KGF History in Hindi: फिल्म इंडस्ट्री बहुत सी फ़िल्में असल कहानी के आधार पर बनाई जाती है। साउथ की सबसे बड़ी फिल्म केजीएफ के रिलीज होते ही बॉक्स ऑफिस पर धमाल कर दिया। फैंस को इस फिल्म की कहानी बहुत पसंद आई। यही कारण है कि केजीएफ के मेकर्स ने अब इस फिल्म का दूसरा भाग भी रिलीज कर दिया।
वैसे क्या आपको पता है कि केजीएफ फिल्म में जिस खादान की कहानी को दिखाया गया है, वह असल कहानी है और उसका इतिहास 100 सालों से भी ज्यादा पुराना है। केजीएफ फिल्म की कहानी जितनी खूनी है, असल में भी इसका इतिहास उतना ही भयंकर है। तो चलिए जानते हैं कि आखिर इस केजीएफ का क्या इतिहास है?
केजीएफ जिसका फुल फॉर्म कोलार गोल्ड फील्ड है, जो कर्नाटक के शहर कोलार से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह खनन क्षेत्र है। माना जाता है कि 20 साल पहले इस खनन क्षेत्र से प्रचुर मात्रा में सोना निकाला जाता था। पहले इस क्षेत्र के आसपास ज्यादा लोग नहीं रहा करते थे।
लेकिन यह बहुत बड़ा खनन क्षेत्र होने के कारण अब यहां लगभग 260000 से भी ज्यादा लोगों की आबादी रहती हैं और यह उन लोगों की आबादी है, जिनके पूर्वज इस क्षेत्र में सोने की खदान में काम करते थे। हालांकि केजीएफ के बारे में सबसे पहले लोगों ने 2018 में आई कन्नड़ फिल्म केजीएफ से जाना। इसी सोने की खदान के इतिहास पर यह फिल्म आधारित है। हालांकि कुछ लोगों ने इस फिल्म की कहानी को फिक्शनल भी कहा।
केजीएफ का इतिहास और असली कहानी | KGF History in Hindi
कब से शुरू हुई खदान की खुदाई?
माना जाता है कि इस खदान में सोने की खोज किंगडम ऑफ़ मैसोर के समय से ही शुरू हो गई थी। क्षेत्र के आसपास रहने वाले लोग अक्सर इस बात का जिक्र करते थे कि यहां के जमीन के अंदर खूब सारा सोना है। ब्रिटिश राज के दौरान भी यह खबर काफी छपी।
लेकिन उस समय विकासशील टेक्नोलॉजी और कोई संसाधन ना होने के कारण खुदाई का काम शुरू नहीं हो सका। उस दौरान ब्रिटिश सरकार के लेफ्टिनेंट जॉन वॉरेन ने भी केजीएफ के दावे को सुनकर उसके ऊपर एक आर्टिकल लिखा था, जिसमें उन्होंने के जीएसटी इतिहास के बारे में बताया था और कहा था कि इसका इतिहास 1799 से शुरू होता है।
उन्होंने अपने लेख में लिखा था कि श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई में जब अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान की हत्या कर दी और कोलार और उसके आसपास के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया तो उसके कुछ ही साल बाद उन्होंने इस जमीन को मैसूर राज्य को दे दिया। उस दौरान यह क्षेत्र चोल साम्राज्य का था, जहां पर लोग हाथ से खोदकर जमीन से सोना निकालते थे।
अंग्रेजों ने कोलार क्षेत्र को मैसूर राज्य को देने के बाद वहां सर्वे का अधिकार अपने पास रखा था, जिसके कारण उन्होंने वहां पर सर्वे करना शुरू किया। उसी दौरान वोरेन ने गांव वालों को इनाम का लालच देकर जमीन खोदकर सोना निकालने के लिए कहा। ग्रामीण लोगों ने इनाम की बात सुनी तो वे मिट्टी से भरी बैल गाड़ी लेकर आए और फिर वारेन के सामने मिट्टी धोकर सोने के अंश दिखाएं।
जब वारेन को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ तो उसने इस पूरे मामले की जांच करवाई। लेकिन 56 किलो मिट्टी से बहुत कम ही सोना निकला। ऐसे में ढेर सारा सोना निकालना काफी मुश्किल काम था। वारेन ने सोचा कि गांव वालों के कौशल से इस मिट्टी से और भी ज्यादा सोना निकाला जा सकता है।
इसीलिए वोरेन की रिपोर्ट पढ़कर अंग्रेज सरकार ने ज्यादा से ज्यादा सोना निकालने के लिए लगभग 60 से 65 साल तक उन्होंने आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने के लिए अलग-अलग एक्सपेरिमेंट किए। हालांकि उनका कुछ फायदा तो नहीं हुआ लेकिन इसके कारण कई मजदूरों को जान तक गंवानी पड़ी।
उस दौरान बिजली न होने के कारण मजदूरों को लालटेन और मशाल की मदद से खुदाई करनी पड़ती था, जिसके कारण अक्सर यहां पर खदान के अंदर कई हादसे हो जाते थे। सरकारी आंकड़े के अनुसार 120 साल तक इस माइनिंग के अंदर लगभग 6000 से भी ज्यादा मजदूरों ने अपनी जान गवाई थी, जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने यहां पर काम रुकवा दिया।
बड़े स्तर पर शुरू हुआ माइनिंग
उसके कुछ सालों बाद यानी की 19वीं सदी के शुरुआत में एशियाटिक जनरल मे इसी सोने की खदान के ऊपर आर्टिकल में लिखा गया था, जिसे 1871 में ब्रिटिश सैनिक माइकल फिट्जगेराल्ड लेवेली ने पढ़ा। इस लेख को पढ़ते ही लेवेली ने दोबारा उस जगह पर माइनिंग करने का निर्णय लिया और 1871 में ही न्यूजीलैंड से भारत आया और कोलार तक की 60 मील की यात्रा बैलगाड़ी से करके आया।
यहां पर आने के बाद लेवली ने जांच किए, इस जांच के दौरान खनन के लिए कई स्थानों की पहचान भी की और सोने के भंडार के निशान भी खोज निकाला। उसने 2 साल तक शोध जारी रखा और फिर 1873 में मैसूर के महाराजा की सरकार को पत्र लिखा। फिर 1875 में सरकार से माइनिंग करने के लिए 20 सालों तक का परमिशन हासिल कर लिया।
हालांकि लेवेली ने यह माइनिंग का कार्य शुरू कर दिया था लेकिन बिना अच्छी मशीनें और टेक्नोलॉजी के माइनिंग करना संभव नहीं था और ना ही लेवेली के पास इतना पैसा था। इसीलिए बड़े माइनिंग ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए लेवल ने माइनिंग का काम जॉन टेलर एंड संस नाम की एक ब्रिटिश माइनिंग कंपनी के हाथ में दे दिया।
इस कंपनी ने 1880 में इस ऑपरेशन को अपने अंतर्गत लिया और फिर बड़े स्तर पर यहां पर माइनिंग का कार्य शुरू किया। इस कंपनी के अंदर माइनिंग का कार्य आते ही माइनिंग का कार्य बहुत तेजी से शुरु हो गया। इस रफ्तार को और भी तेज करने के लिए 1890 में कंपनी ने सबसे आधुनिक मशीन लगाई। यह मशीन काफी एडवांस थी कि 1990 तक इन्हीं मशीनों की मदद से यहां पर माइनिंग का कार्य होता रहा।
भारत में पहला पावर प्लांट लगाया गया
कंपनी ने बड़ी मात्रा में माइनिंग करने के लिए एडवांस टेक्नोलॉजी से बनाई गई मशीनें स्थापित कर दी थी। लेकिन कंपनी को कुछ सालों के बाद बिजली की भी जरूरत महसूस हुई। क्योंकि माइनिंग के अंदर काफी ज्यादा अंधेरा होता था, जिसके कारण मजदूरों को काफी दिक्कत होती थी और काम भी इतना तेजी से नहीं हो पाता था।
इसी कारण भारत में पहला हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट लगाया गया, जिसे कावेरी इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के नाम से भी जाना जाता है। तभी से ही भारत में पहली बार बिजली की शुरुआत हुई। जिस समय केजीएफ में बिजली पहुंची थी, उस समय दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में भी बिजली नहीं पहुंची थी।
लेकिन केजीएफ पूरी तरीके से इलेक्ट्रीफाइड हो गया था, जिसके कारण माइनिंग का कार्य भी काफी तेजी से होने लगा था। बिजली की आपूर्ति के अतिरिक्त कंपनी ने मशीन को मिट्टी छानने के लिए पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए केजीएफ के बैथ मंगला टाउन के अंदर बहुत बड़ा आर्टिफिशियल झील भी बनाया।
केजीएफ मिनी इंग्लैंड बन गया था
1902 तक कंपनी ने केजीएफ माइनिंग करने के लिए सभी प्रकार के जरूरतों को पूरा कर चुकी थी और अब भारत का 95% सोना यहाँ से उत्पन्न होता था। इतना प्रचुर मात्रा में यहां पर सोना निकलने के कारण इस इलाके की काफी तरक्की भी हुई। माइनिंग के अंदर बड़े पद पर काम करने वाले ब्रिटिश ऑफिसर ने यहां पर रहने के लिए काफी घर बनवाए।
इस तरीके से यहां पर कई बड़े-बड़े पक्के मकान, सुरक्षा के लिए हॉस्पिटल मनोरंजन के लिए क्लब और काफी चीजें बनाई गई। इस तरीके से केजीएफ के आसपास का इलाका उस समय एक बड़े शहर में तब्दील हो गया था, इसी कारण उस समय इस शहर को मिनी इंग्लैंड भी कहा जाता था।
भले ही केजीएफ के आसपास के इलाके सुख सुविधा से भरपूर थे और एक बड़े शहर में तब्दील हो गए थे लेकिन वह सभी सुख सुविधाएं ब्रिटिश ऑफिसर और उनके परिवार के लिए था। माइनिंग के अंदर काम करने वाले बेचारे मजदूरों की जिंदगी वैसे ही थी। उन्हें किसी भी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जाती थी।
केजीएफ रीजन भारत सरकार के अंतर्गत आ गया
1880 में जॉन टेलर एंड कंपनी द्वारा केजीएफ की माइनिंग का काम लिया गया और देखते ही देखते 76 साल तक यह काम चला। यहां तक कि जब देश आजाद हुआ तो उसके 9 साल बाद तक भी ब्रिटिश कंपनी के अंदर ही केजीएफ की माइनिंग का कार्य चल रहा था।
लेकिन फिर 1956 में यहां के राज्य सरकार ने माइनिंग के कार्य को ब्रिटिश कंपनी से हटाकर अपने अधीन ले लिया। 1972 में भारत सरकार ने भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड की स्थापना की, जिसे बीजीएमएल भी कहा जाता है। जिसने केजीएफ के खुदाई कार्य को नियंत्रण में लिया और इस तरीके से 1972 में यहां की माइनिंग पूरी तरीके से केंद्रीय सरकार के अंतर्गत आ गया।
2001 में केजीएफ का कार्य बंद हो गया
दरअसल केजीएफ खुदाई का कार्य 1880 से ही बड़े पैमाने पर किया जा रहा था। शुरुआती समय में तो बहुत ऊपरी सतह से ही सोना मिल जाता था लेकिन लंबे समय तक यहां पर खुदाई के दौरान यह काफी गहरा होते चला गया और भारत सरकार के अंतर्गत यह खदान जब आया तब तक इस खदान की गहराई लगभग 3 किलोमीटर तक जा चुकी थी, जिस कारण इसे दुनिया का सबसे गहरा माइन भी कहा जाता था।
इतनी गहराई में 50 डिग्री सेल्सियस जितना तापमान होता था, जिसके कारण इतनी गहराई में इंसानों का घुसकर काम करना काफी मुश्किल होता था। यहां तक की कई लोग अक्सर मौत के शिकार हो जाते थे। 120 सालों तक इस खदान से 900 टन से भी ज्यादा सोना निकाला गया था। लेकिन अब माइन के अंदर से सोना की मात्रा भी काफी ज्यादा कम हो गई थी।
शुरुआती समय में 1 टन अयस्क से 40 ग्राम तक सोना निकल जाता था। लेकिन अब 3 ग्राम तक निकालना मुश्किल हो रहा था। इतना कम सोना निकलने के कारण प्रोडक्शन कॉस्ट में लगातार वृद्धि हो रही थी और प्रॉफिट दिन प्रतिदिन घटते जा रहा था।
इस कारण बीजीएमएल को काफी नुकसान हो रहा था और इसी कारणवश 28 फरवरी 2001 को इस खदान की खुदाई को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।
नर्क के समान बन गया केजीएफ
एक समय केजीएफ को मिनी इंग्लैंड कहा जाता था। जब यहां पर बड़ी मात्रा में माइनिंग का कार्य होता था तो चारों तरफ खूबसूरती और सुख सुविधाएं भी दी, साफ सुथरा वातावरण था। यहां पर लोगों की आबादी भी काफी थी, जो माइनिंग के काम पर ही आधारित रहते थे।
लेकिन भारत सरकार द्वारा केजीएफ माइनिंग को अचानक से बंद करने के फैसले से यहां रहने वाले लोगों की जिंदगी पर काफी बुरा असर पड़ा। यह सभी लोग बेरोजगार हो गए। यहां तक की पानी और बिजली जैसी जरूरी चीजों की आपूर्ति भी सही ढंग से मिलना बंद हो गया।
इस कारण आज यह केजीएफ बिल्कुल एक नर्क के समान बन चुका है। एक समय था जब यह माइनिंग लाखों लोगों के लिए रोजगार का जरिया था लेकिन अब यहां कोई काम नहीं होता।
FAQ
केजीएफ कर्नाटक के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित कोलार जिले में स्थित है।
केजीएफ ब्रिटिश काल में सोने के उत्पादन के लिए काफी मशहूर था। यहां तक कि पूरे भारत का लगभग 95% सोना यहीं से खुदाई होती थी।
केजीएफ में लगभग 120 सालों तक खुदाई का काम जारी रहा था।
दरअसल देश आजाद होने के 9 साल के बाद यानी कि 1956 में केजीएफ की माइनिंग कार्य भारत सरकार के नियंत्रण में आ गया। लेकिन तब तक इस खदान में से सोने की मात्रा काफी ज्यादा कम हो चुकी थी और इसकी गहराई भी काफी कम हो चुकी थी। इतनी गहराई में काम करना काफी खतरनाक था, इसीलिए इसे 2001 में बंद कर दिया गया।
केजीएफ से 120 सालों के अंदर 900 टन सोना निकाला गया।
निष्कर्ष
जब 19वीं शताब्दी के दौरान केजीएफ में खुदाई का कार्य होता था तो भारत में प्रचुर मात्रा में सोने की आपूर्ति होती थी तब भारत को अन्य देश से सोना मंगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन 2001 तक यहां सोने की मात्रा काफी कम हो गई।
इस तरह आज के लेख में हमने आपको केजीएफ के इतिहास (Kolar Gold Fields History in Hindi) के बारे में बताया। हमें उम्मीद है कि यह लेख आपको पसंद आया होगा। लेख से संबंधित कोई भी प्रश्न या सुझाव हो तो कमेंट में लिखकर जरूर बताएं और इस लेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों में शेयर करें ताकि अन्य भी केजीएफ के इतिहास के बारे में जान सके।
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