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संस्कृत कविताएं – Sanskrit Poem
संस्कृत में कविता (Poem in Sanskrit)
सुभाषितानि
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्न सुभाषितम्।
मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।1।।
सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रवि:।
सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम्।।2।।
दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्त्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा।।3।।
सद्धिरेव सहासीत सद्धिः कुर्वीत सड्तिम्।
सद्धिर्विंवादं मैत्रीं च नासद्धि: किज्चिदाचरेत्।।4।।
धनधान्यप्रयोगेषु विद्याया: संग्रहेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्ज: सुखी भवेत्।।5।।
क्षमावशीकृतिलोंके क्षमया किन् न साध्यते।
शान्तिखड्गः करे यस्य किन् करिष्यति दुर्जनः।।6।।
लालबगीतम्
उदिते सूर्ये धरणी विहसति।
पक्षी कूजति कमलं विकसति।।1।।
नदति मन्दिरे उच्चैर्ढक्का।
सरितः सलिले सेलति नौका।।2।।
पुष्पे पुष्पे नानारदः।
तेषु डयन्ते चित्रपतदः।।3।।
वृक्षे वृक्षे नूतनपत्रम्।
विविधैर्वनैंर्विभाति चित्रम्।।4।।
धेनु: प्रातर्यच्छति दुग्धम्।
शुद्धम् स्वच्छ मधुरं स्निग्धम्।।5।।
गहने विपिने व्याघ्रो गर्जति।
उच्चैस्तत्र च सिंहः नर्दति।।6।।
हरिणोड्यं खादति नवघासम्।
सर्वत्र च पश्यति सविलासम्।।7।।
उष्ट्रः तुग्ड मन्दम् गच्छति
पृष्ठे प्रचुरं भारं निवहति।।8।।
घोटकराजः क्षीप्रम् धावति।
धावनसमये किमपि न खादति।।9।।
पश्यत भल्लुकमिमं करालम्।
नृत्यति थथथै कुरु करतालम्।।10।।
सदाचारः
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युध्मसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।1।।
श्वः कार्यमच्य कुर्वीत पूर्वाह्ले चापराहिकम् |
नहि प्रतीक्षते मृत्यु: कृतमस्य न वा कृतम्।।2।।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म: सनातन:।।3।।
सर्वदा व्यवहारे स्यात्त् औदार्य सत्यता तथा।
ऋजुता मृदुता चापि कौटिल्यं न कदाचन।।4।।
श्रेष्ठ जन॑ गुरुं चापि मातरं पितरं तथा।
मनसा कर्मणा वाचा सेवेत सततं सदा।।5।।
मित्रेण कलहं कृत्वा न कदापि सुखी जनः।
इति ज्ञात्वा प्रयासेन तदेव परिवर्जयेत्।।6।।
भारतीवसन्तगीतिः
निनादय नवीनामये वाणि! वीणाम्
मृदुम् गाय गीतिम् ललित-नीति-लीनाम्।
मधुर-मज्जरी-पिज्जरी-भूत-मालाः
वसन्ते लसन्तीह सरसा रसालाः
कलापा: ललित-कोकिला-काकलीनाम्।।1।।
वहति मन्दमन्दं सनीरे समीरे
कलिन्दात्मजायास्सवानीरतीरे
नतां पह्लिमालोक्य मधुमाधवीनाम्।।2।।
ललित-पल्लवे पादपे पुष्पपुज्जे
मलयमारुतोच्चुम्बिते मज्जुकुज्जे,
स्वनन्तीन्ततिम्प्रेक्ष्य मलिनामलीनाम्।।3।।
लतानां नितान्तं सुमं शान्तिशीलम्
चलेदुच्छलेत्कान्तसलिलं सलीलम्,
तवाकर्ण्य वीणामदीनां नदीनाम्।।4।।
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