Mahavir Swami Biography in Hindi: आज के इस लेख के माध्यम से हम आपको भारत के एक ऐसे तीर्थंकर के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनका नाम आज के समय में अनेक तीर्थंकरों में से एक है। जी हां, आपने सही समझा आज के इस लेख में हम आपको संत महावीर स्वामी के जीवन परिचय (Mahaveer Swami ka Jivan Parichay) के बारे में जानकारी आप कराने वाले हैं।
लोगों का मानना है कि संत महावीर स्वामी बहुत ही अनुकरणीय और माता पिता की सेवा करने वाले व्यक्ति थे। महावीर स्वामी ने लोगों को सत्य के मार्ग पर चलने का आदेश दिया और महावीर स्वामी कि इस कार्य में महावीर स्वामी को संपूर्ण विश्व में विख्यात कर दिया।
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्वज वाहक है, जिनके जन्म के ढाई हजार साल बाद भी लाखों अनुयाई पूरी दुनिया में अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं। महावीर स्वामी का जन्म धर्म के 24वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के 298 वर्ष के बाद हुआ।
उस समय समाज में हिंसा, पशुबली, जाती पाती जैसे भेदभाव और अंधविश्वास व्याप्त था, जिसे महावीर स्वामी ने कठोर तप से ज्ञान की प्राप्ति कर के उपदेश देकर खत्म करने की कोशिश की। यदि आप महावीर स्वामी के बारे में संपूर्ण जानकारी (Mahavir Swami Jivani in Hindi) प्राप्त करना चाहते हैं तो कृपया इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
महावीर स्वामी का जीवन परिचय (जन्म, शिक्षा, उपदेश, माता-पिता, जयंती, धर्म) | Mahavir Swami Biography in Hindi
महावीर स्वामी की जीवनी एक नज़र में
नाम | महावीर स्वामी |
अन्य नाम | वर्धमान |
महावीर स्वामी के पिता का नाम | राजा सिद्धार्थ |
महावीर स्वामी की माता का नाम | त्रिशला |
जन्म तारीख | 599 वर्ष पूर्व चेत्र शुक्ल की तेरस |
जन्म स्थान | – |
महावीर स्वामी की पत्नी का नाम | यशोधरा |
उम्र | – |
पता | – |
स्कूल | – |
कॉलेज | – |
शिक्षा | मूल मंत्र |
मृत्यु | ईसा मसीह के जन्म के 527 वर्ष पूर्व |
भाषा | – |
नागरिकता | – |
धर्म | हिन्दू |
जाति | क्षत्रिय परिवार |
महावीर स्वामी कौन थे? (Mahaveer Swami Kaun The)
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का अर्थ यह है कि जैन धर्म के अनुसार जैन धर्म के विद्वान महात्माओं को तीर्थंकर कहा जाता था। महावीर स्वामी से पहले सर्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और 23वें तीर्थंकर महावीर पार्श्वनाथ थे। लोगों का ऐसा मानना है कि महावीर स्वामी जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे परंतु ऐसा नहीं है। महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे।
महावीर स्वामी लगभग 30 वर्ष की उम्र में संपूर्ण विश्व के कोने कोने में प्रसिद्ध हो गए और महावीर स्वामी ने अपने राज वैभव को त्याग दिया और तत्पश्चात उन्होंने सन्यास धारण कर लिया और लोक कल्याण के लिए निकल गए। महावीर स्वामी ने लगभग साडे 12 वर्ष तक कठिन तपस्या की और उसके बाद महावीर स्वामी को यथार्थ सच्चे ज्ञान प्राप्त हो गए।
लोगों का ऐसा कहना है कि जिस दिन महावीर स्वामी ने अपने इस कठोर ध्यान से उठे थे, वह दिन धरती माता के लिए बहुत ही सुहाना रहा होगा। क्योंकि अब वह समय आ गया था जब महावीर स्वामी संपूर्ण विश्व को बदलने वाले थे। अपने ऐसी कठिन तपस्या के चलते महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर हुए।
महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार करने के लिए लगभग 30 वर्षों तक दक्षिण एशिया के देशों में घुमा और अपने जैन धर्म का प्रसार प्रचार किया। महावीर स्वामी लोगों को बताया करते थे कि ईश्वर ने हमें इस धरती पर किस लिए भेजा है? और भी अन्य बातें।
महावीर स्वामी का जन्म और उनसे संबंधित कहानी
महावीर स्वामी का जन्म एक बहुत ही प्रसिद्ध राज्य क्षत्रिय परिवार में हुआ था। महावीर स्वामी का जन्म ईसा मसीह के जन्म से लगभग 599 वर्ष पूर्व चेत्र शुक्ल की तेरस को हुआ था। महावीर स्वामी के पिता का नाम राजा सिद्धार्थ और इनकी माता का नाम त्रिशला था।
प्रसिद्ध राजा सिद्धार्थ के बारे में भी एक कहानी प्रसिद्ध है। महावीर स्वामी के जन्म दिवस के उपलक्ष में वर्तमान समय में संपूर्ण भारतवर्ष में महावीर जयंती के नाम से एक पर्व मनाया जाता है। उनका जन्म स्थान कुंड ग्राम था, जो कि वर्तमान समय में बिहार राज्य में स्थित है।
महावीर स्वामी को बचपन में वर्धमान नाम से पुकारा जाता था, वास्तव में महावीर स्वामी का बचपन का नाम वर्धमान था। चुकी महावीर स्वामी बचपन से ही बहुत ही वीर स्वभाव के थे, इसीलिए वर्धमान स्वामी का एक अन्य नाम महावीर पड़ा और अब के समय में इनका नाम महावीर स्वामी से विश्व विख्यात है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं महावीर स्वामी राजस्व परिवार से संबंध रखते थे, जिससे उनका रहन-सहन बहुत ही उच्च कोटि का था। महावीर स्वामी का रहन-सहन उच्च कोटि का होने के कारण उन्हें किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन लोगों का ऐसा मानना है कि महावीर स्वामी का जन्म वास्तव में संपूर्ण विश्व को ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करने के लिए हुआ था।
महावीर स्वामी का विवाह
महावीर स्वामी एक राज परिवार से संबंध रखते थे। ऐसे में राजसी वैभव होने के बावजूद भी महावीर जी का मन राज पाठ में बिल्कुल भी नहीं लगता था। महावीर स्वामी को भक्ति और सच्चे ज्ञान के आगे ऊंचे-ऊंचे महल और शानोशौकत बहुत ही फीकी नजर आती थी।
एक बार राजा सिद्धार्थ को उनके पुत्र के विवाह के लिए राजकुमारी यशोधरा का विवाह प्रस्ताव आया। राजकुमारी यशोधरा से विवाह करने के लिए राजा सिद्धार्थ ने महावीर स्वामी के समक्ष प्रस्ताव रखा, वास्तव में तो महावीर स्वामी इस विवाह को करने के लिए तैयार नहीं थे।
अपितु पिता की आज्ञा के कारण वर्ष महावीर स्वामी को राजकुमारी यशोधरा से विवाह करना हुआ। इस प्रकार महावीर स्वामी की पत्नी राजकुमारी यशोधरा बनी। विवाह के बाद महावीर स्वामी और राजकुमारी यशोधरा को एक बहुत ही सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई।
श्वेतांबर समुदाय के लोगों की ऐसी मान्यता है कि महावीर स्वामी का विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ था और इसी के विपरीत दिगंबर संप्रदाय की यह मान्यता है कि महावीर स्वामी का विवाह नहीं हुआ था, वह बचपन से ही ब्रह्मचारी थे। महावीर स्वामी लगभग 30 वर्ष की उम्र में अपनी राजस्व वैभव और सारी सुख संपन्नताओं को छोड़कर के सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए खोज में निकल पड़े।
महावीर स्वामी ने अपनी माता-पिता, पत्नी, पुत्री और राज महल इत्यादि को त्याग करके सच्चे ज्ञान की प्राप्ति की खोज में निकल पड़े। अब ऐसे में महावीर स्वामी जंगल में एक अशोक के वृक्ष के नीचे बैठकर के ध्यान लगाने लगे और लगभग साडे 12 वर्षों की कठिन तपस्या करने के बाद उन्हें यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हुई।
महावीर स्वामी की शिक्षा
महावीर स्वामी ने लोगों को जीवन व्यतीत करने का मूल मंत्र दिया, उन्होंने नीचे दर्शाई गई निम्नलिखित शिक्षाओं को प्राप्त किया।
सत्य:- महावीर स्वामी ने लोगों के समक्ष अपनी सत्य विचारधारा की प्रस्तावना रखी, उनकी शिक्षा में सत्य की शिक्षा सर्वोपरी है। महावीर स्वामी का यह मानना है कि सत्य सभी बलों में सबसे बलवान होता है और यह वास्तव में सत्य है। प्रत्येक व्यक्ति को सदैव सत्य बोलना चाहिए, वह चाहे किसी भी परिस्थिति में हो।
ब्रह्मचर्य:- ब्रम्हचर्य एक बहुत ही कठोर तपस्या है, महावीर स्वामी ने ब्रह्मचर्य की तपस्या को बड़ी ही कुशलता के साथ पूर्ण किया और उन्होंने प्रत्येक को यह आदेश दिया कि जो भी व्यक्ति ब्रम्हचर्य का पालन करता है, वह सदैव मोक्ष को प्राप्त होता है।
अस्तेय:- महावीर स्वामी ने सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा अस्तेय को भी प्राप्त कर लिया है। अस्तेय का अर्थ होता है कि किसी भी व्यक्ति के पास जो भी वस्तु है, उसी में संतुष्ट रहना। महावीर स्वामी का कहना था कि दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा रखना या उन्हें चुराना सबसे बड़ा पाप है।
अपरिग्रह:- महावीर स्वामी ने अपरिग्रह शिक्षा को प्राप्त करके मोक्ष की प्राप्ति कर ली। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि यह ब्रह्मांड नश्वर है तो ऐसे में किसी भी व्यक्ति को किसी भी चीज के लिए मोह नहीं करना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को किसी चीज के प्रति मोह उत्पन्न हो जाता है तो वह उसके दुख का कारण बन जाता है।
अहिंसा:- महावीर स्वामी जी महात्मा गांधी की तरह अहिंसा में विश्वास रखते थे तथा उन्होंने इसकी यथार्थ शिक्षा भी प्राप्त की थी। किसी भी व्यक्ति को दूसरों के प्रति सुनता की भावना नहीं रखनी चाहिए। जितना प्रेम हम स्वयं से करते हैं, हमें उतना ही प्रेम दूसरों से भी करना चाहिए और इन सभी का अर्थ है कि हमें अहिंसा का पालन करना चाहिए।
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महावीर स्वामी का गृह त्याग
महावीर स्वामी ने लगभग 30 वर्ष की उम्र में अपने गृहस्थ जीवन का त्याग कर दिया। महावीर स्वामी को सांसारिक से छुटकारा पा करके बहुत शांति मिली। इसके पश्चात उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई तब उन्होंने अपने बड़े भाई नंदी वर्धन जी से आज्ञा लेकर के संयासी बन गए। तत्पश्चात महावीर स्वामी ने लगभग 12 वर्ष तक की कठोर तपस्या के उपरांत यथार्थ सत्य की प्राप्ति कर ली।
इस अवधि में महावीर स्वामी को अनेकों प्रकार के कष्ट को सहन करना पड़ा। महावीर स्वामी दिगंबर साधुओं की तरह अंगीकार किया और निर्वस्त्र रहे। इसी के विपरीत महावीर स्वामी कुछ वर्षों तक श्वेतांबर समुदाय जो कि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, को भी नहीं निभाया। इसके बाद महावीर स्वामी सदैव के लिए निर्वस्त्र रहे और उन्होंने अपने इस यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति भी दिगंबर अवस्था में ही की।
अपने संपूर्ण शासनकाल को त्याग करने के पश्चात महावीर स्वामी जब कठिन तपस्वी बन गए तब वे मौन रहने लगे। इसके उपरांत सबवे ध्यान मुद्रा करके इधर-उधर घूमते थे तब लोग उन्हें डंडों से पीटा करते थे, इसके उपरांत भी महावीर स्वामी ने पूर्ण रूप से मौन और शांति पूर्वक रहते थे। महावीर स्वामी अपने चोटों पर किसी भी प्रकार की औषधि का उपयोग नहीं करते थे।
महावीर स्वामी के द्वारा किया गया धर्म प्रचार
महावीर स्वामी अपने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात अपने ज्ञान और अनुभव के दम पर लगभग 30 वर्षों तक की आयु धर्म के प्रचार प्रसार में ही गवा दी। महावीर स्वामी जी के अपने इस धर्म के प्रचार में अनेकों प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, इसके बाद भी महावीर स्वामी जी ने अपनी सच्ची निष्ठा को नहीं छोड़ा।
महावीर स्वामी का दुष्ट असभ्य और रूढ़िवादी लोग उनका विरोध करते थे। इनके विरोध के पश्चात भी महावीर स्वामी इनका सामना अपने उच्च चरित्र और मीठी वाणी के दम पर करते थे और उनका दिल जीत लेते थे। इन रूढ़ीवादियों के विपरीत जनसाधारण लोग महावीर स्वामी से अत्यधिक प्रभावित होते थे।
महावीर स्वामी ने काशी, अंग, वशी, मिथिला, कौशल, मगध इत्यादि प्रदेशों में पैदल ही घूम कर के अपने ज्ञान और धर्म का प्रचार किया। महावीर स्वामी जैन साहित्य के प्रथम ऐसे तीर्थंकर थे, जिन्होंने पैदल ही अनेकों राज्यों में अपना प्रचार प्रसार किया था। महावीर स्वामी जैन साहित्य के अनुसार बिंबिसार तथा उनके पुत्र अजातशत्रु के अनुयाई थे।
लोगों का ऐसा मानना है कि उनकी पुत्री चंदना तो महावीर स्वामी की प्रथम भिक्षुणी (भिक्षा देने वाली) थी। केवल इतना ही नहीं महावीर स्वामी अपने यथार्थ ज्ञान और मीठी वाणी के चलते हजारों लोगों के अनुयाई बनने लगे, इन हजारों लोगों में राजा, महाराजा, व्यवसाय, व्यापारी तथा अधिक से अधिक जनसाधारण लोग शामिल थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया महावीर स्वामी के अनुयाई वैसे वैसे ही बढ़ते चले गए।
महावीर स्वामी के उपदेश
महावीर स्वामी ने अपना उपदेश प्राकृतिक भाषा जिसे अर्धमगधी कहते है में दिया था। महावीर स्वामी ने यज्ञ के नाम पर होने वाले पशु पक्षियों और नर की बलि का पूर्ण रूप से विरोध किया। इन्होंने अहिंसा, तप, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, अनेकान्त, अपरिग्रह, आत्मवाद, संयम इत्यादि का संदेश दिया।
इन्होंने उस समय समाज में व्याप्त जाती पाती और लिंग भेद को मिटाने के लिए लोगों को संदेश दिया। साथ ही अपने अपने धर्म के लोगों को अपने धर्म के पालन का अधिकार बताया। महावीर स्वामी ने जियो और जीने दो के सिद्धांत पर जोर देते हुए समाज में व्याप्त सभी कुप्रथाओ का विरोध किया।
महावीर स्वामी अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे, जो अपने जीवन में किसी को भी दुख नहीं देना चाहते थे और यही शिक्षा हर किसी को देते थे। महावीर स्वामी के शिक्षा ने तत्कालीन राजवंशों पर काफी प्रभाव डाला कई राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया, जिनमें कुछ प्रमुख थे चंद्रगुप्त मौर्य, बिंबिसार, कलिंग नरेश खारवेल, राष्ट्रकूट अमोघवर्षा, चंदेल शासक, उदयिध इत्यादि।
यह सभी शासक जैन धर्म के अनुयायी बने। इतना ही नहीं इनमें से कई राजाओं ने जैन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए कई मंदिरों का निर्माण भी किया, जिनमें से चंदेल शासकों द्वारा खजुराहो में जैन मंदिर, मौर्य युग में मथुरा का जैन मंदिर इत्यादि प्रसिद्ध है।
जैन धर्म के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का सिद्धांत
जैन धर्म के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का सिद्धांत यह है कि कर्म फल का नाम ही मोक्ष प्राप्ति है अर्थात किसी भी व्यक्ति को केवल कर्म करना चाहिए और यदि उस व्यक्ति के कर्म अच्छे होंगे तो उसे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी।
महावीर स्वामी का उद्देश्य
महावीर स्वामी को संत बनने का मुख्य उद्देश्य यह था कि वे लोगों को यथार्थ सत्य की शक्ति से अवगत करा सकें और जनसाधारण को मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग बता सके।
महावीर स्वामी ने लगभग 12 वर्ष की कड़ी मेहनत और तपस्या के कारण लोगों के समक्ष यह सिद्ध किया कि यदि कोई भी व्यक्ति अपने कर्मों को बड़ी ही निष्ठा एवं कर्तव्य की भावना से करता है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करने हेतु अहिंसा सत्य के मार्ग पर चलने वाला इत्यादि का पालन करना चाहिए।
महावीर स्वामी के अंतिम पल
महावीर स्वामी के द्वारा लगभग 30 वर्षों तक आपने उपदेशों का प्रचार प्रसार करने के पश्चात लगभग ईसा मसीह के जन्म के 527 वर्ष पूर्व ही संत महात्मा महावीर स्वामी की मृत्यु हो गई। महावीर स्वामी की मृत्यु पटना जिले के निकट पावा नामक स्थान पर हुआ था। जिस समय महावीर स्वामी की मृत्यु हुई लगभग वे 72 वर्ष के थे।
महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद भी उनका यह धर्म प्रसार बड़ी ही सफलतापूर्वक वृद्धि करता रहा और वर्तमान समय में भी यह विद्यमान है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि महावीर स्वामी के जन्म दिवस के उपलक्ष में महावीर जयंती का पर्व मनाया जाता है, ठीक उसी प्रकार उनकी मृत्यु के संबंध में भी मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में एक पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है।
महावीर जयंती
हर साल चेत्र महा के 13वे दिन अर्थात हिंदू कैलेंडर के अनुसार मार्च या अप्रैल के महीने में भगवान महावीर स्वामी के जन्म उत्सव को जैन समाज द्वारा बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। भगवान महावीर जयंती को जन कल्याणक नाम से भी जाना जाता है।
इस दिन जैन धर्म के दिगंबर और श्वेतांबर दोनों संप्रदाय एक साथ मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं। यहां तक कि भारत में इस दिन सरकारी छुट्टी भी घोषित की जाती हैv
महावीर स्वामी और जैन धर्म से संबंधित कुछ तथ्य
- महावीर स्वामी ने अपने सभी इंद्रियों पर विजय प्राप्त किया था, इसी कारण इन्हें जितेंद्रिय कहा जाता था।
- 12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद महावीर स्वामी को ऋजुबालिका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
- जैन धर्म दो संप्रदायों में बंटा हुआ है श्वेतांबर और दिगंबर। यह संप्रदाय भगवान महावीर की मृत्यु के 200 साल के बाद दो भागों में बंटा। दरअसल जब मगध में 300 ईशा पुर्व 12 वर्षों का भिषण अकाल पड़ा था तब भद्रबाहु अपने शिष्यों के साथ कर्नाटक चले गए थे। लेकिन उनके कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में हीं रुके हुए थे। जब भद्रबाहु वापस लोट कर मगध आए तो यहां के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया। इसी कारण जैन श्वेतांबर और दिगंबर नामक दो संप्रदायों में बंट गया।
- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण जैन धर्म के त्रिरत्न है।
- महावीर के अनुयायियों को निग्रंथ कहा जाता था, उनके दामाद जामील जो महावीर की पुत्री प्रियदर्शनी के पति थे, वे महावीर के प्रथम अनुयायी बने थे।
- महावीर स्वामी को 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी में कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई। इनकी मृत्यु के दिन घर घर दिया जलाकर दीपावली की तरह मनाया जाता है।
- महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों को 11 गंधर्व में विभाजित किया था। उन गंधर्व में आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गंधर्व था, जो महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद भी जीवित रहे औश्र जैन धर्म का प्रथम मुख्य उपदेशक बने।
- जैन धर्म के श्वेतांबर संप्रदाय जो स्थूलभद्र के शिष्य थे, वे श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, वहीँ भद्रबाहु के शिष्य जो दिगंबर कहलाए ये नग्न रहते हैं।
जैन धर्म के सिद्धांत
जैन धर्म के उपदेश और सिद्धांत केवल धर्म समाज का सुधार करना है। जैन धर्म के जितने भी तिर्थकर हुए उनका भी उद्देश्य धर्म और समाज का सुधार करना ही था। जैन धर्म के 2 सिद्धांत है विधानात्मक सिद्धांत और निषेधात्मक सिद्धांत है।
विधानात्मक सिद्धांत
त्रि-रत्न
त्रिरत्न महावीर स्वामी द्वारा लोगों को दिया गया पहला उद्देश्य है, जो तीन उपदेशों का संग्रह है और इन्हीं उपदेशों पर चलकर मानव मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। त्रि-रत्न सत्य विश्वास, सत्य ज्ञान और सत्य कार्य है। इन उपदेशों को जैन धर्म में त्रि-रतन कहा जाता है।
इन उपदेशों के माध्यम से महावीर स्वामी ने लोगों को बेकार के आडंबर और धार्मिक विषयों पर समय नष्ट ना करते हुए सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का पालन करने का उपदेश दिया है।
कर्म सिद्धांत
जैन धर्म में कर्म सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। महात्मा बुद्ध ने भी कर्म सिद्धांत का उपदेश दिया था। महावीर स्वामी भी कर्म सिद्धांत को मानते थे। इसीलिए उन्होंने कहा था कि अच्छे और बुरे कर्म के अनुसार ही मानव को मृत्यु के पश्चात उसके नए जीवन का निर्धारण होता है।
यदि व्यक्ति अच्छा कर्म करेगा दूसरों का भला करेगा तो अगले जन्म में निश्चित ही वह मानव योनि में जन्म लेगा। यदि वह पाप के रास्ते पर मानव चल जाता है तो उसका जन्म भी जीव जंतुओं की योनि में ही होगा।
पुनर्जन्म का सिद्धांत
जैन धर्म के अनुसार कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत साथ साथ चलता है। क्योंकि व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार ही बार बार जन्म लेता है। कोई भी मानव अपने कर्मों का फल जरूर पाता है और उस कर्म का फल उसे अगले जन्म में मिलता है।
अहिंसा में विश्वास
अहिंसा में विश्वास करने के लिए न केवल जैन धर्म बल्कि बौद्ध धर्म में भी कहा गया है। यह जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत है। इस उपदेश के जरिए जीव हत्या का विरोध किया गया है। वैसे महात्मा बुध्द ने केवल मनुष्य और पशु हत्या की मनाई की थी परंतु महावीर स्वामी ने वृक्ष, पौधे जैसे जडधारी वस्तुओं को भी कष्ट देने को मना किया है।
क्योंकि वह भी जीव है। अहिंसा को अपनाकर ही व्यक्ति सुखी रह सकता है, जो दूसरों को कष्ट देता है वह पाप का भागी होता है। वैसे अहिंसा का उपदेश लगभग सभी धर्मों में दिया गया है। लगभग दुनिया की सभी धर्म हिंसा का विरोध करती है।
कठोर तप
कहते हैं ना आग में तप कर ही कोई व्यक्ति स्वर्ण बन सकता है। इसलिए कठोर तप जैन धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है। जैन धर्म की मान्यता है कि मनुष्य जितना ज्यादा कठोर तप करेगा उतना ही स्वर्ण की भांति निर्मल रहेगा। जैन धर्म शरीर के कष्ट पर जोर देती है।
क्योंकि उनके अनुसार जीवन का दो पक्ष है पहला भौतिक, दूसरा आध्यात्मिक। भौतिक जो नष्ट हो सकता है परंतु आध्यात्मिक अमर रहता है और मानव शरीर भौतिक है, जो नष्ट हो जाता है। इसीलिए कठोर तप करके शरीर को कष्ट देने का प्रयास करने के लिए जैन धर्म में कहा गया है।
नारियों की स्वतंत्रता
जैन धर्म में नारियों को स्वतंत्रता दी गई है। जैन धर्म के अनुसार नारियों को भी पुरुषों के समान ही संघ के द्वार खोल देने चाहिए। क्योंकि पुरुषों की भांती नारी भी निर्माण की अधिकारी होती हैं।
अठारह पाप
जैन धर्म के अनुसार 18 प्रकार के प्रमुख पाप है, जिनमें से हिंसा, क्रोध, मोह, लोभ, कलह,चोरी, चुगली और निंदा प्रमुख पाप है और मानव की यह कर्म उन्हें पतन की ओर ले जाते हैं। इसीलिए मानव को पापों का परित्याग कर निर्माण के मार्ग पर बढ़ना चाहिए तभी मानव का विकास हो सकता है।
पांच महाव्रत
जैन धर्म में पांच महाव्रत है जो इस प्रकार हैं: सत्य महाव्रत, अस्तेय महा व्रत, अहिंसा महाव्रत, अपरिग्रह महाव्रत और ब्रह्मचार्य महाव्रत। यह पांच महाव्रत जैन दर्शन की अमूल्य निधि है। इन पांच महाव्रत को सन्यास योग, श्रमणो को अवश्य पालन करना चाहिए।
निषेधात्मक सिद्धांत
जैन धर्म के निषेधात्मक सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
- ईश्वर में अविश्वास
- जाति प्रथा में अविश्वास
- संस्कृत भाषा तथा वेदों में अविश्वास
- यज्ञ और बली में अविश्वास
FAQ
महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था।
महावीर स्वामी ने कठिन तप करके अपने इंद्रियों पर विजय प्राप्त किया था। यह कठिन तप पराक्रम के बराबर माना जाता है, इसीलिए इन्हें महावीर कहां गया। इसके अतिरिक्त उन्हे जितेंद्रिय, अर्थात (इंद्रियों को जीतने वाला) अतिवीर और सन्मती भी कहा जाता है।
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे।
30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी गृह त्याग किया था।
साडे 12 वर्ष के कठिन तपस्या के बाद महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति हुई।
जैन धर्म
यशोधरा
महावीर स्वामी के पिता का नाम राजा सिद्धार्थ और इनकी माता का नाम त्रिशला था।
महावीर स्वामी का जन्म ईसा मसीह के जन्म से लगभग 599 वर्ष पूर्व चेत्र शुक्ल की तेरस को हुआ था।
निष्कर्ष
आज के इस लेख संत महावीर स्वामी का जीवन परिचय (Mahaveer Swami in Hindi) के माध्यम से हमने आपको जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के बारे में संपूर्ण जानकारी प्रदान की है। साथ में ही आपको बताया कि महावीर स्वामी के संत बनने का मुख्य उद्देश्य क्या था।
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