गणेश चतुर्थी की कथा (Ganesh Chaturthi ki Katha)
प्राचीन समय की बात है। एक बार देवताओं पर एक भारी संकट आ गया। सभी देवता मिलकर उस संकट को दूर करने के लिए भगवान शिव शंकर के पास गए। देवताओं के प्रधान इंद्रदेव ने भगवान शिव को संकट के बारे में बताया। भगवान शंकर देवताओं की इस समस्या का निवारण कर रहे थे तो उनके पास उनके दोनों पुत्र कार्तिकेय और गणेश जी बैठे थे।
भगवान शिव ने कार्तिकेय और गणेश जी से पूछा कि आप दोनों में से कौन इस समस्या का निवारण कर सकता है? कार्तिकेय और गणेश जी दोनों ने इसके लिए स्वयं को सक्षम बताया। भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेने का विचार आया।
भगवान शिव ने दोनों को बताया जो पृथ्वी की सात परिक्रमा पूरी करके सर्वप्रथम यहां आएगा वह देवताओं की समस्या का निवारण करेगा। यह बात सुनते ही कार्तिक ही अपने वाहन मोर पर बैठकर परिक्रमा करने के लिए निकल गये। गणेश जी के मन में विचार आया यदि मैं अपने वाहन मूषक पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए जाऊंगा तो इस कार्य में मेरे को अत्यधिक समय लगेगा।
कुछ समय के विचार के बाद वे अपने स्थान से खड़े हुए और अपने माता-पिता की सात परिक्रमा पूरी करके अपने स्थान पर जा बैठे।
जब कार्तिकेय पृथ्वी की सात परिक्रमा पूरी करके कैलाश पर्वत पर लौटे तो खुद को विजेता बताने लगे। इस बात पर भगवान शिव ने गणेश जी परिक्रमा के बारे में पूछा तो गणेश जी ने बताया कि माता पिता के चरणों में सभी लोक समाए होते हैं इसलिए मैंने अपने माता-पिता की सात परिक्रमा पूरी करके तीनों लोको की परिक्रमा कर ली है। वह भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का दिन था।
भगवान शिव ने कहा यदि भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी का व्रत रखेगा और संध्या के समय चंद्रमा को देखकर अपना व्रत खोलेंगा तो वह व्यक्ति तीनों तापो दैहिक ताप, दैविक ताप और भौतिक ताप से मुक्त होकर सांसारिक सुख प्राप्त करेगा।
उस दिन के पश्चात सभी व्यक्ति मुख्यत औरतें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को व्रत रखती है। वह संध्या के समय चंद्रमा को जल चढ़ाने के पश्चात अपना व्रत खोलती है। इस व्रत में औरतें सांसारिक सुख के साथ अपने पति की लंबी आयु और आनंद की कामना करती है।
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