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रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय और इतिहास

अंग्रेजों को धुल चटाने वाली झांसी की रानी के बारे में जितना बताया जाए, उतना कम है। इनके जीवन पर अनेक फ़िल्में बन चुकी है।

इस आर्टिकल में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का जीवन परिचय हिंदी में (Rani Lakshmi Bai ka Jivan Parichay) विस्तारपूर्वक बताने जा रहे हैं।

Rani Lakshmi Bai ka Jivan Parichay

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन में अनेक परेशानियों का सामना किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी। यही वजह है कि आज भी इन्हें याद किया जाता है और अनेक मंचो पर इनका बखान होता है।

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन परिचय हिंदी में (Rani Lakshmi Bai ka Jivan Parichay)

विषय सूची

रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी एक नज़र में

नाम मणिकर्णिका
उपनाममनु, रानी लक्ष्मीबाई, छबीली
पिता का नाममोरेपंत तांबे
माता का नामभागीरथी सापरे
जन्म19 नवंबर 1828
जन्मस्थानवारणसी, भारत
पदवीरानी
विवाहसन 1842
पति का नाममहाराज गंगाधर राव नेवालकर
पुत्र का नामदामोदर राव, आनंद राव
उपलब्धियांयुद्ध कला में निपुण
मृत्यु17-18 जून 1858 (29वर्ष)
मृत्यु स्थलग्वालियर, भारत

रानी लक्ष्मी बाई कौन थी?

रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसी स्त्री थी, जिन्होंने ब्रिटिश राज्य के खिलाफ और भारत की स्वतंत्रता के लिए अनेकों युद्ध किए।

जिस समय में सभी राज्य अपने-अपने राज्यों को ब्रिटिश के अधीन कर रहे थे, उस समय में महारानी लक्ष्मीबाई ने अपनी झांसी को किसी को भी देने से साफ इनकार कर दिया था और झांसी को अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्रत कराने के लिए लड़ाई लड़ने लगी।

रानी लक्ष्मी बाई एक बहुत ही साहसी स्त्री थी। रानी लक्ष्मीबाई लोगों के प्रति बहुत ही उदार दिल वाली थी।

गरीब और आम जनता के लोगों के लिए रानी लक्ष्मीबाई के दिल में एक अलग ही स्थान था। वह उन लोगों के प्रति बहुत ही उदार थी, जो बहुत ही गरीब या फिर लाचार होते थे।

रानी लक्ष्मीबाई के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने का मकसद सिर्फ और सिर्फ गरीब लोगों को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाना था।

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने संपूर्ण जीवन में किसी के भी अधीन रहकर जीना नहीं चाहा। वह चाहती थी कि वह खुद के भविष्य का निर्धारण स्वयं से करें और उन्होंने ठीक ऐसा ही किया।

महारानी लक्ष्मी बाई के साथ स्वतंत्रता संग्राम में न केवल वह थी, परंतु उनके साथ उनके सेनापति चाचा और उनके पिता भी थे।

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को काशी में हुआ था। वर्तमान समय में काशी को वाराणसी के नाम से जाना जाता है।

लक्ष्मी बाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे था, जो विट्ठल में न्यायालय में एक पेशवा के पद पर थे और इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था।

लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्रेम से इन्हें मनु नाम से पुकारा जाता था।

महारानी लक्ष्मीबाई की शिक्षा

दरबारियों के कहने पर इनके पिता मोरेपंत तांबे ने इनकी शिक्षण व्यवस्था राज महल में ही कर दी।

वहां मनु बाई को रामायण, महाभारत, वेद पुराण की शिक्षा के साथ-साथ युद्ध कला की शिक्षा भी दी जाने लगी। कुशाग्र बुद्धि की मनु जल्दी ही शास्त्र और शस्त्र की विद्या में प्रवीण हो गई।

लक्ष्मीबाई ने शिक्षण के साथ-साथ आत्मरक्षा, घुड़सवारी, निशानेबाजी, घेराबंदी, रक्षा इत्यादि जैसे प्रशिक्षण प्राप्त किए।

रानी लक्ष्मीबाई का प्रारंभिक जीवन

19 नवंबर 1828 का वह दिन जब भारतीय इतिहास में मोरेपंथ तांबे, भागीरथी बाई के यहां गंगा के पावन तट उत्तर प्रदेश के वाराणसी में अद्भुत बालिका का जन्म हुआ, माता-पिता ने जिसे मणिकार्णिका नाम दिया।

लक्ष्मीबाई जब 4 वर्ष की थी तब इनकी माता भागीरथी बाई का आकस्मिक निधन हो गया। तब इनकी संपूर्ण जवाबदारी इनके पिता मोरेपंथ तांबे पर आ गई।

इनके पिता बाजीराव द्वितीय के दरबार में दरबारी थे। लक्ष्मीबाई बचपन से ही अपने पिता के साथ बाजीराव द्वितीय के दरबार में जाने लगी थी।

पिता तो राज कार्य में व्यस्त हो जाते थे, परंतु लक्ष्मीबाई अपने चंचल स्वभाव के कारण इधर-उधर दौड़ा करती थी। लक्ष्मीबाई की चंचलता को देखकर दरबारी उन्हें छबीली कहकर भी बुलाते थे।

महारानी लक्ष्मीबाई घुड़सवारी और तलवारबाजी में बहुत ही ज्यादा कुशाग्र थी। अतः इसी कारण से इन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में ही अपनी इस शिक्षा को अपने राज्य झांसी को बचाने में किया था।

क्योंकि उनके पति मराठा साम्राज्य के शासक थे, इस कारण यह मराठा साम्राज्य की महारानी कहलाई।

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लक्ष्मीबाई का विवाह और उनका संघर्ष

वर्ष 1842 में महारानी लक्ष्मी बाई का विवाह उत्तर भारत में स्थित राज्य झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलेकर से हुआ। जिस समय लक्ष्मीबाई का विवाह हुआ था, उस समय वह महज 14 वर्ष की थी।

लोगों का ऐसा कहना है कि रानी लक्ष्मीबाई का विवाह बहुत ही प्राचीन समय में स्थित एक गणेश मंदिर में हुआ था, जो कि झांसी में ही स्थित था।

1851 में उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम दामोदर रखा गया। परंतु उनके पुत्र मात्र 4 महीने तक ही जीवित रहा।

महाराजा गंगाधर राव नेवलकर के पुत्र की जब मृत्यु हुई थी, तो वह अपने पुत्र की इस असामयिक मृत्यु से बहुत ही दुखी रहने लगे थे और इस दुख से वे कभी उभर न सके। इसी दुख के कारण वह 1853 में बहुत ही बीमार रहने लगे।

लक्ष्मीबाई ने अपने पति की ऐसी हालत देख उन्हें इस दुख से उबरने के लिए अपने एक रिश्तेदार के पुत्र को गोद ले लिया।

इस पुत्र को गोद लेने के पश्चात उस पुत्र के उत्तराधिकारी पर ब्रिटिश सरकार को कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि इस गोद लेने की प्रक्रिया को ब्रिटिश अफसरों की उपस्थिति में पूर्ण किया गया था ताकि वह किसी भी प्रकार का आपत्ति न जता सके।

महारानी लक्ष्मीबाई और उनके पति के द्वारा इस पुत्र का नाम आनंद राव रखा गया। रानी लक्ष्मी बाई के दूसरे पुत्र आनंद राव के नाम को बदलकर के दामोदर राव रख दिया गया।

लक्ष्मीबाई के जीवन में उनके द्वारा किए गए संघर्ष

इनके पति गंगाधर राव नेवलकर झांसी के राजा थे। वे रघुनाथ हरि नेवलकर के वंशज और महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के थे।

गंगाधर राव योग्य शासक होने के साथ-साथ प्रजा प्रिय महाराज भी थे। परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। लक्ष्मी बाई और महाराज गंगाधर राव के यहां सन 1851 में एक बालक का जन्म हुआ।

बहुत ही व्यापक रूप से बालक के जन्म का उत्सव मनाया गया। परंतु उनका यह पुत्र 4 महीने के बाद ही दुनिया छोड़ कर चला गया।

पुत्र की मृत्यु के बाद गंगाधर राव बहुत ही उदास रहने लगे, इस कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। काफी उपचारों के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ।

उन्हें पेचिश नाम की एक लाइलाज व्याधि ने जकड़ रखा था। इसी लाइलाज बीमारी के कारण सन 1853 नवरात्रि के दिन उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और उनकी असमय मृत्यु हो गई।

वहीं से ही रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष प्रारंभ हुआ। गंगाधर राव की अंतिम इच्छा को देखते हुए उत्तराधिकारी भी नियुक्त कर दिया गया।

उन्हीं के वंशज वासुदेव नेवलकर के पुत्र आनंद राव को रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव ने गोद लेकर उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। तब उनका गोद लिया वह पुत्र महज 4 वर्ष का ही था।

इसके बाद राज्य की बागडोर रानी लक्ष्मीबाई ने अपने ही हाथों में संभाली। यही से रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष प्रारंभ हुआ।

उस समय अंग्रेजी अफसर लॉर्ड डलहौजी बहुत खुश हुआ था। खुश होने का मुख्य कारण था, वो कानून जो अंग्रेजों ने पारित किया था।

The Doctrine सन् 1848-1856 के जो रियासत उत्तराधिकारी विहीन हैं, उस रियासत की सत्ता सर्वोच्च सत्ता कंपनी ब्रिटिश साम्राज्य में मिल जाएगी, जिसे हड़प नीति का नाम दिया गया, जिसकी कमान अंग्रेजों के हाथों में होगी।

इस प्रकार का एक कानून पारित किया गया था। रानी लक्ष्मीबाई की समिति की ओर से तर्क दिया गया था कि दत्तक पुत्र ही झांसी का राजा रहेगा।

परंतु अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई समिति के तर्कों को निरस्त कर दिया। यहीं से ही लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के मध्य युद्ध छिड़ गया।

झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की कविता पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

महारानी लक्ष्मीबाई ने धारण किया झांसी का राज्यभार

21 नवंबर 1853 को महाराजा गंगाधर राव नेवलकर की मृत्यु हो गई। महाराजा गंगाधर नेवलेकर की मृत्यु के समय रानी लक्ष्मीबाई की उम्र 18 वर्ष थी।

महारानी लक्ष्मीबाई एक बहुत ही साहसी स्त्री थी, जिसके कारण वे अपनी पति की मृत्यु के बाद अपने धैर्य और साहस को नहीं खोया।

अपने पुत्र की बहुत ही कम उम्र होने के कारण अपने राज्य का सारा राज्यभार संभालने लगी। उनके पति की मृत्यु के बाद झांसी का सारा राज्य भार महारानी लक्ष्मी बाई पर आ गया।

उस समय वहां का गवर्नर लॉर्ड डलहौजी था। वहां के गवर्नर के द्वारा एक ऐसा नियम पारित किया गया था कि किसी भी शासन का उत्तराधिकारी तभी होगा, जब राजा का स्वयं का कोई पुत्र होगा।

यदि राजा का स्वयं का कोई पुत्र नहीं होता है तो उसका राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी को चला जाएगा और उस राज्य परिवार में स्थित सभी परिवार जनों को मासिक पेंशन दी जाएगी, जिससे कि वह अपने खर्चे को उठा सके।

लॉर्ड डलहौजी ने महाराजा गंगाधर नेवलकर की मृत्यु के पश्चात उसका फायदा उठाने की कोशिश की। उसने झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया।

लॉर्ड डलहौजी का कहना था कि महाराजा गंगाधर राव नेवलेकर और महारानी लक्ष्मीबाई की उनकी कोई भी अपनी संतान नहीं है और उन्होंने अपने इस पुत्र को गोद लिया है।

लॉर्ड डलहौजी ने रानी लक्ष्मीबाई के इस पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया।

लॉर्ड डलहौजी के ऐसा करने पर महारानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लंदन में एक मुकदमा दर्ज कर दिया।

महारानी लक्ष्मीबाई के इस मुकदमे को लंदन में खारिज कर दिया गया और उनके इस मुकदमे को खारिज करने के साथ-साथ यह आदेश भी दे दिया गया कि महारानी लक्ष्मी बाई झांसी के किले को खाली कर दें और स्वयं रानी महल में जाकर रहे, महारानी लक्ष्मीबाई को इसके लिए ₹60000 की पेंशन दी जाएगी।

इसी के विपरीत महारानी लक्ष्मीबाई ने अपनी झांसी को न देने का फैसला कर लिया और वह अपनी झांसी को सुरक्षित करने के लिए एक संगठन बनाना शुरू कर दिया, जिस संगठन के उपयोग से उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य वादियों को हराने का प्रयास किया।

महारानी लक्ष्मीबाई ने ठीक इसी प्रकार अपनी और ब्रिटिश राज्य के खिलाफ युद्ध का संदेश जारी कर दिया और ऐसे हुई थी ब्रिटिश राज्य और झांसी राज्य की लड़ाई।

महारानी लक्ष्मी बाई के द्वारा लड़ा गया झांसी का युद्ध

झांसी के उत्तराधिकारी को लेकर रानी लक्ष्मी बाई और अंग्रेजों में अनबन हो गई। लक्ष्मीबाई किसी भी हालत में अंग्रेजों के समक्ष घुटने टेकने को तैयार नहीं थी।

इसी बात को लेकर सन 1857 में अंग्रेजों और रानी के मध्य युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में रानी ने अंग्रेजों को दहला दिया।

अंग्रेजों का सामना करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने खुद का एक सेना का गठन किया था। इस सेना में उन्होंने महिलाओं की भी भर्ती की थी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण भी दिया था।

इस संघर्ष में अंग्रेजों के हड़प नीति के हुए शिकार राजा जैसे अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, बेगम हजरत महल, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, तात्या टोपे, कानपुर के राजा मर्दन सिंह ने भी महारानी का साथ दिया था।

सेना में लक्ष्मी बाई की हमशक्ल झलकारी बाई प्रमुख स्थान पर थी। झांसी की आम जनता ने भी रानी लक्ष्मीबाई के इस संग्राम में साथ दिया था।

सन 1858 सितंबर और अक्टूबर के महीने में पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया, जो अंग्रेजों की एक रणनीति थी।

रानी ने अंग्रेजों के इस मंसूबे को विफल कर दिया। अंग्रेजों ने झांसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया तथा झांसी शहर को घेर लिया।

रानी लक्ष्मीबाई अपने नवजात पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बचकर सुरक्षित जगह पर निकल गई।

रानी ने तात्या टोपे से इसके लिए सहायता मांगी। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के एक विद्रोही सैनिक की मदद से ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।

इस युद्ध में बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया।

18 जून 1858 में ग्वालियर के पास कोटा की सराय में अंग्रेज और रानी बाई के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ा। इस युद्ध में रानी ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया।

रानी लक्ष्मीबाई ने इस युद्ध में पुरुषों के पोशाक धारण किए थे और पुरुषों के पोशाक को धारण करने के साथ ही उतना ही विरता से उन्होंने इस युद्ध को लड़ा भी था।

हालांकि इस युद्ध में हार का सबसे बड़ा कारण था उनका घोड़ा। दरअसल इस युद्ध में वह अपना घोडा “राजरतन” पर सवार नहीं थी वह एक नए घोड़े पर सवार थी, जो नहर के उस पार जाने में सक्षम नहीं था।

रानी लक्ष्मीबाई इस स्थिति को समझ गई थी, जिसके कारण वह वहीं पर विरता के साथ युद्ध में लड़ती रही और यही कारण था कि वह युद्ध में काफी ज्यादा घायल हो गई थी।

अंग्रेज रानी की वीरता देखकर आवक रह गए। अंत में रानी को अंग्रेजी सेनाओं ने आसपास से घेर लिया।

इस तरह महारानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते 17-18th जून 1858 को 29 वर्ष की उम्र में ही वीरगति को प्राप्त हो गई।

झांसी की रानी की मृत्यु के 3 दिन के बाद अंग्रेजों ने ग्वालियर शहर को पूरी तरीके से हथिया लिया था और झांसी की रानी के पिता मोरोपंत तांबे को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था।

झांसी की रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को कभी भी झांसी का उत्तराधिकारी नहीं बनाया गया।

हालांकि ब्रिटिश सरकार के द्वारा उन्हें पेंशन मिलता रहा। 28 मई 1906 को 58 वर्ष में उनकी भी मृत्यु हो गई।

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रानी लक्ष्मीबाई का उल्लेखनीय योगदान

गंगा की बेटी झांसी की रानी ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। स्वतंत्रता के लिए उन्होंने एक नई दिशा दिखलाई।

महिलाओं को युद्ध कला मैं प्रशिक्षण देकर उन्हें दक्ष कराया। सामाजिक क्षेत्र में रानी लक्ष्मीबाई को इस सशक्त भूमिका के लिए आज भी याद किया जाता है।

रानी लक्ष्मी बाई की शासन प्रणाली

रानी ने जब झांसी की कमान अपने हाथों में संभाली, उस समय मानसिक रूप से बहुत टूटी हुई थी।

एकमात्र नवजात पुत्र की मृत्यु, इसके बाद पति की असमय मृत्यु, परंतु रानी ने हिम्मत नही हारी और शासन की भागदौड़ अपने हाथ में संभाल कर राज्य की शासन व्यवस्था को मजबूत किया।

सेना को और ज्यादा प्रशिक्षित करवाया। महिलाओं को सेना में भर्ती किया, बाजार व्यवस्था को व्यवस्थित करवाया, धर्म पूर्वक सभी के साथ समान न्याय किया।

महारानी लक्ष्मी बाई की कुछ रोचक विशेषताएं

महारानी लक्ष्मीबाई अपने राज्य के सभी लोगों के लिए बहुत ही ज्यादा उदार एवं बहादुर महिला थी।

इतना ही नहीं महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य के लोगों के लिए अनेकों ऐसे काम किए, जिनके द्वारा राज्य के लोग खुश हुए और महारानी लक्ष्मी बाई के साथ उनके युद्ध में भी उनका साथ दिया।

तो आइए जानते हैं, रानी लक्ष्मीबाई की विशेषताएं:

  • रानी लक्ष्मीबाई स्वभाव से बहुत ही दयालु थी। एक दिन जब वह अपने कुलदेवी महालक्ष्मी मंदिर से पूजा करके लौट रही थी, उस वक्त कुछ गरीब महिलाओं ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर रानी लक्ष्मीबाई का दिल पिघल गया और उन्होंने पूरे नगर में घोषणा करवाई की एक निश्चित दिन नगर के गरीबों में वस्त्र आदि का वितरण किया जाए।
  • महारानी लक्ष्मी बाई भले ही राज्य की महारानी थी, परंतु उन्हें राज्य के सभी लोगों के साथ मिलजुल कर रहना बहुत ही अच्छा लगता था।
  • महारानी लक्ष्मी बाई अपनी युद्ध कला को हमेशा तैयार करती थी और प्रतिदिन यह निश्चित रूप से योगाभ्यास भी किया करती थी।
  • महारानी लक्ष्मी बाई को जानवरों की काफी अच्छी परख थी और जानवरों में भी इन्हे सबसे ज्यादा अच्छी परख घोड़े की थी। घोड़ा कितना भी ज्यादा गुस्सैल क्यों न हो, महारानी लक्ष्मीबाई उसे काबू कर ही लेती थी।
  • महारानी लक्ष्मी बाई अनुशासन से बहुत ही ज्यादा प्यार करती थी और इसीलिए वह हमेशा गुनाहगारों को उचित दंड देती थी और ना माफ किए जाने वाले गुनाहों के गुनाहगारों को यह फांसी की सजा सुना देती थी।
  • महारानी लक्ष्मी बाई हमेशा अपने प्रजा को और प्रजा की सारी तकलीफों को अपना समझती थी और इसीलिए वह समय-समय पर प्रजा के बीच में जाकर उनका हालचाल लेती थी।

लक्ष्मी बाई के बारे में रोचक तथ्य

  • रानी लक्ष्मी बाई के पास 4 फुट लंबी एक तलवार थी, जिससे कई अंग्रेजी सैनिकों के सर कलम किए।
  • रानी लक्ष्मी बाई के पास तीन घोड़े थे, जिनके नाम पवन, बादल और सारंगी थे, जो रानी के इशारे मात्र पर ही चलते थे।
  • रानी नानासाहेब की मुंह बोली बहन थी।
  • रानी कराडे ब्राह्मण थी।
  • रानी की एक सहेली मेना जो वाराणसी से रानी के साथ ही आई थी और अंत समय तक रानी के साथ ही वीरगति को प्राप्त हुई।
  • झांसी की रानी के पिता का नाम मोरोपंत तांबे था और उनकी माता का नाम भागीरथी सप्रे था। उनके पिता बिठूर जिले के पेशवा बाजीराव द्वितीय के लिए काम किया करते थे। जब वह चार वर्ष की थी तभी उनके माता का देहांत हो गया था।
  • झांसी की रानी बचपन में काफी चंचल थी, इसीलिए बचपन में उन्हें छबीली कहकर बुलाते थे।
  • झांसी की रानी जब युद्ध में पूरी तरह घायल हो गई थी तब अंग्रेज उनके पवित्र शरीर पर कब्ज़ा ना कर सके, इसलिए उन्होंने एक संयासी को अपना शरीर जलाने के लिए कहा था।
  • झांसी की रानी का असल नाम मणिकर्णिका था और उनका यह नाम वाराणसी की घाट मणिकर्णिका पर रखा गया था। कहा जाता है इसी घाट पर मां सती के कान के कुंडल गिरे थे।
  • रानी लक्ष्मीबाई की इष्ट देवी माता भवानी हैं।

लक्ष्मीबाई के नाम पर शिक्षण संस्था

  • रानी लक्ष्मीबाई नेशनल इंस्टीट्यूट आँफ फिजिकल एजुकेशन विश्वविद्यालय ग्वालियर।
  • रानी लक्ष्मीबाई महिला महा-विद्यालय नागपुर महाराष्ट्र।
  • रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय जो देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय है, जिसे भारत सरकार द्वारा संसद के अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय महत्व के संस्था के रूप में वर्ष 2014 में झांसी में स्थापित किया गया है।

रानी लक्ष्मीबाई जयंती

प्रतिवर्ष 19 नवंबर को महारानी लक्ष्मी बाई जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन रानी की शहादत को याद किया जाता है।

रानी लक्ष्मीबाई पुरस्कार

भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा प्रदान किए जाने वाला यह पुरस्कार उन महिला और बालिकाओं को दिया जाता है, जो अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए समाज में एक आदर्श स्थापित करती है।

लक्ष्मीबाई का स्मारक

मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर के पड़ाव क्षेत्र में जहां रानी वीरगति को प्राप्त हुई थी, वहां उनकी याद में स्मारक बनाया गया है।

लक्ष्मी बाई के जीवन पर फिल्म टीवी/सीरियल

  • रानी के जीवन पर सर्वप्रथम “झांसी की रानी” फिल्म बनी। 1953 में जिसमें महताब ने रानी का कैरेक्टर प्ले किया था।
  • एक वीर स्त्री की कहानी: झांसी की रानी। इसमें उल्फा गुप्ता ने रानी का किरदार निभाया, जो 2009 में ज़ी टीवी पर प्रसारित।
  • मणिकार्णिका दा क्वीन ऑफ झांसी 2020 मूवी रिलीज हुई। इस फिल्म में कंगना रनौत ने रानी का कैरेक्टर निभाया।

रानी के जीवन पर किताब

  • झांसी की रानी लक्ष्मीबाई: लेखक, डॉक्टर भवानी सिंह राणा।
  • 1857 की क्रांतिकारी ललकारी बाई: लेखक, महास्वेता देवी।
  • रानी ऑफ़ झांसी: लेखक, प्रिंस माइकल।

रानी ऑफ़ झांसी पर विवाद

प्रिंस माइकल की पुस्तक रानी ऑफ़ झांसी में रानी के बारे में आपत्तिजनक लिखा गया था, जिसमें रानी के प्रेम प्रसंग के बारे में बताया गया, जिसको लेकर काफी विवाद भी हुआ।

अधिकारिक तौर पर रानी के जीवन पर लिखी गई इस पुस्तक को सिरे से नकार दिया गया। क्योंकि ये रानी की छवि को खराब करने का एक षड्यंत्र था।

रानी लक्ष्मी बाई के जीवन का निष्कर्ष

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन संघर्ष रहा बचपन से ही माँ का साया उठ गया था। जल्दी ही पुत्र और पति ने भी दुनिया से अलविदा कह दिया।

मातृभूमि को बचाने के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया और अंत में मातृभूमि की रक्षा करते करते 29 वर्ष की छोटी उम्र में वीरगति को प्राप्त हो गई।

मालवा अंचल और बुंदेलखंड में आज भी रानी की वीरता का गुणगान किया जाता है।

FAQ

महारानी लक्ष्मीबाई कौन थी?

महारानी लक्ष्मी बाई मराठा साम्राज्य की महारानी थी।

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म कब और कहां हुआ?

महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में काशी (वर्तमान में वाराणसी) में हुआ था।

महारानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम क्या था?

महारानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे था।

महारानी लक्ष्मी बाई के पति का नाम क्या था?

महारानी लक्ष्मी बाई के पति का नाम राजा गंगाधर राव नेवलकर था।

महारानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु कब हुई थी?

महारानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु 18 जून 1858 में हुईं थी।

कितने वर्ष की उम्र में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई?

29 वर्ष की उम्र में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई।

निष्कर्ष

यहाँ पर झांसी की रानी का जीवन परिचय (Rani Lakshmi Bai ka Jivan Parichay) विस्तारपूर्वक बताया है।

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राहुल सिंह तंवर पिछले 7 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे हैं। इनको SEO और ब्लॉगिंग का अच्छा अनुभव है। इन्होने एंटरटेनमेंट, जीवनी, शिक्षा, टुटोरिअल, टेक्नोलॉजी, ऑनलाइन अर्निंग, ट्रेवलिंग, निबंध, करेंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान जैसे विविध विषयों पर कई बेहतरीन लेख लिखे हैं। इनके लेख बेहतरीन गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं।

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