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सूरदास का जीवन परिचय

Biography of Surdas in Hindi: नमस्कार दोस्तों, आज हम इस लेख में वात्सल्य रस के सम्राट, अंधे कवि और संत, भक्ति काल के सगुण धारा कवियों में सर्वोपरि महाकवि सूरदास जीवन परिचय हिंदी में (Surdas ji ka Jivan Parichay) बताने जा रहे हैं।

यहां पर हम उनके जन्म से लेकर अंतिम समय तक की जीवन यात्रा के बारे में जानने के साथ ही उनके गुरू और उनके द्वारा लिखित वात्सल्य रस से परिपूर्ण रचनाओं के बारे में भी जानेंगे। सूरदास जी द्वारा लिखित रचनाओं में हम श्री कृष्ण के भक्ति भाव को बहुत ही करीब से महसूस कर सकते हैं।

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इनके द्वारा लिखी गई रचना जो भी एक बार पढ़ लेता है, वह पूरी तरह भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में लीन हो जाता है। इनकी रचनाओं में हमें शान्त और श्रृंगार रसों में श्री कृष्ण का बहुत ही मर्मस्पर्शी और दिल को छू जाने वाला वर्णन देखने को मिलता है।

सूरदास का जीवन परिचय | Biography of Surdas in Hindi

सूरदास की जीवनी एक नज़र में

नामसंत सूरदास
जन्म और जन्मस्थान1478 ईस्वी, किरोली गांव (रुनकता)
पिता का नामरामदास
माता का नाम
स्टेटसअविवाहित
पेशामहान कवि
गुरू का नामश्री वल्लभाचार्य
प्रमुख रचनाएँसूरसागर, सूर सरावली, साहित्य लहरी, नल दमयंती
मृत्यु1580 ईस्वी (102 वर्ष), पारसौली गांव (गोवर्धन पर्वत)
Surdas Biography In Hindi

संत सूरदास जी कौन थे? (surdas kaun the)

संत सूरदास जी कृष्णाश्रय शाखा के प्रमुख कवि थे और इन्होंने अपनी रचनाओं में श्री कृष्ण जी की लीलाओं का दिल को स्पर्श करने वाला मार्मिक और विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। संत सूरदास जी अपनी रचनाओं में इतनी ज्यादा मार्मिकता और सत्यता का वर्णन करते थे, मानो जैसे कि वह घटना स्वयं उन्होंने अपनी आंखों से देखी हो।

संत सूरदास जी को पुराणों और उपनिषदों का बहुत ही करीब से ज्ञान था। विद्वानों और लोगों को सूरदास जी की जन्मतिथि और उनके जन्मस्थान को लेकर अभी बहुत से मतभेद है, इन्होने इनके जन्मस्थान को लेकर बहुत से मत प्रस्तुत किए गए हैं।

बहुत से इतिहासकारो ने संत सूरदास की जन्म और जन्म स्थली को लेकर के अपने अलग-अलग प्रकार के मत प्रस्तुत किए हैं, जो अपनी ही एक अलग-अलग मान्यता को दिखाते हैं। कुछ लोग सूरदास जी का जन्म रुनकता तथा कुछ लोग इनका जन्म सिही नामक गांव में मानते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि संत सूरदास जी अंधे थे। संत सूरदास जी स्वयं अपनी रचनाओं को नहीं लिखते थे, वह अपनी रचनाओं को मुख से बोलते और उनके शिष्य उन रचनाओं को लिखते थे।

हिंदी साहित्य की दो शाखाएं थी, पहली सगुण भक्ति शाखा और दूसरी निर्गुण भक्ति शाखा। अतः संत सूरदास जी सगुण भक्ति शाखा के कृष्णाश्रय शाखा के प्रमुख कवि थे। सगुण धारा के कवि उन्हें कहा जाता है, जो भगवान की आकृति पर पूरा भरोसा करते हैं।

संत सूरदास जी के रचनाओं को पढ़ने के बाद ऐसा कहा जाता है कि संत सूरदास जी भगवान श्री हरि विष्णु के परम भक्त थे, इसीलिए उन्होंने सगुण भक्ति शाखा के कृषि शाखा को चुना। इन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री कृष्ण के श्रृंगार, वीर तथा शांत रस की बेहद मर्मस्पर्शी कथाओं का वर्णन किया है।

संत सूरदास जी का जन्म

जैसा कि हमने ऊपर जान लिया कि संत सूरदास जी के जन्म के विषय में और उनके जन्म स्थान को लेकर अनेक पुरातत्वविद लोगों ने अपने अनेक प्रकार के अलग-अलग मत प्रस्तुत किए हैं। केवल सूरदास जी के जन्म को ही लेकर नहीं, अपितु इनके मृत्यु को भी लेकर हिंदी साहित्य में द्वंद है।

अनेक इतिहासकारों के अनुसार सूरदास जी का जन्म 1478 ईस्वी को रुनकता के किरोली नामक गांव में एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में माना जाता है। गोकुलनाथ जी के चौरासी वैष्णव की वार्ता के अनुसार संत सूरदास जी का जन्म रेणु नामक गांव में माना जाता है, जो कि वर्तमान में आगरा जिले में है।

भाव मिश्र जी के द्वारा लिखित भाव प्रकाश में संत सूरदास जी का जन्म स्थान सिहि नामक गांव में माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार संत सूरदास जी का जन्म एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जो कि आगरा और मथुरा के मध्य में स्थित गऊघाट में निवास करते थे। ऐसा माना जाता है कि महाकवि सूरदास जी का अधिकतर बचपन गऊघाट में ही व्यतीत हुआ है।

इनके जन्म के मतभेद के साथ ही इनके जन्म से अंधे होने को लेकर भी कई अलग-अलग मतभेद है। ऐसा कोई प्रमाणिक साक्ष्य मौजूद नहीं है, जिससे यह सिद्ध होता हो कि सूरदास जी जन्मांध थे। परंतु कई रिसर्च के मुताबिक यह बताया जाता है कि संत सूरदास जी जन्मांध थे।

उन्होंने अपने सभी की सभी रचनाओं को खुद से नहीं लिख कर अपने शिष्यों से लिखवाया है और इन्होंने अपनी लेखनी में खुद के ही शब्दों का उपयोग किया है। अर्थात उन्होंने अपनी रचनाओं को अपने मुंह से बोला है, परंतु लिखा उनके शिष्यों ने हैं।

संत सूरदास जी के विषय में एक बहुत ही श्रद्धा में बात कही जाती है कि सूरदास जी ने पूरी तरह से भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में लीन होने के लिए उन्होंने अपने पूरे जीवन को कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया और मात्र 6 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने पिता से आज्ञा लेकर घर का त्याग कर दिया और यमुना के तट पर स्थित गौउघाट पर अपने जीवन की यात्रा शुरू की।

संत सूरदास जी के पिताजी का नाम रामदास सारस्वत था, इनके पिताजी बहुत ही अच्छे और प्रसिद्ध गीतकार थे। ऐसा भी माना जाता है कि सूरदास जी को अपनी रचनाएँ लिखने की प्रेरणा उनके पिताजी द्वारा ही प्राप्त हुई थी। उनकी प्रेरणा पाकर ही उन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री कृष्ण को बहुत ही अच्छे तरीके वर्णित किया है।

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सूरदास जी के गुरु कौन थे?

सूरदास जी के गुरु प्राप्ति के विषय में भी एक बहुत ही बड़ी कथा कही जाती है। ऐसा कहा जाता है कि जब एक बार सूरदास जी एक बार वृन्दावन धाम की यात्रा करने के लिए निकले तो उस यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात बल्लभाचार्य से हुई।

इसके बाद गौऊघाट पर श्री वल्लभाचार्य से भेट हुई। तब बल्लभाचार्य जी ने सूरदास जी के मुख से गाया हुआ एक भक्ति पद सुना, इसके बाद सूरदास को उन्होंने अपना शिष्य बना लिया और वल्लभाचार्य जी के द्वारा सूरदास जी को शिक्षा प्रदान की जाने लगी।

सूरदास जी ने अपनी भक्ति की शिक्षा-दीक्षा बल्लभाचार्य से ही ग्रहण की। ऐसा भी कहा जाता है कि सूरदास जी ने जो श्रीकृष्ण की भक्ति का मार्ग चुना उसे उनके गुरु वल्लभाचार्य जी ने ही मार्गदर्शन के रूप में बताया था। गुरू श्री वल्लभाचार्य ने ही सूरदास जी को पूर्णरूप से दीक्षित करके भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का मार्गदर्शन और प्रेरित करने के साथ ही अग्रेसित भी किया।

इसके बाद सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करने लगे और उनकी लीलाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होकर के सूरदास जी ने घूम-घूम कर के श्री कृष्ण जी का गुणगान करना शुरू कर दिया और गुणगान करते हुए, सूरदास जी मथुरा और आगरा के मध्य गोवर्धन पर्वत पर स्थित मंदिर में अपने गुरू श्री वल्लभाचार्य के साथ हमेशा जाने लगे और वहां पर श्रीनाथ जी की चाकरी करने लगें।

इसके साथ ही वह हमेशा कुछ नये-नये पदों की रचना करके उनका इकतारे के द्वारा गायन किया करते थे। सूरदास जी श्री वल्लभाचार्य के अनेक प्रमुख शिष्यों में से एक थे। इन्होंने अष्टछाप की रचना करने में अपना प्रमुख योगदान दिया। इसी कारण महाकवि सूरदास जी का स्थान अष्टछाप के कवियों में सर्वश्रेष्ठ है।

अष्टछाप के लेखनी के दौरान सूरदास जी को इनके गुरु श्री वल्लभाचार्य जी के सलाह के अनुसार भगवान श्री हरि विष्णु के ‘भागवत लीला’ का गायन करने का सुझाव दिया गया। इस सुझाव के बाद से ही सूरदास जी नित्य भगवान श्री कृष्ण का गुणगान करने लगे।

जब ये गायन किया करते थे, उस समय उनकी कृष्णभक्ति को स्पष्ट रूप से महसूस करा जा सकता था। इन सबसे पहले सूरदास जी अपने परिवार से विरक्त हो गये थे तब सिर्फ़ दीनता भाव से विनय के पदों की रचना किया करते थे और इनका गायन किया करते थे। इन पदों का “सूरसागर” नाम का संग्रहित रूप बहुत प्रसिद्ध है।

सूरदास जी और उनके गुरू श्री वल्लभाचार्य जी बीच एक रोचक बात भी बहुत प्रसिद्ध है कि इन दोनों की उम्र में मात्र 10 दिन का ही अंतर था और इन दोनों के ही जन्म के इस अंतर को देखते हुए सूरदास जी के जन्म की गणना की गई है। बहुत से विद्धानों के अनुसार विक्रम संवत् 1534 की वैशाख् कृष्ण एकादशी को गुरू श्री वल्लभाचार्य जी जन्म हुआ और इसी वजह से कई विद्धान सूरदास का जन्म विक्रम संवत् 1534 की वैशाख् शुक्ल पंचमी का समकक्ष मानते हैं।

सूरदास जी को भगवान श्री कृष्ण के साक्षात दर्शन

संत सूरदास जी भगवान श्री हरि विष्णु के भक्ति में इतना ज्यादा लीन हो गए थे कि इन्होंने देश दुनिया और आसपास के क्षेत्रों में हो रहे सभी मोह माया से अपना मुंह मोड़ लिया था और सिर्फ श्री हरि विष्णु की भक्ति करने लगे थे। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्री हरि विष्णु ने सूरदास जी की संकट के समय में बहुत ही सरलता एवं साधारणता के साथ मदद भी की थी।

संत सूरदास जी ने अपने गुरू से श्री कृष्ण भक्ति की शिक्षा लेकर सूरदास जी कृष्ण जी की भक्ति में पूरी तरह से लीन हो गये थे। इनकी कृष्ण भक्ति को लेकर कई कथाएं प्रचलित है। इन्ही कथाओं में से एक कथा के अनुसार एक बार सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में इतना लीन हो गये कि उनको पता ही नहीं लगा कि वे एक कुँए में गिर गये है।

कुएं में गिरने के बाद भी संत सूरदास जी भगवान विष्णु का नाम जपते ही जा रहे थे और उस समय भगवान श्री कृष्ण खुद सूरदास जी की मदद करने के लिए साक्षात प्रकट हुए और सूरदास की जान बचाई।

इतना सब होता देख भगवान श्री कृष्ण के साथ उपस्थित रूकमणी ने भगवान से सवाल किया कि “सूरदास की जान बचाने के पीछे क्या कारण है?” तो भगवान श्री कृष्ण ने जवाब के रूप में रूकमणी को बताया कि हमेशा सच्चे भक्तों की सहायता करनी चाहिए। भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मणी को जहां भी बताया कि सच्चे भक्त हमेशा निस्वार्थ भाव से भगवान की सेवा करते हैं और भगवान की यह लीला होनी चाहिए कि वह अपने भक्तों की मदद करें।

सूरदास जी निच्छल भाव से श्री कृष्ण की आराधना किया करते थे और श्री कृष्ण के सच्चे उपासक भी थे। इसलिए भगवान ने इसे सूरदास की भक्ति की उपासना का परिणाम बताया। कथा में ऐसा भी बताया जाता है कि जब श्री कृष्ण ने सूरदास की मदद की थी तब सूरदास जी को उनकी नेत्र ज्योति भी साथ में प्रदान की थी। उस समय सूरदास ने अपने जीवन में पहली बार किसी को देखा था, वो भी भगवान श्री कृष्ण को।

श्री कृष्ण सूरदास की भक्ति से बहुत ही प्रसन्न थे तो उन्होंने सूरदास से वरदान मांगने के लिए कहा तो उसके बाद सूरदास जी जवाब देते है कि “मेरे को तो सब कुछ मिल गया है और वह फिर से अँधा होना चाहते थे।” अँधा होने के पीछे यही कारण था कि वह भगवान श्री कृष्ण के अलावा किसी और को नहीं देखना चाहते थे।

इसके बाद भगवान ने अपने भक्त का मन प्रसन्न रखने के लिए नेत्र ज्योति वापस ले ली। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने सूरदास को अपने साक्षात दिव्य दर्शन दिए।

सूरदास जी की सम्राट अकबर से मुलाकात

सूरदास जी की रचनाओं और पद के साथ ही उनके गायन विद्या की ख्याति हर जगह पर मशहूर थी। सूरदास जी के द्वारा रचित पद और गीत सुनने के बाद हर कोई भगवान की ओर मोहित हो जाता था। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब सूरदास जी की भक्ति और ख्याति प्राप्त गायन विद्या के बारे में सुना तो सूरदास जी से मिलने की उनकी तीव्र इच्छा प्रकट हुई।

इतिहास में इस बात वर्णन है कि एक बार महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नौ रत्नों में से एक थे, इन्होंने मथुरा में अकबर से सूरदास जी की मुलाकात करवाई। जब अकबर ने सूरदास द्वारा गाये गये पद को सुना तो वह बहुत ही खुश हुआ।

सूरदास जी की मृत्यु कब हुई थी?

सूरदास जी की मृत्यु को लेकर भी काफी मतभेद है। लेकिन कुछ विद्वानों के अनुसार एक बार जब सूरदास जी के गुरु वल्लभाचार्य और विट्ठलनाथजी ने श्रीनाथ जी की आरती के समय कवि सूरदास जी को आरती में नहीं पाया। इससे पहले सूरदास जी हमेशा ही श्री नाथ जी की आरती में अपनी उपस्थिति देते थे। ऐसा देखकर गुरु वल्लभाचार्य जी को यह आभास हुआ कि सूरदास जी का देवलोक जाने का समय नजदीक आ गया है।

श्रीनाथ जी की आरती पूरी होने के बाद गुरु वल्लभाचार्य विट्ठलनाथ और गोविंदस्वामी, गोसाई जी रामदास, चतुर्भुजदास, कुम्भनदास सभी साथ में सूरदास जी की कुटिया में पहुंचे तो वहां पर सूरदास जी को अचेत अवस्था में पाते है।

साक्षात भगवान की तरह गोसाई जी का सूरदास जी ने स्वागत किया और उनकी भक्ति की खूब प्रशंसा की। लेकिन इस समय साथ में उपस्थित चतुर्भुजदास के मन यह सवाल आया कि सूरदास जी ने भगवान का गुणगान तो बहुत किया और गाया है। लेकिन कभी अपने गुरू वल्लभाचार्य का यशगान नहीं किया?

इस पर सूरदास जी जवाब देते हैं कि भगवान में और आचार्य जी में कोई अंतर नहीं है। सूरदास जी ने अपने गुरू के प्रति भाव व्यक्त करने के लिए “भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो” पद को गाया। इसके बाद विट्ठलनाथ जी ने सूरदास जी से चित और नेत्र की वृत्ति से जुड़े सवाल किये तो सूरदास जी ने ‘बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी’ और ‘खंजन नैन रूप रस माते’ दो पद का गायन किया और उनसे उनको यह सूचित किया कि अब उनकी आत्मा और मन पूरी तरह से राधा भाव में लीन हो चुकी है। इतना सबकुछ कहते हुए सुरदास जी के प्राण शरीर को मुक्त कर देते हैं।

गोवर्धन पर्वत के निकट स्थित पारसौली गांव में 102 वर्ष की उम्र में 1580 ईस्वी (1642 विक्रमी संवत्) को सूरदास अपनी इस जीवन यात्रा को समाप्त करते हैं। सूरदास जी अपनी इस 1478 से 1580 तक की जीवन यात्रा को कृष्ण भक्ति में समर्पित करते हुए कई ग्रन्थ और काव्य की रचना करते हैं।

सूरदास जी ने अपने प्राण उसी गांव पारसौली में त्यागे थे, जिस गांव में श्री कृष्ण रासलीलायें किया करते थे। सूरदास जी ने जिस स्थान पर अपना अंतिम साँस ली, उस स्थान पर सूरश्याम मंदिर (सूर कुटी) बनाया गया है।

हिंदी साहित्य में सूरदास जी का प्रमुख स्थान

हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग 2000 वर्षों से भी अधिक पुराना है। जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे हिंदी साहित्य भी विभाजित होता गया। हिंदी साहित्य को चार भागों में बांटा गया है। इन चारों भागों को ‘हिंदी साहित्य का चार काल’ के नाम से जाना जाता है। यह चारों काल नीचे निम्नलिखित है:

  1. आदिकाल (783 से 1343 ई.)
  2. भक्ति काल (1383 से 1643 ई.)
  3. रीतिकाल (1683 से 1843 ई.)
  4. आधुनिक काल (1843 से अब तक)

महाकवि सूरदास जी हिंदी साहित्य के भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्णाश्रय शाखा के प्रमुख कवि थे। इन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी कारण इनको सगुण भक्ति शाखा के कृष्णाश्रय शाखा के प्रमुख कवि के रूप में ख्याति प्राप्त है।

सूरदास जी की रचनाओं में भाषा (Surdas ki Bhasha Shaili)

क्या आप जानते हैं सूरदास जी अपने रचनाओं में किस भाषा का उपयोग करते थे? यदि नहीं तो आपको बता दे कि सूरदास जी अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा का उपयोग करते थे। सूरदास जी ने अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा के अलावा अन्य किसी भी भाषा का उपयोग नहीं किया है।

सूरदास जी की रचनाओं में उपयोग की गई शैली

सूरदास जी की ज्यादातर रचनाएं गेय पद में है। सूरदास जी की जो भी रचनाएं गेय पद में है, उनमें माधुर्य गुण सर्व प्रधान है। अर्थात सूरदास जी की जो भी रचनाएं गेय पद में है, उन सभी में माधुर्य गुण है। यदि वही उनकी रचनाओं में देखा जाए तो शैली बहुत ही सरल और प्रभावशाली है।

सूरदास जी की रचनाओं की काव्यगत विशेषताएं

सूरदास जी को हिंदी काव्य साहित्य का श्रेष्ठ कवि माना जाता है। सूरदास जी की रचनाओं में वात्सल्य रस की प्रधानता होती है। सूरदास जी ने भगवान श्री कृष्ण के बाल्य अर्थात बाल्यावस्था रूप का बहुत ही मनमोहक और सजीव चित्रण (अर्थात उनके काव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि तुलसीदास जी ने भगवान श्री कृष्ण को अपनी आंखों से देखते हुए लिखा है) किया है।

इनके काव्य को पढ़कर डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने प्रशंसा करते हुए यह भी कहा है कि सूरदास जी जब अपने सबसे प्रिय विषय का वर्णन करना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है कि अलंकार का शास्त्र सूरदास जी के पीछे हाथ जोड़कर दौड़ रहा हो और रूपक की तो बाढ़ ही आ जाती है।

इसके अतिरिक्त उपमा की वर्षा होने लगती है। इतना ही नहीं सूरदास जी ने जिस प्रकार से अपनी रचनाओं में श्री कृष्ण जी की मनोहारी सजीव चित्रण को प्रस्तुत किया है, वह अन्य किसी भी कवि की रचना में संभव नहीं है।

संत सूरदास जी के द्वारा लिखे गए प्रमुख ग्रंथ (Surdas ki Rachnaye)

हिंदी साहित्य में महाकवि सूरदास द्वारा लिखे गए कई ग्रंथ का प्रमाण मिलता है। ऐसे में उनके ग्रंथ नीचे निम्नलिखित रुप से दर्शाए गए हैं। हिंदी साहित्य के महाकवि सूरदास जी ने अपने सभी ग्रंथों (sant surdas ke pramukh granth) में भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का ही गुणगान किया है और उन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री हरि कृष्ण की महिमा का वर्णन किया है:

  1. सूरसागर
  2. सूर सरावली
  3. साहित्य लहरी
  4. नल दमयंती
  5. सूरसागर

सूरसागर सूरदास द्वारा लिखा गया सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है। इस ग्रंथ में सूरदास जी ने कृष्ण जी की भक्ति से युक्त सवा लाख पदों का संग्रह दर्शाया है। परंतु समय के बढ़ते क्रम में अब केवल सात सौ आठ हजार पद का ही अस्तित्व मौजूद है।

सूरदास जी ने इस ग्रंथ को कुल 12 अध्यायों में स्पष्ट किया है, जिसमें से 11 अध्याय संक्षिप्त रूप में है और दसवां अध्याय बहुत ही विस्तारपूर्वक समझाया है। सूरदास जी की इस रचना में विभिन्न स्थानों पर कुल 100 से भी अधिक प्रतिलिपिया प्राप्त हुई है।

सूरसागर

संत सूरदास जी ने अपने सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ सूरसागर में लगभग एक लाख पद लिखे हैं, परंतु पुराने समय में लिखे जाने के कारण सूरसागर में लिखी गई प्रतिलिपि नष्ट हो चुकी है और वर्तमान समय में लगभग 5000 पद ही प्राप्त हुए हैं। महाकवि सूरदास जी के इन सभी प्रतिलिपियों की लेखनी को 19वीं शताब्दी की मानी जाती है। सूरदास जी के द्वारा लिखी गई इन सभी प्रतिलिपि को सरस्वती भंडार में सुरक्षित करके रखा गया है।

संत सूरदास जी ने अपने सूरसागर ग्रंथ में श्री कृष्ण की बाल लीला और भंवर गीत नाम के दो प्रसंग भी लिखे हैं, जो वर्तमान समय में सबसे ज्यादा प्रचलित है। संत सूरदास जी के द्वारा लिखे गए इस सूरसागर की प्रशंसा करते हुए महान कवि डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कुछ लाइन लिखा है जो निम्नलिखित प्रकार है:

“काव्य गुणों की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौंदर्य है, वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं होता। जिस का सौंदर्य पद पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है बल्कि यह उस कृतिम वन भूमि की भांति होता है जिसके रचयिता स्वयं रचना में घुल मिलकर रहते हैं।”

सूर सरावली

सूरदास जी के द्वारा लिखा गया सुर सरावली ग्रंथ सूरदास जी ने लगभग 67 वर्ष की उम्र में की थी। सूर सरावली में कुल लगभग 1107 छंद है। यह संपूर्ण ग्रंथ है एक उत्सव “वृहद होली” गीत के रूप में लिखा गया है।

साहित्य लहरी

साहित्य लहरी महाकवि सूरदास जी की सबसे छोटी रचना है। इस रचना में लगभग 118 पद है। साहित्य लहरी में श्रृंगार रस की प्रधानता है। इस ग्रंथ के अंत में कवि सूरदास जी ने एक वंश वृक्ष के बारे में बताया है। सूरदास जी का नाम सूरज दास है और यह चंद्रवरदाई के वंशज है।

पृथ्वीराज रासो की रचना करने वाले चंद्रवरदाई ही है।

नल दमयंती

सूरदास जी ने दमयंती के माध्यम से नल और दमयंती की कहानी को दर्शाया है। क्योंकि महाभारत कालीन समय का है। इसमें सत्य के पुजारी युधिष्ठिर जब जुए में अपना सब कुछ हार जाते हैं तब उन्हें बनवास हो जाता है। तब इसी नल और दमयंती की कहानी एक ऋषि के द्वारा युधिष्ठिर को सुनाया गया था।

FAQ

सूरदास किस भक्ति शाखा के कवि हैं?

सूरदास सगुण भक्ति शाखा के कवि हैं।

सूरदास द्वारा लिखित पदों की संख्या कितनी मानी जाती थी?

सूरदास जी के द्वारा लिखित पदों की संख्या लगभग 100000 थी, परंतु वर्तमान समय में लगभग 5000 पद मौजूद है।

संत सूरदास जी का जन्म कब हुआ था?

संत सूरदास जी के जन्म के विषय में अब तक कोई प्रमाण नहीं है।

संत सूरदास जी की मृत्यु कब हुई थी?

सूरदास जी की मृत्यु के विषय में भी कोई साक्ष्य प्रमाण नहीं है।

सूरदास जी के साहित्य में किस रस की प्रधानता है?

सूरदास जी के साहित्य में वात्सल्य रस और श्रृंगार रस की प्रधानता है।

सूरदास जी के मुख से अंतिम शब्द क्या निकला था?

सूरदास जी के मुख से अंतिम शब्द श्री कृष्ण निकला था।

निष्कर्ष

इस लेख सूरदास का साहित्यिक परिचय (Biography of Surdas in Hindi) के माध्यम से यह बताया कि महाकवि सूरदास जी का जन्म कब हुआ (Surdas ka Janm Kab Hua), सूरदास जी की मृत्यु हुए, सूरदास जी के गुरू कौन थे (Surdas ke Guru Kaun the) और उनकी प्रमुख रचनाएं इत्यादि। यदि आपको सूरदास जी की जीवनी पसंद आई हो तो कृपया अपने सहपाठियों के साथ इसे अवश्य साझा करें।

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Rahul Singh Tanwar
Rahul Singh Tanwar
राहुल सिंह तंवर पिछले 7 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे हैं। इनको SEO और ब्लॉगिंग का अच्छा अनुभव है। इन्होने एंटरटेनमेंट, जीवनी, शिक्षा, टुटोरिअल, टेक्नोलॉजी, ऑनलाइन अर्निंग, ट्रेवलिंग, निबंध, करेंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान जैसे विविध विषयों पर कई बेहतरीन लेख लिखे हैं। इनके लेख बेहतरीन गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं।

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