Hartalika Teej Vrat Katha: भोले शंकर जी ने इस व्रत का महत्व माता पार्वती को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के लिए बताया।
भगवान शंकर माता पार्वती जी से बोले “हे देवी! पूर्व जन्म में आप गिरिराज की पुत्री थी। आपने बाल्यावस्था में बारह वर्ष तक अधोमुखी होकर घनघोर तप किया।
वन में रहकर अन्न का त्याग करके आपने वृक्षों के पत्तों को चबाकर, माघ की घनघोर सर्दी में आपने जल में रहकर, श्रावण मास की घनघोर बरसात में खुले आसमान तले रहकर, वैशाख की झुलसा देने वाली गर्मी में यज्ञ करके आपने कठोर तपस्या की।
गिरिराज आपके इस कष्ट भरे जीवन को देखकर बहुत ही दुखी रहते थे। एक दिन आपकी इस कठोर तपस्या के फलस्वरूप नारद जी आपके पिता के पास आए। गिरिराज ने नारद जी का खूब आतिथ्य सत्कार किया और वहां पधारने का कारण पूछा।
नारद जी बोले मैं यहां भगवान विष्णु का संदेशवाहक बनकर आया हूं। “हे गिरिराज! आपकी पुत्री की कठोर तपस्या को देखते हुए भगवान विष्णु ने आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय लेने आया हूं।”
गिरिराज नारद जी की बात सुनकर बहुत ही प्रसन्न हो गए जैसे उनके सारे दुख कलेश दूर हो गए हो। गिरिराज बोले “स्वयं भगवान विष्णु मेरी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं तो इस बात पर भला मुझे क्या आपत्ति होगी।
प्रत्येक पिता यही चाहता है कि उसकी पुत्री जिस घर में जाए, वहां उस घर की लक्ष्मी बनकर पिता के घर से अधिक सुखी बन कर रहे।”
आपके पिता की इच्छा जानकर नारद जी भगवान विष्णु के पास गए और सारी बात उन्हें बता दी। आपका विवाह भगवान विष्णु के साथ तय हो गया।
जब यह बात आपको पता चली तो आप बहुत ही दुखी हो गए जैसे आप पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। आपकी एक सखी ने आप की दशा देखकर इस दुःख का कारण पूछा।
आपने अपनी सखी को बताया कि मैं अपने मन क्रम से भगवान शंकर को अपना पति स्वीकार कर लिया है किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह भगवान विष्णु से करने का वचन ले लिया है। अब मेरे पास प्राण त्यागने के अलावा कोई मार्ग नहीं बचा है।”
आपकी सखी बहुत ही बुद्धिमान और सूझबूझ वाली थी। उसने कहा कि सखी इसमें प्राण देने की कोई बात ही नहीं है, हमे संकट के समय में संयम से काम लेना चाहिए। मैं एक स्थान को जानती हूं, जो घनघोर वन में हैं और वह तपस्या स्थली है।
तुम वहां जाकर अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ होकर उनकी तपस्या में लीन हो जाओं। स्त्री के जीवन की सार्थकता इसमें ही है कि वह एक बार जिसे अपने ह्रदय में अपने पति के रूप में स्वीकार कर ले तो जीवनपर्यंत उसका निर्वाह करें।
आपने सखी की बात मानकर ऐसा ही किया। वन में जाकर नदी के किनारे एक गुफा में साधना शुरू कर दी। इधर गिरिराज आपको घर में नहीं पाकर बहुत ही दुखी हो गए क्योंकि उन्होंने आपके विवाह का वचन दे दिया था।
यदि भगवान विष्णु बारात लेके घर आए और कन्या को घर पर नहीं पाया तो मैं तो कहीं भी मुंह दिखाने लायक ही नहीं रहूंगा। इस बात को सोच कर आपके पिता ने आपकी खोज करनी शुरू कर दी। इधर तुम अपनी सखी के साथ मेरी आराधना में लीन हो गई।
भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन हस्त नक्षत्र था। उस दिन आपने रेत का शिवलिंग बनाकर मेरी पूजा अर्चना की ओर निर्जल वृत रखा। रात्रि में पूरी रात जागकर मेरे भजन किए। आपकी तपस्या के कारण मेरा आसन डोलने लगा और मेरी साधना टूट गई तो में तुरंत आपके सामने प्रकट हो गया।
आप मुझे सामने पाकर अत्यंत प्रसन्न हो गए। मैंने तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा।
आपने कहा कि मैं मन कम से आपको अपने पति के रूप में स्वीकार कर चुकी हूं। यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे कोई वर देना चाहते हैं तो आप मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।
तब मैं तथास्तु कहकर पर कैलाश पर्वत लौट गया। प्रातः होते ही आपने सारी पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी और व्रत खोला।
इधर आपके पिता आपकी खोज में सभी के साथ आपके पास पहुंचे। आपकी स्थिति को देखकर उनकी आंखों से आंसू आ गए। आपने अपने पिता के आंसुओं को पोछते हुए विनम्र स्वर में कहा कि मैंने मन क्रम वचन से भगवान शंकर को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया है किंतु आपने मेरा विवाह भगवान विष्णु के साथ में तय कर दिया है। इसलिए मैं यहां तपस्या करने के लिए यह आ गई।
अब मैं पुनः घर एक शर्त पर ही चलूंगी। यदि आप मेरा विवाह भगवान शंकर के साथ करवाएंगे तो ही मैं घर आऊंगी अन्यथा यहां वन में रहूंगी। आपके पिता ने आपकी बात मन ली। कुछ समय बीत जाने पर मेरा और आपका विवाह मन्त्रों उच्चारण के साथ विधि विधानपूर्वक संपन हुआ।
हे देवी! भाद्रपद शुक्ल तृतीया को जो आपने व्रत रखा था, उसी के फल स्वरुप मेरा और आपका विवाह हुआ था। इस दिन जो भी कुंवारी कन्या इस व्रत को करेगी, उसको मैं मनचाहा वर दूंगा। इसलिए सौभाग्य की इच्छा रखने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूर्ण विधि-विधान पूर्वक का करना चाहिए।
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