Dronacharya Biography in Hindi: प्राचीन इतिहास का सबसे भयंकर युद्ध महाभारत जिसके हर एक पात्र महत्व रखते हैं। ऐसे ही एक पात्र है गुरु द्रोणाचार्य जिन्हें संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर में से एक माना गया है।
गुरु द्रोणाचार्य ने ही संपूर्ण कौरव और पांडव वंश को अर्थशास्त्र का ज्ञान दिया था। वे ना केवल एक श्रेष्ठ धनुर्धर बल्कि वेद पुराणों में भी पारंगत थे और एक कठोर तपस्वी भी थे।
महाभारत के युद्ध में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही और इनके पुत्र अश्वत्थामा की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। हालांकि ज्यादातर लोग गुरु द्रोणाचार्य को कौरव और पांडवों के गुरु के रूप में जानते हैं।
लेकिन गुरु द्रोणाचार्य का जीवन परिचय (Dronacharya Biography in Hindi) बहुत कम ही लोग जानते हैं।
इस लेख में हम गुरु द्रोणाचार्य के संपूर्ण जीवन के बारे में जानने के साथ ही गुरु द्रोणाचार्य कौन थे (guru dronacharya in hindi), द्रोणाचार्य के गुरु कौन थे, द्रोणाचार्य का इतिहास, द्रोणाचार्य किसके गुरु थे आदि के बारे में विस्तार से जानेंगे।
गुरु द्रोणाचार्य का जीवन परिचय (Dronacharya Biography in Hindi)
नाम | द्रोणाचार्य |
अन्य नाम | द्रोण |
जन्म स्थान | पटियाली कासगंज |
पेशा | आचार्य |
माता का नाम | घृतार्ची अप्सरा |
पिता का नाम | महर्षि भारद्वाज |
पत्नी का नाम | कृपि |
संतान | अश्वत्थामा |
मुख्य शस्त्र | धनुष बाण |
संदर्भ ग्रंथ | महाभारत |
गुरु द्रोणाचार्य के जन्म की घटना
गुरु द्रोणाचार्य का जन्म बहुत ही विचित्र तरीके से हुआ था। इनका जन्म किसी भी महिला के गर्भ में ना होकर द्रोण नामक एक बर्तन में हुआ था। इसीलिए इनका नाम उस बर्तन के नाम पर द्रोणाचार्य रखा गया।
कहा जाता है कि इनके पिता महर्षि भारद्वाज एक बार सुबह गंगा नदी में स्नान कर रहे थे तभी उन्होंने घृतार्ची नामक एक अप्सरा को जल से निकलते हुए देखा।
उनकी सुंदरता से मोहित महर्षि भारद्वाज के मन में विकार आ गया। इसके कारण उनका वीर्य स्खलित होने लगा।
उन्होंने अपने विर्य को एक द्रैण नामक बर्तन में एकत्रित कर लिया और इसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ।
गुरु द्रोणाचार्य का विवाह और संतान
सभी शिक्षा प्राप्त करने के बाद गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि नाम की राजकुमारी के साथ हुआ और इनसे इन्हें पुत्र के रूप में एक संतान प्राप्त हुआ। इनका पुत्र महाभारत का एक महत्वपूर्ण पात्र अश्वत्थामा था।
कहा जाता है कि अश्वत्थामा की शिक्षा कौरव और पांडवों के साथ ही हुई। लेकिन गुरु द्रोणाचार्य अपने पुत्र प्रेम में अश्वत्थामा शिक्षा प्राप्त करने के लिए ज्यादा जोर नहीं दिया करते थे।
जहां कौरवों और पांडवों को हर दिन आश्रम में दूर से मटके से पानी भरकर लाने के लिए कहते थे और जो जल्दी पानी भर कर लाएगा, उसे वह ब्रह्मास्त्र का ज्ञान देंगे। वहीं अपने पुत्र अश्वत्थामा को छोटा मटका दिया करते थे।
हालांकि अर्जुन इस बात को समझ गए थे, जिसके कारण वे हमेशा ही जल्दी पहुंचने की कोशिश करते थे। एक दिन अश्वत्थामा और अर्जुन दोनों एक साथ मटके में पानी भरके गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचे।
इसके बाद गुरु द्रोणाचार्य ने दोनों को ब्रह्मास्त्र का ज्ञान दिया। लेकिन अर्जुन ने पूरे तरीके से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग करने की विधि सीख ली लेकिन अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र को आमंत्रित करना तो सीखा लेकिन वापस भेजना नहीं सीखा।
उन्होंने सोचा कि उनके पिता गुरु है तो बाद में वे इस विद्या को सीख सकते हैं। लेकिन गुरु द्रोणाचार्य ने कभी उन पर इस विद्या को सीखने का जोर नहीं दिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि अश्वत्थामा कभी ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की पूरी विधि नहीं सीख पाए, जिसके कारण महाभारत के युद्ध में अर्जुन और अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र निकाला। लेकिन श्रीकृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने तो ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया।
लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र वापस लेना नहीं आता था, जिसके कारण भगवान श्री कृष्ण अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र को नष्ट कर दिया और अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणी निकालकर उन्हें हमेशा के लिए भटकने का श्राप दे दिया।
गुरु द्रोणाचार्य के गुरु
गुरु द्रोणाचार्य के पिता का नाम महर्षि भारद्वाज था और उन्हीं के कई शिष्यों में से एक शिष्य अग्निवेश थे। उन्होंने द्रोणाचार्य को अस्त्र शास्त्र सभी तरह की शिक्षा दी।
ऋषि अग्निवेश से शिक्षा लेने के दौरान ही द्रोणाचार्य को पता चला कि भगवान परशुराम सभी ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। भगवान परशुराम अपनी समस्त संपत्ति ब्राह्मणों को दान करके महिंद्राचल पर्वत पर तप करने के लिए चल गए थे।
उसी समय गुरु द्रोणाचार्य भगवान परशुराम के पास जाते हैं और उन्हें अपना परिचय देते हुए दान मांगते हैं। लेकिन भगवान परशुराम कहते हैं कि वत्स तुम विलंब हो चुके हो, मैंने अपनी सारी संपत्ति ब्राह्मणों में दान कर दी है। अब मेरे पास इस अस्त्र-शस्त्र के सिवाय और कुछ नहीं बचा है, तुम चाहो तो इसे दान में ले सकते हो।
गुरु द्रोणाचार्य को असल में तो वही चाहिए था। उन्होंने खुशी पूर्वक परशुराम के अस्त्र-शस्त्र को स्वीकार किया। लेकिन उन्होंने उनसे इस अर्थशास्त्र के प्रयोग और विधि विधान को सिखाने की भी विनती की।
इस तरह परशुराम भगवान गुरु द्रोणाचार्य के गुरु बनकर उन्हें अस्त्र-शस्त्र सहित सभी विद्याओं में अभूतपूर्व ज्ञान प्रदान किया।
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कौरव और पांडवों के गुरु बने द्रोणाचार्य
कहा जाता है कि एक दिन कौरव और पांडव बाल्यावस्था में परस्पर गुल्ली डंडा खेल रहे थे कि अचानक से उनकी गुल्ली कुएं में गिर गई। तब नन्हे बालकों ने उधर से आचार्य द्रोण को जाते हुए देखा और उनसे कुंवे से गुल्ली निकालने की प्रार्थना की।
तब गुरु द्रोणाचार्य ने मात्र मुट्ठी भर सींक के बाणों से गुल्ली को निकाल दिया। यह देख राजकुमार आश्चर्यचकित हो गए, जिसके बाद एक राजकुमार ने कुएं में अपनी अंगूठी डाल दी और उसे निकालने के लिए कहा। गुरु द्रोणाचार्य ने फिर से उसी विधि से अंगूठी निकाल कर दे दी।
सभी बालक आश्चर्यचकित थे, जिसके बाद उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य से कहा कि इस तरह का अस्त्र कौशल हमने आज तक आपके अतिरिक्त किसी में नहीं देखा। हम आपको प्रणाम करते हैं कृपया आप हमें अपना परिचय देकर हमारे जिज्ञासा को शांत करें।
तब गुरु द्रोणाचार्य ने उन बालकों को कहा कि तुम सब मेरे रूप और गुणों की बात अपने भीष्म पितामह से जाकर करो। वे तुम्हें मेरे बारे में अच्छा परिचय देंगे।
सभी बालक भीष्म पितामह के पास जाते हैं और उन्हें गुरु द्रोण के रूप रंग और अस्त्र कौशल के बारे में बताते हैं। यह सुनते ही भीष्म पितामह समझ जाते हैं कि वे कोई और नहीं बल्कि गुरु द्रोणाचार्य ही है।
भीष्म पितामह सभी राजकुमारों के साथ गुरु द्रोणाचार्य के पास जाते हैं और उनका स्वागत करते हैं। उसके बाद भीष्म पितामह गुरु द्रोणाचार्य को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके उन्हें कौरवों और पांडव राजकुमारों को शिक्षा देने का कार्य सोंपते हैं।
इसी देश में उनके निवास के लिए एक सुंदर भवन की भी व्यवस्था करते हैं। इस तरह तब से ही गुरु द्रोणाचार्य कौरव और पांडवों के गुरु बन जाते हैं और उन्हे पूरी शिक्षा देते हैं।
ऋषि द्रोण ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान क्यों दिया था?
महाभारत की कहानी जानने वाला हर शख्स जानते हैं कि कौरव-पांडवों के गुरु ऋषि द्रोणाचार्य थे। लेकिन ऋषि द्रोणाचार्य सभी कौरव पांडव में अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे और उन्हें सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान भी दिया था। आखिर इसके पीछे का क्या कारण था?
कहा जाता है कि एक बार गुरु द्रोणाचार्य गंगा नदी में स्नान कर रहे थे कि तभी एक मगरमच्छ आकर उनके पैरों को पकड़ लिया। हालांकि द्रोणाचार्य मगरमच्छ से खुद बच सकते थे लेकिन वे अपने शिष्यों की परीक्षा लेना चाहते थे।
उस समय सभी कौरव पांडव शिष्य उनके समक्ष खड़े थे। सभी लोग मगरमच्छ को देखकर घबरा गए। लेकिन उसी क्षण अर्जुन ने अपने बाणों से मगरमच्छ को मार दिया और अपने वीरता का परिचय दिया।
यह देख ऋषि द्रोण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया।
महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य ने कौरवों का साथ क्यों दिया?
महाभारत की कहानी जानने वाला हर एक शख्स जानता है कि गुरु द्रोणाचार्य के लिए अर्जुन उनके प्रिय शिष्य हुआ करते थे और अर्जुन पांडव के भाई थे। लेकिन उसके बावजूद महाभारत के युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य ने पांडवों का साथ ना देकर कौरवों का साथ दिया।
हालांकि गुरु द्रोणाचार्य जानते थे कि पांडव धर्म के मार्ग पर है जबकि कौरव अधर्म के मार्ग पर है। जो फिर आखिर क्यों गुरु द्रोणाचार्य ने पांडवों का साथ ना देकर कौरवों का साथ दिया।
दरअसल गुरु द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के राजगुरु थे, जिसके कारण वे राजधर्म में बंधे हुए थे और एक राजगुरु का फर्ज होता है कि वे राजा के हर सुख-दुख, धर्म और अधर्म पर उनका साथ दें।
यही कारण था कि गुरु द्रोणाचार्य चाहते थे कि पांडवों की जीत हो, उसके बावजूद उन्होंने कौरवों का साथ दिया। इस युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य ने इमानदारी पूर्वक साथ निभाया। उन्होंने नए-नए व्यू बनाकर पांडवों की सेना का संहार किया।
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गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु
गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु महाभारत युद्ध में द्रुपद के बेटे धृष्टद्युम्न के हाथों हुई थी। कहा जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के दोस्त हुआ करते थे और इन्होंने साथ में शिक्षा ग्रहण की थी।
आगे चलकर द्रुपद पांचाल राज्य के राजा बन गए। लेकिन गुरु द्रोणाचार्य की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी। इनके घर में इस कदर दरिद्रता आ गई कि अपने बच्चे और पत्नी का पालन पोषण करना बहुत मुश्किल हो रहा था।
हालांकि गुरु द्रोणाचार्य एक स्वाभिमानी ब्राह्मण थे, जिसके कारण कभी किसी से मदद नहीं मांगी। लेकिन उन्होंने अपने दोस्त द्रुपद से मदद मांगने का निर्णय लिया।
अपने दोस्त द्रुपद से मदद लेने के उद्देश्य से वे पांचाल राज्य आए। लेकिन यहां पर आते ही राजा द्रुपद उन्हें पहचानने से मना कर दिए। तब द्रोणाचार्य ने अपने बचपन की सारी कहानी उन्हें सुनाई।
उसके बावजूद राजा द्रुपद ने कहा कि एक गरीब ब्राह्मण और राजा कभी मित्र नहीं हो सकते हैं। अपमान का यह घूंट चुपचाप पीकर द्रोणाचार्य वहां से लौट आए।
लेकिन उनके मन में बदले की भावना ने जन्म ले लिया था। जिसके बाद वे आगे कुरुदेश आ गए और यहां पर कौरवों और पांडवों को शिक्षा देने लगे।
जब कौरवों और पांडवों की शिक्षा पूरी हो गई तब अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से दक्षिणा मांगने को कहा। गुरु द्रोणाचार्य ने दक्षिणा के रूप में द्रुपद को बंदी बनाकर अपने सामने लाने की मांग की।
तब अर्जुन के नेतृत्व में कौरव और पांडवों ने द्रुपद को बंदी बनाकर गुरु द्रोणाचार्य के सामने पेश किया। गुरु द्रोणाचार्य ने अपने अपमान का बदला ले लिया लेकिन उन्होंने कुछ राज्य को अपने कब्जे में करके बाकी राज्य सहित द्रुपद को वापस जाने दिया।
लेकिन राजा द्रुपद अपने प्रजा के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं रह गए। जिसके बाद उनके मन में भी द्रोणाचार्य से बदला लेने की भावना उत्पन्न हुई।
लेकिन गुरु द्रोणाचार्य के साथ कुरु देश के वंशावली का साथ होने के कारण अकेले गुरु द्रोणाचार्य को हराने में द्रुपद सक्षम नहीं थे।
जिसके बाद उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य का काट ढूंढने के लिए यज्ञ करवाया और इस अज्ञ के अग्नि से ही धृष्टद्युम्न नामक एक बालक का जन्म हुआ।
बाद में आगे चलकर महाभारत युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य कौरवों की तरफ से लड़ रहे थे और द्रुपद पांडवों की तरफ से लड़ रहे थे।
इस युद्ध में पांडवों ने गुरु द्रोणाचार्य को षडयंत्र पूर्वक निहत्था बना दिया, जिसके बाद द्रुपद के बेटे धृष्टद्युम्न ने गुरु द्रोणाचार्य के सिर को धड़ से अलग कर उनकी हत्या कर दी।
FAQ
गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि से हुआ था, जिनसे इनका पुत्र अश्वत्थामा हुआ।
द्रोणाचार्य को डर था कि कहीं एकलव्य अर्जुन से बहुत बड़ा धनुर्धर ना बन जाए। इसीलिए उन्होंने एकलव्य को उसका दाहिना अंगूठा दक्षिणा के रूप में मांगा ताकि उन्हें धनुष चलाने में दिक्कत हो और वे अर्जुन से बड़े धनुर्धर ना बन पाए।
कर्ण एक सूत पुत्र थे, जिनके माता-पिता के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। यही कारण था कि द्रोणाचार्य ने इसी कारणवश उन्हें धनुर्विद्या की शिक्षा नहीं दी।
गुरु द्रोणाचार्य का वध द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने महाभारत के युद्ध में किया था। गुरु द्रोणाचार्य को छल पूर्वक निहत्था बनाकर धृष्टद्युम्न ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया था।
गुरु द्रोणाचार्य महर्षि भारद्वाज के पुत्र थे।
गुरु द्रोणाचार्य का जन्म द्रोण नामक बर्तन में महर्षि भारद्वाज के इकट्ठे वीर्य से हुआ।
गुरु द्रोणाचार्य के पिता का नाम महर्षि भारद्वाज था और उन्हीं के कई शिष्यों में से एक शिष्य अग्निवेश थे। उन्होंने द्रोणाचार्य को अस्त्र शास्त्र सभी तरह की शिक्षा दी।
द्रोणाचार्य पांडु के पुत्रों तथा धृतराष्ट्र पुत्रों के गुरु थे।
निष्कर्ष
इस लेख में महाभारत का एक महत्वपूर्ण पात्र ऋषि द्रोणाचार्य जो कौरवों और पांडवों के गुरु थे, उनके बारे में जाना।
हमें उम्मीद है कि इस लेख के माध्यम से आपको गुरु द्रोणाचार्य की कहानी और जीवन परिचय (Dronacharya Biography in Hindi) के बारे में जानने को मिला होगा।
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