े कोंपल का आँचल ढला, सरक कर।
गीतांजलि
![poem of rabindranath tagore in hindi](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/poem-of-rabindranath-tagore-in-hindi.jpg)
अरे भीरु
rabindranath tagore ki kavita
अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार
इस नैया का और खिवैया, वही करेगा पार।
आया है तूफ़ान अगर तो भला तुझे क्या आर
चिन्ता का क्या काम चैन से देख तरंग-विहार।
गहन रात आई, आने दे, होने दे अंधियार–
इस नैया का और खिवैया वही करेगा पार।
पश्चिम में तू देख रहा है मेघावृत आकाश
अरे पूर्व में देख न उज्ज्वल ताराओं का हास।
साथी ये रे, हैं सब “तेरे”, इसी लिए, अनजान
समझ रहा क्या पायेंगे ये तेरे ही बल त्राण।
वह प्रचण्ड अंधड़ आयेगा,
काँपेगा दिल, मच जायेगा भीषण हाहाकार–
इस नैया का और खिवैया यही करेगा पार।
मन जहां डर से परे है
rabindranath tagore kavita
मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है,
ज्ञान जहां मुक्त है,
और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है,
जहां शब्द सच की गहराइयों से निकलते हैं,
जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं,
जहां कारण की स्पष्ट धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्ता खो नहीं चुकी है,
जहां मन हमेशा व्यापक होते विचार और सक्रियता में
तुम्हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्वर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता परमेश्वर
मेरे देश को जागृत बनाओ
कहाँ मिली मैं? कहाँ से आई? यह पूछा जब शिशु ने माँ से…
कहाँ मिली मैं? कहाँ से आई? यह पूछा जब शिशु ने माँ से
कुछ रोती कुछ हँसती बोली, चिपका कर अपनी छाती से
छिपी हुई थी उर में मेरे, मन की सोती इच्छा बनकर
बचपन के खेलों में भी तुम, थी प्यारी-सी गुड़िया बनकर
मिट्टी की उस देव मूर्ति में, तुम्हें गढ़ा करती बेटी मैं
प्रतिदिन प्रातः यही क्रम चलता, बनती और मिलती मिट्टी में
कुलदेवी की प्रतिमा में भी, तुमको ही पूजा है मैंने
मेरी आशा और प्रेम में, मेरे और माँ के जीवन में
सदा रही जो और रहेगी, अमर स्वामिनी अपने घर की
उसी गृहात्मा की गोदी में, तुम्हीं पली हो युगों-युगों से
विकसित होती हृदय कली की, पंखुड़ियाँ जब खिल रहीं थीं
मंद सुगंध बनी सौरभ-सी, तुम ही तो चहुं ओर फिरी थीं
सूर्योदय की पूर्व छटा-सी, तब कोमलता ही तो थी वह
यौवन वेला तरुणांगों में, कमिलिनी-सी जो फूल रही थी
स्वर्ग प्रिये उषा सम जाते, जगजीवन सरिता संग बहती
तब जीवन नौका अब आकर, मेरे हृदय घाट पर रुकती
मुखकमल निहार रही तेरा, डूबती रहस्योदधि में मैं
निधि अमूल्य जगती की थी जो, हुई आज वह मेरी है
खो जाने के भय के कारण, कसकर छाती के पास रखूँ
किस चमत्कार से जग वैभव, बाँहों में आया यही कहूँ?
Poems by Tagore in Hindi
प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में,
आप्लावित कर अखिल गगन को, निखिल भुवन को,
अमल अमृत झर रहा तुम्हारा अविरल है।
दिशा-दिशा में आज टूटकर बन्धन सारा-
मूर्तिमान हो रहा जाग आनंद विमल है,
सुधा-सिक्त हो उठा आज यह जीवन है।
शुभ्र चेतना मेरी सरसाती मंगल-रस,
हुई कमल-सी विकसित है आनन्द-मग्न हो,
अपना सारा मधु धरकर तब चरणों पर।
जाग उठी नीरव आभा में हृदय-प्रान्त में,
उचित उदार उषा की अरुणिम कान्ति रुचिर है,
अलस नयन-आवरण दूर हो गया शीघ्र है।।
![hindi poem by rabindranath tagore](https://thesimplehelp.com/wp-content/uploads/2020/08/hindi-poem-by-rabindranath-tagore.jpg)
Patriotic Poems By Rabindranath Tagore in Hindi
लगी हवा यों मन्द-मधुर इस
नाव-पाल पर अमल-धवल है,
नहीं कभी देखा है मैंने
किसी नाव का चलना ऐसा।
लाती है किस जलधि-पार से
धन सुदूर का ऐसा, जिससे-
बह जाने को मन होता है,
फेंक डालने को करता जी
तट पर सभी चाहना-पाना!
पीछे छरछर करता है जल,
गुरु गम्भीर स्वर आता है,
मुख पर अरुण किरण पड़ती है,
छनकर छिन्न मेघ-छिद्रों से।
कहो, कौन हो तुम? कांडारी।
किसके हास्य-रुदन का धन है?
सोच-सोचकर चिन्तित है मन,
बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र?
मन्त्र कौन-सा गाना होगा?
खो जाना
छोटी-सी मेरी बिटिया
सखियों की पुकार सुनकर
सीढ़ी के रास्ते निचले तल्ले की ओर उतर रही थी
अँधेरे में, डरती-डरती, रुक-रुककर।
हाथ में था दीया,
आँचल से ओट करके सावधानी से चल रही थी!
मैं था छत के ऊपर
तारा-खचित चैत मास की रात में।
अचानक बिटिया की रुलाई सुनकर, उठकर
देखने गया दौड़कर।
सीढ़ी से जाते-जाते
हवा से उसका दीया बुझ गया था।
पूछा उससे, “क्या हुआ बामी?”
नीचे से रोकर उसने कहा, “मैं खो गई हूँ।”
ताराओं से भरी चैत मास की रात में
छत पर लौटकर
मन में आया आकाश की ओर देखकर,
मेरी बामी के समान और कोई एक लड़की मानो
नीलाम्बर के आँचल से ढँककर
दीपशिखा को बचाती हुई अकेली चली जा रही है धीरे-धीरे।
अगर बुझ जाता वह प्रकाश,
अगर अचानक रुक जाती वह,
(तो) सारा आकाश रो उठता, “मैं खो गया हूँ।”
निष्कर्ष
हम उम्मीद करते हैं आपको यह रबिन्द्रनाथ टैगोर की कवितायेँ हिन्दी में (Rabindranath Tagore Poems in Hindi) पसंद आई होगी। इन्हें आगे शेयर जरूर करें।
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