Home > Biography > ईसा मसीह के जन्म से सूली तक की कहानी

ईसा मसीह के जन्म से सूली तक की कहानी

आज के इस लेख में ईसा मसीह का इतिहास (Jesus Christ Story in Hindi), जीवन काल में क्या-क्या किया, इनके शिष्य, ईसा मसीह की मृत्यु कब और कैसे हुई तमाम जानकारी के बारे में विस्तार से जानेंगे।

ईसा मसीह ईसाई धर्म के लोगों के लिए प्रभु है। आज सबसे अधिक जनसंख्या वाला धर्म ईसाई धर्म है, जिसे क्रिश्चियन धर्म भी कहते हैं। कहा जाता है कि ईसा मसीह ने ही ईसाई धर्म की स्थापना की थी, इन्हें ईसाइयों का एक प्रोफेट माना जाता है।

इब्रानी में उन्हें यीशु कहते थे, लेकिन अंग्रेजी उच्चारण में यह शब्द जेशुआ हो गया। यही जेशुआ गलत तरीके से जीसस के रूप में उच्चारण होने लगा। इसलिए आज इन्हें लोग जीसस क्राइस्ट कह कर पुकारते हैं।

Story of Jesus Christ in Hindi

ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था और इसी दिन को आज पूरी दुनिया में ईसाई धर्म के लोग क्रिसमस त्योहार के रूप में मनाते हैं।

ईसा मसीह के माता-पिता

वैसे तो ईसा मसीह के जन्म को लेकर काफी मतभेद है, लेकिन बाइबल के अनुसार ईसा मसीह के जन्म को लेकर जो कहानी है, वह कुछ इस प्रकार है कि ईसा मसीह का जन्म मेरियम नाम की महिला के गर्भ से हुआ था।

यह महिला वर्तमान इजराइल के नाजरथ गांव में रहा करती थी, जिसकी सगाई यूसुफ नाम के एक शख्स से हुई थी। दोनों ही दिल के बहुत भले इंसान थे। मेरियम बहुत ही मेहनती इंसान थी।

कहा जाता है कि एक बार मेरियम के पास स्वर्गदूत ग्रेबीयल नाम की परी ईश्वर की संदेश लेकर पहुंचती है। वह परी मरियम को ईश्वर के संदेश के बारे में कहती है कि इस बार इस दुनिया में एक पवित्र आत्मा भेजना चाहते हैं।

यह बात सुनकर मेरियम बहुत ही ज्यादा आश्चर्यचकित हो जाती है। क्योंकि अभी तक उसका यूसुफ के साथ विवाह नहीं हुआ था। ऐसे में वह अविवाहित रूप से एक बालक को कैसे जन्म दे सकती थी।

लेकिन उस परी ने इसे ईश्वर का चमत्कार बताते हुए उसे चिंता ना करने के लिए कहा। कहा जाता है कि इस दौरान मेरियम अपने चचेरे भाई के यहां चली गई थी।

वहां से वह तीन महीने के बाद आई थी। तब तक वह गर्भवती भी हो गई थी, जिसके बाद यूसुफ ने उससे विवाह न करने का विचार किया।

लेकिन उसी रात यूसुफ के सपने में ईश्वर के द्वारा स्वर्गदूय भेजा गया और उसने मरियम के गर्भ से एक पवित्र आत्मा के जन्म होने के रहस्य के बारे में बताया और मेरियम से विवाह करने की आज्ञा दी, जिसके बाद यूसुफ ने मेरियम से विवाह कर लिया।

ईसा मसीह के जन्म का शुभ अवसर

माना जाता है कि जब मेरियम और जोसफ नाजरथ में थे और जब मेरियम गर्भवती थी, उसी दौरान वहां के रोमन सम्राट ने आदेश दिया कि उस देश के प्रत्येक लोगों की जनगणना करवानी है और जनगणना करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को बेथलेहम में जाकर अपना नाम दर्ज करवाना होगा।

उस समय वहां पर लोग बड़ी संख्या में इकट्ठा हुए थे और धर्मशालाओं में रुके हुए थे। सम्राट के आदेश पर यूसुफ और मेरियम भी बेथलेहम जनगणना के लिए चले जाते हैं।

लेकिन वह देखते हैं कि वहां आवास पूरी तरह से भर चुका होता है, उनके लिए रहने का जगह नहीं होती। ऐसे में उन्होंने जानवरों के एक खलिहान में बसेरा डाल लिया।

इसी जगह पर मरियम ने 25 दिसंबर की रात्रि को महा प्रभु ईसा मसीह को जन्म दिया, जिसका नाम यीशु रखा गया। उस रात भेड़ों के झुंड की रखवाली में कुछ गडरिया व्यस्त थे। उन गडरिया को एक फरिश्ते ने जाकर इस खुशखबरी के बारे में बताया।

हालांकि शुरुआत में गडरिया स्वर्ग दूत को देखकर काफी डर गए थे। लेकिन फरिश्ते ने कहा कि डरो मत, मेरे पास तुम्हारे लिए बहुत अच्छी खबर है। ईश्वर के पुत्र का जन्म हुआ है, आज की रात तो बहुत ही शुभ है। तुम्हारे रखवाले ने जन्म लिया है, इसका तुम जश्न मनाओ। वह बालक तुम्हें चारा खिलाने वाली एक नांद में मिलेगा।

उसके बाद और भी कई सारे फरिश्ते प्रकट हुए, जिसने चारों तरफ आकाश में प्रकाश फैला दिया और यीशु मसीह के जन्म के शुभ अवसर में गाना गाने लगे।

उसके बाद सभी गडरिया भी बेथलेहम पहुंचे, जहां पर उन्होंने ईसा मसीह को एक नांद में लेटा हुआ देखा, जिस तरीके से उन्हें फरिश्ते ने बताया था। उसके बाद सब गडरिया भी उस बालक को देखते रह गए और उसकी स्वागत के लिए स्तुति गान करने लगे।

कहा जाता है कि जिस रात ईसा मसीह का जन्म हुआ था, उस समय प्रभु ने चमकदार तारे के प्रकाश से पूरी धरती को ईसा मसीह के जन्म का संकेत दिया था, जिसे कुछ विद्वान लोग ही समझ पाए थे।

कहा जाता है कि उस दिन पूर्वी देश के तीन सज्जन आदमियों को आसमान का यह तारा दिखा था, जिस तारे को क्रिसमस का तारा भी कहा जाता है। वह इस तारे को देखकर समझ गए थे कि इस धरती पर किसी पवित्र आत्मा ने जन्म लिया है।

जिसके बाद वे उस बालक का दर्शन करने के लिए इस तारे का पीछा करते हुए जुड़िया के रहा हेरोद के पास जाकर पहुंचे। हेरोद बहुत क्रूरर इंसान था।

जब उसे पता चला कि यहूदियों के नये राजा ने जन्म लिया है तो उसने उन सज्जनों से कहा कि जब आपको उस बालक का पता चल जाए तो लौटते वक्त उस स्थान का पता हमें बता कर जाना।

उन तीनों सज्जनों ने बेथहलम पहुंचकर यीशु के दर्शन किए। उसके बाद उन्हें परमेश्वर के दूत ने आकर हेरोद के क्रूर सत्य के बारे में बताया, जिसके बाद वे तीनों सज्जन बिना हेरोद को बताएं वापस गांव चले गए।

जब हेरोद को पता चला कि तीनों सज्जन उसे बिना बताए गांव जा चुके हैं तो वह गुस्से से तिलमिला उठा और उसने अपने सभी सैनिकों को बेथलेहम जाकर सभी नवजात शिशु की हत्या कर देने का आदेश दे दिया।

जिसके बाद उधर उसी रात यूसुफ के सपने में ईश्वर ने संकेत दिया कि राजा हेरोद ने यीशु को मारने के लिए सैनिकों को भेज दिया है। जिसके कारण युसुफ अपने परिवार को लेकर बेथलेहम को छोड़कर इजिप्त चला गया।

यह भी पढ़े: क्रिसमस क्यों मनाया जाता है?, जानें इसका इतिहास

ईसा मसीह का भारत भ्रमण

राजा हेरोद की मृत्यु की खबर आई, जिसके बाद युसुफ अपने परिवार के साथ दोबारा अपने गांव नाजरथ लौट आया। चूंकि यूसुफ पेशे से बढई ही था, इसलिए वापस गांव आने के बाद उसने बढ़ई का काम शुरू कर दिया।

इधर यीशु भी थोड़े बड़े हो चुके थे, जिसके बाद वह भी अपने पिता के साथ बढही का काम सीखने लगे और लगभग 30 सालों तक की उम्र तक वे इसी गांव में अपने पिता के साथ रहकर बढ़ई का काम करते थे।

हालांकि बाइबल में ईसा मसीह के 13 से लेकर 29 वर्ष के उम्र के बारे में कोई भी उल्लेख नहीं किया गया है। लेकिन कुछ किताबों में कहा गया है कि इस उम्र के दरमियां ईसा मसीह भारत का भ्रमण करने भी आए थे, जहां पर उन्होंने बोध शिक्षा ग्रहण की थी।

कहा जाता है कि जब ईसा मसीह भारत आए थे, उस समय वे कश्मीर के शालिवाहन राजा से भी मिले थे।

ईसा मसीह के द्वारा उपदेश एवं धर्म प्रचार

ईसा मसीह ने लगभग 30 वर्ष की उम्र में जॉन नामक संत से दीक्षा ली। उसके बाद उन्होंने ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया, लोगों को उपदेश देना प्रारंभ कर दिया।

इन्होंने सभी लोगों को बताया कि ईश्वर साक्षात प्रेम का रूप है, जो सभी लोगों से प्यार करते हैं, सभी लोग ईश्वर के ही संतान हैं। इसलिए इंसान को क्रोध में आकर किसी से बदला लेने की भावना नहीं रखनी चाहिए। गलती हो जाने पर क्षमा कर देना चाहिए, वही सच्चा इंसान होता है।

उन्होंने सभी लोगों से कहा कि वे ईश्वर के पुत्र हैं, वे ही मसीहा है, वे ही स्वर्ग और मुक्ति का मार्ग है। ईसा मसीह ने सभी को मानवता का पाठ पढ़ाया, नफरत की जगह पर प्यार का संदेश दिया। उन्होंने सभी जनता को उपदेश दिया कि मनुष्य को हमेशा अन्य लोगों से ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा वे स्वयं के प्रति व्यवहार करने की उम्मीद रखते हैं।

उन्होंने लोगों को कहा कि एक दूसरे की सेवा करनी ही सच्ची ईश्वर सेवा है। ईसा मसीह ने हमेशा से ही कर्मकांड और पाखंड का विरोध किया। इजरायल में उस समय पशु बलि और कर्मकांड काफी ज्यादा प्रचलन में था। वे हमेशा यहूदी पशु बलि और कर्मकांड का विरोध करते थे।

ईसा मसीह के 12 शिष्यों ने भी शिक्षा लेकर ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार किया। धरती के हर कोने में उनके शिष्यों ने इस समस्या के चमत्कार की बखान की। कहा जाता है कि ईसा मसीह ने धर्म प्रचार के दौरान कई आश्चर्यचकित चमत्कार भी किए थे।

इन्होंने प्रार्थना के जरिए बीमार लोगों को स्वस्थ किया था। बाइबिल में भी इनके चमत्कार के बारे में उल्लेख किया गया है। जिसमें बताया गया है कि इन्होंने अपने शक्ति के बलबूते लोगों को जिंदा भी किया है, दुष्ट आत्माओं से ग्रसित व्यक्ति को मुक्ति भी दिलाई है।

हालांकि ईसा मसीह के उपदेश यहूदी धर्म की मान्यताओं से भिन्न थे, जिसके कारण इनके कुछ उपदेश यहूदियों के कट्टरपंथी लोगों को भाते नहीं थे, जिसके कारण वे ईसा मसीह के विरोधी बन चुके थे। हालांकि दूसरी जनता ईसा मसीह के उपदेश से काफी ज्यादा प्रशन्न थी।

ईसा मसीह चमत्कार से यहूदी लोगों के बीच काफी ज्यादा लोकप्रिय हो गए थे और इजराइल की जनता ने मान लिया था कि यही वह मसीहा है, जो उन्हें रोमन साम्राज्य से मुक्ति दिलाएगा। उस वक्त यहूदी बहुल राज्य पर रोमन सम्राट तिबेरियस का शासन था। उसने बपतिस्ता नाम के एक गवर्नर को नियुक्त किया था, जो राज्य की शासन व्यवस्था को देखता था।

सभी यहूदी लोग अपने आपको राजनीतिक रुप से परतंत्र मानते थे और वह इंतजार कर रहे थे ऐसे मसीहा की, जो उन्हें गुलामी से मुक्ति दिलाएंगे। जब 27 इसवी सन में  योहन बपतिस्ता यह संदेश लेकर बपतिस्मा देने लगे कि स्वर्ग का राज्य निकट है। उसके बाद यहूदियों की आशा व उम्मीद और भी ज्यादा बढ़ गई कि मसीहा शीघ्र ही उनकी मदद करने के लिए आने वाले हैं।

उसके बाद जब इस ईसा मसीह ने सरल भाषा में लोगों को उपदेश देना शुरू किया, लोगों को अपना चमत्कार दिखाना शुरू किया तब यहूदी लोगों को विश्वास हो गया कि यही वह मसीहा है।

ईसा मसीह यहूदियों के पर्व मनाने के लिए येरुशलम के मंदिर में आया करते थे लेकिन वे उनके धर्म को अपूर्ण समझते थे। उनके शास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित कर्मकांड का विरोध करते थे, उनके अनुसार नैतिकता ही धर्म है।

ईसा मसीह की मृत्यु कब हुई

ईसा मसीह ने लोगों को बताया कि वे ईश्वर का पुत्र है और स्वर्ग का राज्य स्थापित करने के लिए स्वर्ग से उतरे हैं। इस तरीके से उनका यह संदेश का प्रचार प्रसार चारों तरफ होने लगा, जिसके बाद यहूदी के कुछ कट्टरपंथी लोगों के अंदर विरोध की भावना उत्पन्न होने लगी।

वह समझने लगे कि ईसा मसीह जिस स्वर्ग का राज्य स्थापित करना चाहते हैं, वह एक नया धर्म है, जिसका संबंध यरुशलम के मंदिर से नहीं है। जिसके कारण वे ईसा मसीह को यहूदी धर्म की मान्यताओं के खिलाफ मानने लगे।

उसके बाद कुछ कट्टरपंथी यहूदी लोग उस वक्त के रोमन गवर्नर पिलातुस के पास शिकायत करने के लिए गए। कहा जाता है कि पिलातुस को ईसा मसीह के उपदेश से कोई समस्या नहीं थी लेकिन रोमन लोगों को हमेशा यहूदी क्रांति का डर रहता था।

जिसके कारण कट्टरपंथियों को प्रसन्न करने के लिए पिलातुस ने ईसा मसीह को मौत की दर्दनाक सजा सुना दी। ईसा मसीह ने अपने संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए 12 शिष्यों का चुनाव किया। उन्हें शिक्षित किया और अधिकार प्रदान किया ताकि वे हर जगह पर जाकर उनके संदेशों का प्रचार-प्रसार करें।

कहा जाता है कि 29 ईसवी सन में एक दिन ईसा मसीह गधी पर सवार होकर यरूशलम पहुंचे, जहां पर उन्होंने अपने सभी 12 शिष्यों के साथ अंतिम भोजन किया और वहीं पर उन्हें दंडित करने के लिए षडयंत्र रचा गया।

कहा जाता है कि इस षड्यंत्र में उनके एक शिष्य जूदास ने साथ दिया था। इस तरीके से अपने शिष्य जुदास के विश्वासघात के कारण वे गिरफ्तार हो गए।

कहा जाता है गिरफ्तार करने के बाद ईसा मसीह पर बहुत जुल्म किए गए, उन्हें क्रूर सजा दी गई, कोडो से मारा गया। कुछ सिपाहियों ने इनके सर पर कंटिली टहनियों को मोड़ कर बनाए मुकुट को रख दिया।

उसके बाद ईसा मसीह को एक बड़ा सा क्रूस दिया गया। जिसे लेकर उन्हें सूली जहां पर दी जाती है, उस स्थान पर लेकर जाना था। इस पूरे रास्ते में उन पर बहुत सारे कोड़े बरसाए गए।

उसके बाद जब उसी स्थान पर पहुंचे तो उन्हें 2 लोगों ने सूली पर लटका दिया और उनके हाथ पैरों में कील ठोक कर उन्हें भारी पीड़ा दी। उन्हें बहुत सारी शारीरिक यातनाएं दी गई, जिसके बाद अंत में उन्होंने अपने देह को त्याग दिया‌।

हर साल अप्रैल महीने में शुक्रवार के दिन को पूरी दुनिया गुड फ्राइडे यानी कि शोक दिवस के रूप में मनाती हैं। कहा जाता है कि इस दिन लगभग 6 घंटे तक ईसा मसीह सूली पर लटके थे और आखिरी के 3 घंटों के दौरान पूरे राज्य में अंधेरा छा गया था।

फिर अचानक से एक चीज आई, जिसके बाद प्रभु ने अपने प्राण त्याग दिए, जिसके बाद एक तेज जलजला आया। कहा जाता है कि इस दिन सभी कब्र की कपाट टूटकर खुल गई, पवित्र मंदिरों का पर्दा नीचे तक फटता चला गया।

कहा जाता है कि क्रूस पर अपने प्राण को त्यागने के दौरान ईसा मसीह ने सभी इंसानों के पाप को स्वयं ले लिया। उन्होंने स्वयं पर अत्याचार डालने वाले सैनिकों एवं रोमन सेनाओं के प्रति भी ईश्वर से कहा कि प्रभु इन्हें क्षमा करना क्योंकि इन्हें नहीं पता यह क्या कर रहे हैं।

यह भी पढ़े: गुड फ्राइडे क्यों मनाया जाता है और इसका इतिहास

ईसा मसीह का दोबारा जीवित होना

कहा जाता है कि जब ईसा मसीह ने क्रूस पर अपने प्राण को त्याग दिया तब सूली से उनके शव को उतार कर एक गुफा में रख दिया गया। गुफा के आगे एक पत्थर लगा दिया गया था कि कोई भी अंदर ना जा पाए।

माना जाता है आज भी वह गुफा और गुफा के वह पत्थर मौजूद है। आज यह कब्र खाली है क्योंकि बाद में उनके शव को विधिवत रूप से कहीं और दफनाया गया था।

कहा जाता है कि यरुशलम के प्राचीन शहर की दीवारों से सटा एक प्राचीन पवित्र चर्च है, जिसका नाम चर्च ऑफ द होली स्कल्पचर है। इसी के भीतर ईसा मसीह को दफनाया गया था।

कहा जाता है कि इसी जगह पर उन्होंने अंतिम भोजन ग्रहण किया था। जब उनके शव को यहां पर लाया गया था तब वह पुनः जीवित हो उठे थे।

कहा जाता है कि रविवार का दिन था, जिस दिन केवल एक स्त्री ने उन्हें उनके कब्र के पास जीवित देख लिया। कहा जाता है कि ईसा मसीह के पुनर्जीवित होने की घटना को ईस्टर के रूप में ईसाई लोग आज तक मनाते आ रहे हैं।

ईसाई लोग मानते हैं कि जब ईसा मसीह पुनर्जीवित हो गए तो 40 दिनों तक इस दुनिया में रहे थे। उनसे उनके भक्तजनों के प्रशंसक मिलने आते, उनसे आशीर्वाद लेते।

कहा जाता है कि 40 दिन के बाद वे अपने सभी प्रेरितों को जैतून पहाड़ की ओर ले गए और वहां पर अपने दोनों हाथ उठाकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए स्वर्ग की ओर उड़ते चले गए और उसके बाद एक बादल ने उन्हें ढक लिया।

ईसा मसीह के शिष्य

ईसा मसीह ने अपने धर्म प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए 12 शिष्यों को शिक्षा दी थी, जिन्होंने देश के अलग-अलग कोने में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया।

ईसा मसीह की मृत्यु के पश्चात भी उनके 12 चेलों ने पवित्र आत्माओं से परिपूर्ण होकर उनके कार्य को आगे बढ़ाया। ईसा मसीह के 12 शिष्यो के नाम निम्नलिखित हैं:

अन्द्रियास

अन्द्रियास ईसा मसीह के पहले शिष्य बने थे। कहा जाता है कि इनको यूनानी शहर पेट्रस में लगभग 60 ईसा पूर्व में क्रूस पर बांधकर मारा गया था।

यह सूली पर ईसा मसीह की तरह सीधे लटककर मरने के लिए योग्य नहीं मानते थे, इसलिए उन्होंने अपने आपको टी आकार में लटकाने को कहा।

कहा जाता है कि अंतिम समय तक इन्होंने क्रूस पर से भी ईसा मसीह के उपदेश का प्रचार करते रहे।

शमौन

शमौन जिसे पतरस भी कहा जाता है, इन्हें ईसा मसीह के सबसे प्रमुख शिष्यों में से एक माना जाता है। ये अन्द्रियास के भाई थे। कैथोलिक परंपरा का दावा है कि वह पहले पोप थे‌।

शमौन की मृत्यु रोम में हुई थी। एक बार रोम में भयंकर आग लग गई थी, उस समय निरो के राजा ने आग लगने का दोष मसीहो पर लगा दिया और उन्होंने मसीहो का उत्पीड़न करना शुरू कर दिया। उसी दौरान पतरस को भी सूली पर उल्टा चढ़ा कर उन्हें मृत्युदंड दे दिया गया।

कहा जाता है कि जब शमौन को सूली पर लटकाया जा रहा था तब उन्होंने कहा था कि इसी तरह प्रभु ईसा मसीह को भी लटकाया गया था। मैं इस योग्य नहीं हूं, इसलिए मुझे उल्टा लटकाया जाए।

याकूब

याकूब ईसा मसीह के मुख्य शिष्यों में से एक थे। याकूब, हलफई का पुत्र और प्रेरित मत्ती का भाई था। याकूब के बारे में बाइबल में ज्यादा कुछ वर्णन नहीं किया गया है।

लेकिन दूसरी और तीसरी शताब्दी में रहने वाले एक धर्मविज्ञानी हिप्पोलिटस ने याकूब की मृत्यु के बारे में दर्ज किया है कि याकूब को यरूशलेम में यहूदियों को उपदेश देते हुए मौत के घाट उतार दिया गया था।

यूहन्ना

यूहन्ना याकूब का भाई था। यूहन्ना ईसा मसीह के सबसे प्रिय शिष्य थे। यह भी कहा जाता है कि यूहन्ना ईसा मसीह के सभी शिष्यों में सबसे छोटे थे। यह पेशे से मछुआरे थे।

कहा जाता है मसीहा विरोधियों ने यूहन्ना को उबलते हुए तेल की कढ़ाई में डालकर मारना चाहा, लेकिन फिर भी उन्हें कुछ भी नहीं हुआ और वह बच गए।

फिलिप्पुस

फिलिप्पुस ईसा मसीह के 12 शिष्यों में से एक थे। ईसा मसीह के मृत्यु के बाद यह रूस चले गए और वहां इन्होंने लगभग 20 वर्षों तक ईसा मसीह के धर्म का प्रचार-प्रसार किया।

लेकिन वहां पर इनके कुछ विरोधियों ने इन्हें 80 ईसवी सन में क्रूस से बांधकर इन पर पथराव किया, जिससे इनकी मृत्यु हो गई।

बरतुलमै

कहा जाता है कि ईसा मसीह के इस शिष्य ने भारत में भी ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इन्होंने मत्ती रचित सुसमाचार का इब्रानी भाषा में भी अनुवाद किया था, जिसे वे भारत साथ में लेकर आए थे। ईस्वी सन 71 में बरतुलमै को भी क्रूस पर चढ़ा कर मृत्यु दे दी गई थी।

थोमा

कहा जाता है थोमा भी ईसा मसीह के मृत्यु के पश्चात यीशु के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूरी तरीके से जुट गए थे। थोमा ने भी भारत में आकर ईसाई धर्म का प्रचार किया था।

इन्होंने 7 कलीसिया स्थापित किया। कुछ लोगों का मानना है कि ईसा मसीह के इस शिष्य की मृत्यु भारत में ही हुई थी।

महसूल लेने वाला मत्ती

चुंगी लेने वाला मत्ती ने कई देशों में ईसा मसीह के धर्म का प्रचार किया। कहा जाता है कि 15 वर्षों तक इन्होंने ईसा मसीह के उपदेशों का प्रचार प्रसार किया, उसके बाद ईस्वी सन 60 में मत्ती को इथोपिया में तलवार से मार डाला गया।

ईसा मसीह के अन्य तीन शिष्य तद्दै, शमौन कनानी और मत्तिय्याह थे।

FAQ

ईसा मसीह को जन्म किसने दिया था?

बाइबल के अनुसार गलिलिया प्रांत के नाजरथ गांव में रहने वाली मरियम नाम की महिला के गर्भ से ईसा मसीह का जन्म हुआ था।

ईसा मसीह ने 12 साल की उम्र में क्या किया था?

ईसाइयों के धार्मिक ग्रंथ बाइबिल में ईसा मसीह के 12 वर्ष के उम्र की एक घटना के बारे में बताया गया है कि 12 वर्ष की उम्र में ईसा मसीह अपनी मां मरियम और पिता यूसुफ एवं रिश्तेदारों व दोस्तों के एक बड़े समूह के साथ तीर्थ यात्रा पर यरूशलेम गए थे।

क्या ईसा मसीह के पुत्र थे?

बाइबिल में ईसा मसीह के पुत्र का कोई भी जिक्र नहीं किया गया है। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि ईसा मसीह ने अपनी एक शिष्य मेरी मेग्दलीन से विवाह किया था, जिसके पश्चात इन्हें दो बच्चे हुए थे।

ईसा मसीह की मृत्यु कैसे हुई?

कहा जाता है कि यहूदियों के कुछ कट्टरपंथी धर्म गुरुओं को ईसा मसीह के द्वारा खुद को ईश्वर का पुत्र बताना अच्छा नहीं लगा और इनके उपदेश यहूदी मान्यताओं के खिलाफ थे। जिसके कारण उन्होंने रोमन गवर्नर पीलातुस से शिकायत कर दी और रोमन गवर्नर पीलातुस ने ईसा मसीह को सूली पर लटकाने की सजा सुना दी।

ईसाई धर्म कितना पुराना है?

ईसाई धर्म की शुरुआत प्रथम इसविसन सदी में बताया जाता है। कहा जाता है इसके अनुयायी ‘क्रिश्चियन/ईसाई’ कहलाते हैं। इस धर्म की स्थापना ईसा मसीह ने किया था।

ईसाई धर्म में कितनी संप्रदाय हैं?

ईसाई धर्म का धार्मिक ग्रंथ बाइबिल है। ईसाइयों में मुख्ययतः तीन सम्प्रदाय हैं, कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स, प्रोटेस्टेंट।

क्या ईसा मसीह भारत आए थे?

कुछ किताबों में ईसा मसीह के भारत भ्रमण के बारे में बताया गया है। उन किताबों के अनुसार 13 से 29 वर्ष के उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारत में आकर बौद्ध धर्म की शिक्षा ली थी। यहां पर कश्मीर के शालीवाहन राजा से मिले थे। वहीं कुछ शोधकर्ता तो यह भी मानते हैं कि ईसा मसीह भारत में लगभग 100 वर्षों तक रहे थे और यहीं पर श्रीनगर में एक स्थान पर इनकी कब्र भी है।

निष्कर्ष

ईसा मसीह ने ईश्वर के पुत्र के रूप में एक पवित्र आत्मा के रूप में इस धरती पर जन्म लिया था, जिन्होंने ईसाई धर्म की स्थापना करके सभी यहूदी लोगों को सच्चे इंसानी धर्म का पाठ सिखाया था। बाइबल में लिखे गए उनके संदेश आज भी लोगों को प्रेरणा देते हैं और आज भी लोग उनका जीवन में अनुसरण करते हैं।

हमें उम्मीद है कि इस लेख में ईसा मसीह का जीवन परिचय (Story of Jesus Christ in Hindi) आपको पसंद आया होगा। इस लेख को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, फेसबुक इत्यादि के जरिए अन्य लोगों के साथ जरूर शेयर करें। इस लेख से संबंधित कोई भी प्रश्न या सुझाव होने पर आप हमें कमेंट में लिख कर बता सकते हैं।

यह भी पढ़े

बोधिधर्मन का इतिहास और परिचय

साईं बाबा का इतिहास और जीवन परिचय

महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय और जयन्ती

जगतगुरु आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय

Rahul Singh Tanwar
Rahul Singh Tanwar
राहुल सिंह तंवर पिछले 7 वर्ष से भी अधिक समय से कंटेंट राइटिंग कर रहे हैं। इनको SEO और ब्लॉगिंग का अच्छा अनुभव है। इन्होने एंटरटेनमेंट, जीवनी, शिक्षा, टुटोरिअल, टेक्नोलॉजी, ऑनलाइन अर्निंग, ट्रेवलिंग, निबंध, करेंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान जैसे विविध विषयों पर कई बेहतरीन लेख लिखे हैं। इनके लेख बेहतरीन गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं।

Leave a Comment