पौराणिक प्रेम कथा | Pauranik Prem Katha
प्राचीन समय में जब महाराजा दुष्यंत शिकार करने के लिए जंगल में गए थे, तब वह शिकार करते करते ऋषि कण्व के आश्रम में पहुंच गए थे। महाराजा दुष्यंत शिकार करते करते थक गए थे और उनको पानी पीने की प्रबल इच्छा हो रही थी, जिसके लिए वह महर्षि कण्व के आश्रम चले गए।
जहां पर महाराज दुष्यंत का स्वागत बहुत धूमधाम से हुआ और महाराज दुष्यंत की नजर पास में खड़ी शकुंतला पर पड़ी। शकुंतला को देखकर वह राजा दुष्यंत मंत्रमुग्ध हो गए और उनसे एक ही नजर में प्रेम करने लगे। शकुंतला उस समय पेड़ों को पानी दे रही थी, तभी उसने देखा कि कोई मेहमान आया है।
जिसके बाद शकुंतला ने पेड़ों को पानी देना बंद किया और एक पात्र में जल लेकर वह महाराजा दुष्यंत के पास गई और कहने लगी, आप जल को ग्रहण कीजिए और फल खाइए। मेरे पिताजी महर्षि कण्व शांति पाठ के लिए बाहर गए हुए हैं। महाराजा दुष्यंत ने शकुंतला से कहा कि तुम को देखकर ऐसा तो नहीं लगता है कि तुम किसी ऋषि मुनि की बेटी हो। तब शकुंतला ने महाराजा दुष्यंत से कहा कि आप ठीक कह रहे हैं।
मेरे पिताजी का नाम महर्षि विश्वामित्र है और मेरी माता का नाम मेनका है, जो मुझे मेरे जन्म होते ही छोड़ कर चली गई थी और मुझे नदी के किनारे छोड़ दिया था। तभी वहां से महर्षि कण्व जा रहे थे और उनकी नजर मुझ पर पड़ी। जिसके बाद वह मुझे अपने साथ अपने घर ले आए और उन्होंने ही मेरा नाम शकुंतला रखा है। मैं अपना पिता उन्हीं को मानती हूं।
जिसके बाद महाराजा दुष्यंत ने शकुंतला से कहा कि मैं तुम्हारी सुंदरता को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया हूं। क्या तुम मुझसे विवाह करोगी और मेरी राज्य की रानी बनोगी? जिसके बाद शकुंतला ने कहा कि मेरे पिताजी को आ जाने दीजिए। लेकिन महाराजा दुष्यंत बिल्कुल भी प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं थे। शकुंतला भी महाराजा दुष्यंत को देखकर बहुत मंत्रमुग्ध हो गई थी।
मन ही मन उनसे प्रेम करने लगी थी। तभी शकुंतला ने मन ही मन सोचा कि जिससे दिल प्रेम करने के लिए बोल रहा है और जिसकी और दिल आकर्षित हो रहा है उससे विवाह कर लेना चाहिए और शकुंतला ने महाराजा दुष्यंत के साथ विवाह करने के लिए तैयार हो गई। जिसके बाद वह राजा दुष्यंत और शकुंतला का विवाह गंधर्व रीति रिवाज से हुआ और फिर राजा दुष्यंत आश्रम में कुछ दिन तक रहे और उसके बाद शकुंतला को अपनी अंगूठी दे कर अपने राज्य में चले गए।
यह वचन देकर जल्द ही वह पूरे रीति-रिवाज से विवाह करके अपने राजमहल ले जाएंगे। एक दिन शकुंतला अपने पति महाराजा दुष्यंत के ख्याल में खोई हुई थी, तभी वहां आश्रम में ऋषि दुर्वासा आ गए लेकिन शकुंतला अपने ख्यालों में इतना मस्त थी कि ऋषि दुर्वासा के आने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
ऋषि दुर्वासा शकुंतला से गुस्सा हो गए और उन्होंने शकुंतला को श्राप दिया कि जिसको तुम सोच रही हो वह तुमको भूल जाएगा। जिसके बाद शकुंतला की मित्रों ने ऋषि दुर्वासा से क्षमा मांगी और दिए हुए शार्प को वापस लेने के लिए कहा। शकुंतला ने ऋषि दुर्वासा से क्षमा मांगी। जिसके बाद ऋषि दुर्वासा ने कहा कि जब तुम अपने पति को उनकी दी हुई कोई भी स्मृति दिखाओगी, तो उसको दोबारा से सब कुछ याद आ जाएगा।
धीरे-धीरे कई दिन बीत गए ऋषि कण्व अपने आश्रम वापस आए, तब वहां पर उपस्थित सभी लोगों ने शकुंतला और महाराजा दुष्यंत की विवाह के बारे में बताया। यह सुनकर ऋषि कण्व बहुत प्रसन्न हो गए। लेकिन ऋषि कण्व ने कहा कि शादीशुदा स्त्री को अपने आश्रम में रखना उचित नहीं है, जिसके लिए उन्होंने अपने से दो सेवकों को और अपनी बेटी शकुंतला को महाराजा दुष्यंत के महल में जाने का आदेश दिया।
जिसके बाद महर्षि कण्व के दोनों सेवक शकुंतला को लेकर महाराजा दुष्यंत के महल में पहुंच गए। महल में पहुंचकर सेवकों ने कहा कि महाराज आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो। आपका विवाह महर्षि कण्व की बेटी शकुंतला से हुआ है और आपने यह विवाह गंधर्व रीति रीति रिवाज से किया था। आप अपनी धर्मपत्नी को स्वीकार्य और हम लोगों को जाने की आज्ञा दीजिए। ऋषि दुर्वासा के दिए हुए श्राप के कारण महाराजा दुष्यंत सब भूल चुके थे।
जिसके बाद महाराजा दुष्यंत ने कहा कि मैंने तो कोई विवाह नहीं किया था। मुझे कुछ याद नहीं है तब शकुंतला ने महाराजा दुष्यंत से कहा कि आपने पूरी गंधर्व रीति-रिवाजों से मेरे साथ विवाह किया था और आपने कई वचन मुझको दिए थे। अब आप अपने वचनों से मुकर रहे हो एक राजा होकर भी आपको शर्म नहीं आती। आपने मुझे गर्भ से किया है।
शकुंतला की सारी बातें सुनकर महाराजा दुष्यंत ने कहा कि मैंने तुम्हें कोई वचन नहीं दिया थाने मैं तो तुमको जानता तक नहीं हूंने तुम मुझे कलंकित कर रही होने तुम ऐसा रानी बनने के लिए कर रही होने जिसके बाद शकुंतला ने कहा आपने मुझे अपनी अंगूठी दी थी और शकुंतला ने जैसे ही अपनी उंगलियां चेक की तो वहां पर वह अंगुठी नहीं थी।
शकुंतला के हाथ से अंगूठी गंगाजी पार करते समय गंगाजी में ही गिर गई थी। महाराजा दुष्यंत ने शकुंतला से कहा कि तुम मुझे अंगूठी दिखाओ? क्या हुआ? क्यों नहीं दिखा रही हो? शकुंतला दुष्यंत के सामने बहुत रोई और बहुत गिड़गिड़ा लेकिन महाराज दुष्यंत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने शकुंतला को स्वीकारने से मना कर दिया। जिसके बाद ऋषि कण्व के सेवक शकुंतला को वहीं छोड़ कर वापस आ गए।
जिसके बाद राजपुरोहित ने शकुंतला को अपने घर ले जाने की आज्ञा महाराजा दुष्यंत जी से मांगी।राजपुरोहित शकुंतला को अपने घर ले जा रहे थे, तभी आकाश एक बहुत ही भयानक बिजली कड़की और स्वर्ग की अप्सरा मेनका नीचे आई और शकुंतला को लेकर अपने साथ चली गई ।
राजा दुष्यंत के द्वारा दी हुई अंगूठी गंगा जी में एक मछली के पेट में चली गई थी। जब एक मछुआरे ने उस मछली को पकड़ा और अपने साथ अपने घर ले गया। जब मछुआरे ने मछली को काटकर खाने के लिए बनाने जा रहा था जैसे ही मछुआरे ने मछली को काटा तो उसके अंदर से राजा की अंगूठी निकली। उसके बाद मछुआरा और उसकी पत्नी ने उस अंगूठी को बेचने के लिए जोहर के पास ले गए।
जोहर ने अंगूठी को देखकर तुरंत राज्य के सैनिकों को दे दिया और मछुआरे को भी पकड़ कर ले गए। अगले दिन जब दरबार में मछुआरे को वहां राजा दुष्यंत के सामने किया गया और उस अंगूठी को महाराजा दुष्यंत को दिखाया अंगूठी को देखते ही महाराजा दुष्यंत श्राप से मुक्त हो गए और उन्हें सब कुछ याद आ गया और अपने आप को कोसने लगे और उसी समय देवताओं और अश्रु में युद्ध छिड़ गया। महाराजा दुष्यंत को देवताओं ने असुरों से युद्ध करने के लिए बुलवाया।
जिसके बाद महाराजा दुष्यंत असुरों से युद्ध करने के लिए स्वर्ग लोक चले गए। महाराजा दुष्यंत ने राक्षसों को हरा दिया जिसके बाद जब वह स्वर्ग लोक से वापस पर आए तब रास्ते में महर्षि मरीच के यहां उनके दर्शन के लिए रुक गए। वहां पर राजा दुष्यंत ने एक विभिन्न दृश्य देखा एक छोटा सा बच्चा शेर के के बच्चे के दांत गिरने की कोशिश कर रहा है।
लेकिन जब शेर का बच्चा मुंह नहीं खोल रहा है तो मैं उसको बहुत जोर से डांट रहा है। तभी वहां पर एक सेविका आई उसने उस बच्चे को डांटा कि क्यों तुम शेर के बच्चे को परेशान कर रहे हो? तुम वापस घर जाओ। तुम्हारी मां शकुंतला तुमको बुला रही है।
शकुंतला का नाम सुनकर महाराजा दुष्यंत बहुत आश्चर्य चकित होने लगे और तभी वह सेविका उस बच्चे को ले जाने लगी बच्चे को ले जाते समय उसका ताबीज रास्ते में गिर गया। उस ताबीज को महाराजा दुष्यंत ने उठाने की कोशिश करने लगे तभी सेविका ने से कहा कि ताबीज़ को हाथ मत लगाइएगा। इस ताबीज को सिर्फ इसके माता-पिता ही हाथ लगा सकते हैं। लेकिन महाराजा दुष्यंत ने सेविका की बात नहीं मानी और उस ताबीज को उठा लिया।
महाराजा दुष्यंत ने उस बच्चे को भी अपनी गोद में उठा लिया और कहने लगे यह मेरा बेटा है और तभी महाराजा दुष्यंत ने अपने बेटे से कहा तुम मुझे अपनी माता से मिलवाओ।
जैसे ही वह बच्चा महाराजा दुष्यंत को अपनी माता के पास ले गया उस बच्चे की मां और कोई नहीं बल्कि शकुंतला ही थी। शकुंतला ने जैसे वहां राजा दुष्यंत को देखा तो वह प्रसन्न हो गई और तभी राजा दुष्यंत ने शकुंतला से माफी मांगी और अपने बच्चे और शकुंतला को लेकर वापस अपने राज्य चले गए और वहां खुशी-खुशी अपना जीवन व्यतीत करने लगे।
दोस्तों उम्मीद करते हैं आपको यह कहानी रोचक लगी होगी। ऐसे बहुत ही कहानियां है जो हमारी वेबसाइट में उपलब्ध हैं, आप इन्हें पढ़ सकते हैं और अपने बच्चों आदि को पढ़ा कर उनका मनोरंजन करवा सकते हैं और इस कहानी को साझा कर हमारा हौसला अफजाई कर सकते हैं और कहानी से संबंधित यदि कोई भी प्रश्न है आपका तो आप कमेंट बॉक्स के माध्यम से पूछ सकते हैं।
यह भी पढ़े