Sambhaji Maharaj Biography in Hindi: नमस्कार दोस्तों, हमारे इतिहास में ऐसे कई योद्धा हुए है, जिनका इतिहास जानकर हमारे शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते है। इन्हीं महान योद्धाओं में से एक थे संभाजी महाराज। छत्रपति संभाजी, छत्रपति शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र थे।
आज हम इन्हीं के बारे में जानकारी देने जा रहे है। आइये जानते है इनका गौरवान्वित करने वाले गौरवशाली इतिहास छत्रपति संभाजी महाराज का इतिहास (Sambhaji Maharaj Biography in Hindi) के बारे में।
छत्रपति संभाजी महाराज का इतिहास | Sambhaji Maharaj Biography in Hindi
छत्रपति संभाजी महाराज की जीवनी एक नजर में (Chatrapati Sambhaji Maharaj in Hindi)
पूरा नाम | छत्रपति संभाजी महाराज |
उप नाम | छवा |
जन्म और जन्मस्थान | 14 मई 1657, पुरंदर किले में |
माता-पिता | छत्रपति शिवाजी (पिता), साईंबाई (माता) |
दादा-दादी | शाह जी (दादा), जीजाबाई (दादी) |
भाई | राजाराम छत्रपति |
बहिन | अम्बिकाबाई, शकुबाई, रणुबाई जाधव, दीपाबाई, कमलाबाई पलकर और राज्कुंवरबाई शिरके |
पत्नी का नाम | येसूबाई |
पुत्र | छत्रपति साहू |
धर्म | हिन्दू |
मृत्यु | 11 मार्च 1689, तुलापुर (पुणे) |
संभाजी महाराज का परिवार
संभाजी महाराज अपने परिवार में अपने माता-पिता, दादा-दादी और अपने भाई-बहनों के साथ रहते थे। संभाजी महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र थे और इनकी माता का नाम साईंबाई था। छत्रपति शिवाजी महाराज की तीन पत्नियां थी साईंबाई, सोयराबाई और पुतलाबाई।
परिवार में अपने दादा शाह जी, दादी जीजाबाई, पिता शिवाजी, माता साईंबाई और उनके भाई-बहन के साथ रहते थे। संभाजी राजे के एक भाई भी थे, जिनका नाम राजाराम छत्रपति थे, जो कि सोयराबाई के पुत्र थे। इनके अलावा इनकी बहनें अम्बिकाबाई, शकुबाई, रणुबाई जाधव, दीपाबाई, कमलाबाई पलकर और राज्कुंवरबाई शिरके थी।
संभाजी महाराज का विवाह
संभाजी महाराज का विवाह पिलाजीराव सिरके की पुत्री जीवूबाई से हुआ था। यह एक राजनीतिक संबंध था। यीवूबाई ने विवाह के पश्चात अपना नाम येसूबाई रख लिया। विवाह के पश्चात संभाजी महाराज और यीवूबाई को सर्वप्रथम एक पुत्री हुई, जिसका नाम भवानी बाई था। उसके बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई पुत्र का नाम शाहू महाराज रखा गया था।
संभाजी महाराज का जन्म और शिक्षा
संभाजी महाराज का जन्म पुरंदर किले में 14 मई 1657 को हुआ था। संभाजी महाराज का लालन-पोषण उनकी दादी जीजाबाई के द्वारा हुआ था। क्योंकि जब वे 2 वर्ष के हुए थे तो उनकी माता साईंबाई का देहांत हो गया था। संभाजी महाराज को छवा कहकर भी पुकारा जाता था। छवा का मराठी में अर्थ होता है शेर का बच्चा।
संभाजी महाराज को संस्कृत और 13 अन्य भाषाओं का ज्ञान भी था। 9 साल की आयु में ही संभाजी राजे को अम्बेर के राजा जय सिंह के साथ रहने के लिये भेजा गया, ताकि वे मुगलों द्वारा 11 जून 1665 की धोखेबाजी को जान सके और उनके राजनैतिक दावों को समझ सके। घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी उनको अच्छे से आती थी और संभाजी ने कई शास्त्र भी लिखे थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज से कड़वे सम्बन्ध
छत्रपति संभाजी महाराज और छत्रपति शिवाजी महाराज के बीच में अच्छे सम्बन्ध नहीं थे। उनकी आपस में कम ही बनती थी। उनकी सौतेली माता सोयराबाई अपने पुत्र छत्रपति राजाराम को उतराधिकारी बनाना चाहती थी, जिसके कारण शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज के बीच में सम्बन्ध अच्छे नहीं रहते थे।
संभाजी महाराज ने कई बार अपनी बहादुरी भी दिखाई पर शिवाजी महाराज को उन पर विश्वास नहीं हो पा रहा था। एक बार शिवाजी महाराज ने संभाजी महाराज को सजा भी सुनाई थी, जिससे बचकर संभाजी भागकर मुगलों से मिल गये थे।
यह समय शिवाजी के लिए मुश्किल का हो गया था। बाद में मुगलों की हिन्दूओं के प्रति अत्याचार देख उन्होंने मुगलों का साथ छोड़ दिया और उनको अपनी गलती का अहसास हुआ। फिर शिवाजी से माफ़ी मांगने चले आये।
संंभाजी महाराज की रचना
संभाजी महाराज ने अपनी 14 साल की उम्र में बुधभूषणम, नायिकाभेद, सातशातक और नखशिखान्त जैसे संस्कृत ग्रन्थ की रचना की थी।
छत्रपति संभाजी महाराज का पहला युद्ध
संभाजी महाराज ने अपना पहला युद्ध 16 साल की उम्र में लड़ा था और उस युद्ध पर विजय भी हासिल की थी। यह युद्ध में इन्होने 7 किलो की तलवार के साथ लड़ा था। 1681 में जब शिवाजी महाराज का देहांत हो गया था। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और उनके सबसे बड़े दुश्मन औरंगजेब को तहस नहस करने के लिए चल पड़े।
छत्रपति संभाजी महाराज ने 9 साल में अपने जीवन की 120 लड़ाईयां लड़ी थी। लेकिन किसी भी लड़ाई में उनको पराजय का सामना नहीं करना पड़ा। वे सभी लड़ाईयां विजय कर चुके थे।
शिवाजी राजे का देहांत और संकट की घड़ी
जब शिवाजी का देहांत हुआ तो मराठों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा, उस समय औरंगजेब इनका सबसे बड़ा दुश्मन था। उसको लगा कि अब शिवाजी के बाद उनका बेटा उसके सामने ज्यादा समय तक नहीं रह सकता। फिर औरंगजेब 1680 में दक्षिण पठार की तरफ आया।
औरंगजेब के साथ 50 लाख की सेना और 400,000 जानवर थे। 1682 में रामसेई दुर्ग को मुगलों ने घेरने की 5 महीने तक कोशिश की। लेकिन वो इस काम में सफल नहीं हो सके।
बाद में 1687 में वाई के युद्ध में मुगलों की सेना के आगे मराठा के सैनिक कमजोर पड़ने लग गये और इस बीच संभाजी संघमेश्वर में 1689 फ़रवरी को मुगलों के हाथ लग गये।
संभाजी की कवि कलश से मित्रता
ब्राह्मण कवि कलश संभाजी के मित्र थे, जो आगे चलकर उनके राज्य शासन के दौरान उनके सलाहकार बने थे। संभाजी की मुलाकात कलश से तब हुई जब बचपन में एक बार मुगल शासक औरंगजेब की कैद से बचकर भाग रहे थे।
दरअसल संभाजी की सौतेली मां अपने बेटे राजा राम को राजा बनाना चाहती थी और उसके चाह में वह हमेशा शिवाजी के मन में संभाजी के प्रति घृणा जागृत करते रहती थी, जिससे बहुत ही जल्द शिवाजी और संभाजी के बीच अविश्वास पैदा होना शुरू हो गया।
इसी कारण बस एक बार शिवाजी ने संभाजी को कारावास में डाल दिया था, जहां से वे भाग निकले और मुगलों से जा मिले। लेकिन जब उन्हें वहां मुगलों के द्वारा हिंदुओं के ऊपर किए जाने वाले अत्याचार और क्रूर व्यवहार के बारे में पता चला तो वहां से भी भाग निकले और शिवाजी के दूर के मंत्री रघुनाथ कोर्डे के दूर के रिश्तेदार के यहां कुछ समय के लिए रुक गए।
संभाजी वहां पर करीब 1 से डेढ़ साल तक रुके थे, जिस दौरान वे वहां पर एक ब्राह्मण बालक के रूप में रह रहे थे और उसी दौरान उन्होंने वहां पर संस्कृत भी सिखा था। यहीं पर संभाजी का कवि कलश से परिचय होता है और फिर वे मित्र बन जाते हैं।
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संभाजी महाराज का राज्याभिषेक
जब शिवाजी महाराज का देहांत हुआ तो उन पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा। फिर भी इस परिस्तिथि में संभाजी ने स्वराज्य की जिम्मेदारी को पूरी तरह से संभाला। कई लोगों ने संभाजी महाराज के छोटे भाई राजाराम को सिंहासन पर बैठाने का पूरा प्रयत्न किया। लेकिन सेनापति हम्बीरराव मोहिते के रहते ये लोग इस काम में सफल नहीं हो पाए। 16 जनवरी 1681 को संभाजी महाराज का विधिवत रूप से राज्याभिषेक संपन्न हुआ।
संभाजी राजे ने अन्नाजी दतो और मोरोपंत पेशवा को माफ़ी दे दी और उन्हें अष्टप्रधान मंडल में भी रखा। लेकिन कुछ समय बाद इन्होंने राजाराम की राज्याभिषेक की योजना की। संभाजी राजे ने स्वराज्यद्रोही अन्नाजी दत्तो और उनके सहयोगियों को हाथी के पाव के नीचे मार डाला।
सम्भाजी महाराज की उपलब्धियां
संभाजी एक बहादुर मराठा शासक थे, जिन्होंने हिंदुओं के हित के लिए बहुत योगदान दिया। संभाजी ने औरंगजेब की आठ लाख सेनाओं का सामना किया। मुगलों को मराठा के साथ लड़ाई में व्यस्त रखकर उन्होंने उत्तर भारत के शासकों को दोबारा अपने राज्य को वापस पाने और शांति स्थापित करने का मौका दिया।
यही कारण है कि ना केवल दक्षिण भारत के ही हिंदू बल्कि उत्तर भारत के हिंदू भी वीर मराठा शासक संभाजी के आभारी हैं। यदि संभाजी औरंगजेब और अन्य मुगल शासकों के सामने समर्पण कर देते या संधि कर लेते तो अगले दो से 3 वर्षों में औरंगजेब या अन्य मुगल शासक दोबारा उत्तर भारत के राज्यों को वापस हासिल कर लेते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अंत समय तक उनका सामना करते रहे।
संभाजी बाहरी आक्रमण के साथ-साथ अपने राज्य के भीतर भी दुश्मनों से गिरे हुए थे। लेकिन इन्होंने लगातार मुगलों को महाराष्ट्र में उलझाए रखा। पश्चिम घाट पर मराठा सैनिक और मुगल कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। यही कारण था कि कई सालों तक मुगल मराठा शासक के साथ ही युद्ध में लगे रहे और उत्तर भारत के राज्यों को खोते गए।
इतना ही नहीं संभाजी ने मुगलों के दबाव में हिंदू से मुस्लिम बने भाइयों को घर वापस आने और धर्म परिवर्तन करने में मदद किया। दरअसल मुगलों ने अपने दबाव से कई हिंदू भाइयों को मुस्लिम धर्म में परिवर्तन करवा दिया था। लेकिन शिवाजी महाराज के समय से हीं हिंदुओं का दोबारा घर वापस आना शुरू हो गया।
इनके पुत्र संभाजी ने अपने पिता के कार्य को आगे बढ़ाया और इन्होंने पुनः धर्मांतरण का कार्य करने के लिए एक अलग ही विभाग बना दिया, जो चन लोगों को दोबारा धर्म परिवर्तन करवाती थी, जो मुगलों के दबाव में आकर हिंदू से मुस्लिम बने थे। लेकिन वे अपने हिंदू धर्म को छोड़ना नहीं चाहते थे।
उसी दौरान एक प्रसिद्ध किस्सा है कि कुलकर्णी नाम का एक शख्स जो हिन्दू था लेकिन मुगलो ने जबरन धर्म परिवर्तन कराकर उसे हिंदू से मुस्लिम बना दिया। लेकिन वह अपने हिंदू धर्म को छोड़ना नहीं चाहता था लेकिन गांव के ब्राह्मण ने उसे यह करने से मना कर दिया। क्योंकि उनके अनुसार कुलकर्णी वेद विरुद्ध पद्धति को अपनाकर अशुद्ध हो गया था।
लेकिन उसने संभाजी महाराज की मदद ली और संभाजी महाराज ने उसके धर्म परिवर्तन करने के लिए विधी और अनुष्ठान का आयोजन किया और उसे दूबारा हिंदू धर्म में लाने में मदद की। इस तरीके से संभाजी के कारण कई हिंदू दोबारा मुस्लिम धर्म से वापस अपने धर्म को अपना पाए।
औरंगजेब का संभाजी पर अत्याचार
अब सबकुछ बदल चुका था, मुगलों का आतंक बढ़ चुका था। मुकर्राब खान ने अचानक आक्रमण कर दिया और मुग़ल सेना महल तक पहुंचकर संभाजी और उनके मित्र कवि कलश को बंदी बना दिया। उन दोनों को कारागार में डालकर इस्लाम अपनाने के लिए पूरी तरह से विवश किया गया।
जब औरंगजेब ने संभाजी को देखा तो वह अपने सिंहासन से नीचे आया और यह कहा कि “शिवाजी के बेटे का मेरे सामने खड़ा होना यह एक मेरे लिए बहुत ही बड़ी उपलब्धि है” और अपने अल्लाह को याद करने लगा।
इस बीच में पास में ही खड़े कवि कलश जो कि चैनों से बंधे हुए थे। अपनी वीरता दिखाई और कहा कि देखो मराठा नरेश यह खुद अपने सिंहासन से उठकर आपको नतमस्तक हुआ है। औरंगजेब यह सुनकर को गुस्सा हो गया।
मुगलों के नायकों ने संभाजी को कहा कि यदि वे अपना राज्य और सभी किले मुगलों को दे दें तो जिन्दा रखा जा सकता है। लेकिन संभाजी ने इन सब से मना कर दिया। औरंगजेब का संभाजी के पास सन्देश आया कि यदि इस्लाम कबूल कर ले तो आपको एक नयी जिन्दगी दी जाएगी और आप अपने ऐश से रह पाएंगे। लेकिन यह संभाजी को कबूल नहीं था। फिर संभाजी और उनके मित्र कवि कलश पर मुगलों ने बहुत ही अत्याचार किया।
औरंगजेब ने संभाजी और उनके मित्र कलश को जबरन मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया। लेकिन जब कठोर यातना देने के बाद भी वे नहीं झूखे तब औरंगजेब ने संभाजी और कलश को कैद से निकाल कर उन्हें घंटी लगी हुई टोपी पहना दिया और हाथ में झुनझुना पकड़ाकर ऊंटों से बांधकर इन्हें तुलापुर के बाजार में चारों तरफ घसीटा।
वे जहां-जहां से गुजर रहे थे सभी मुस्लिम उन पर थूक रहे थे, उनका उपहास कर रहे थे, उन पर हंस रहे थे। इस तरीके से औरंगजेब ने उन पर काफी अत्याचार और अपमान किया। लेकिन इनके मित्र कलश हार मानने वाले नहीं थे।
वे अपने भगवान का नाम जपने लगे तब औरंगजेब ने उनके बाल को खींच कर जबरन इस्लाम कबूलने के लिए कहा लेकिन कलश ने यह करने से मना कर दिया। क्योंकि उनके लिए हिंदू धर्म से ऊपर कोई शांतिप्रिय धर्म नहीं था।
संभाजी की मृत्यु
इस्लाम नहीं कबूलने से औरंगजेब बहुत गुस्सा था और उसने संभाजी के घावों पर नमक छिड़कने का आदेश दे दिया। उन्हें घसीट कर उसके सिंहासन तक लाने को कहा। उसके सिंहासन तक लाते समय संभाजी अपने भगवान को याद कर रहे थे। फिर औरंगजेब ने उनकी जीभ को काटकर अपने सिंहासन के आगे डाल दी और इसे कुतो को खिलाने का आदेश दे दिया।
इतना होने के बावजूद भी संभाजी मुस्कुराते हुए औरंगजेब की तरफ देख रहे थे तो उनकी आंखे निकाल दी गई और उनके हाथ भी काट दिए गये। फिर भी संभाजी अपने माता-पिता को याद कर रहे थे। संभाजी के हाथ काटने के 2 सप्ताह बाद 11 मार्च 1689 को उनका सर काट दिया गया। उनका कटा हुआ सर चौराहों पर रखा गया और शरीर के टुकड़े करके कुतों को दे दिये गये।
संभाजी महाराज के मृत्यु के पश्चात भी मुगल मराठा पर अपना प्रभाव नहीं जमा सके। संभाजी महाराज का अंतिम समय तक धर्म ना बदलने के निर्णय पर दृढ़ रहकर अपना जीवन बलिदान करना हिंदू मराठा में उनके प्रति सम्मान और भी ज्यादा बढ़ गया और मुगलों के प्रति आक्रोश भी उतना ही ज्यादा बढ़ा।
संभाजी महाराज को दो हिस्सों में चीर कर फाड़ दिया गया और कुल्हाड़ी से सर काटकर पुणे के पास तुलापुर में भीमा नदी के किनारे फेंक दिया गया था। इसलिए एक किवदंती में संभाजी का वध वाघ नख से किया गया था का उल्लेख है।
FAQ
संभाजी साहित्य के प्रति काफी रूचि रखते थे, जिसके कारण इन्होंने कई साहित्यिक रचनाएं की। इन्होंने मध्यकालीन संस्कृत का उपयोग करते हुए श्रीनगरिका लिखा। इसके अतिरिक्त अपने पिता के सम्मान में संस्कृत भाषा में बुद्धाचरित्र की भी रचना की।
संभाजी महाराज ने अपनी प्रथम युद्ध 16 साल की उम्र में हीं लड़ी थी। कहा जाता है इस लड़ाई में इन्होंने 7 किलो तलवार का इस्तेमाल किया था। उनके पिता की मृत्यु होने के बाद इन्होंने लगातार दुश्मनों का सामना करते रहे और कभी मुड़कर नहीं देखें।
संभाजी ने अपने जीवन काल में कुल 127 युद्ध लड़े, जिनमें से एक भी युद्ध वे हारे नहीं।
कहा जाता है संभाजी महाराज ने ही पहली बुलेट प्रूफ जैकेट बनाई थी और इन्होंने हल्की तोपों का भी निर्माण किया था।
माना जाता है संभाजी भगवान शिव के परम भक्त थे। इसी कारण संभाजी का एक नाम शंभूजी भी पढ़ा था, जो महादेव का ही समानार्थी है। संभाजी महाराज भगवान महादेव को अपने इष्ट देव मानते थे। माना जाता है कि औरंगजेब की शरण में जब इन्हें जाना पड़ा था, वे महाराष्ट्र से लेकर काशी विश्वनाथ होते हुए दिल्ली तक की कठोर यात्रा की थी। इसी दौरान इन्होंने महादेव को अपना इष्ट देव माना था। अंतिम समय में भी में भगवान शिव का अनुसरण करते रहे।
अंतिम शब्द
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आपका ब्लॉग अच्छा था❣️❣️❣️
very good information
bahut badhiya