Jain Dharm Ke 24 Tirthankar Kaun The: जैन धर्म भारत का सबसे प्राचीन धर्म है और इस धर्म के प्रचार प्रसार में योगदान देने वाले 24 तीर्थंकर हुए।
तीर्थंकर का अर्थ होता है तारने वाला। जिन्होंने अपने भीतर के शत्रु पर विजय प्राप्त की और कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। जैन धर्म के तीर्थंकरों को अरिहंत कहा जाता है। यह तीर्थंकर जितेन्द्रिय और ज्ञानवन् महापुरुष थे।
इस लेख में जैन धर्म के 24 तीर्थंकर कौन थे के बारे में जानने के साथ ही 24 तीर्थंकर जीवन परिचय और जैन तीर्थंकर लिस्ट के बारे में भी जानेंगे।
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर कौन थे? (Jain Dharm Ke 24 Tirthankar Kaun The)
क्र.सं. | तीर्थंकार का नाम | जन्म | जन्म नगरी | पिता का नाम | माता का नाम | निर्वाण | निर्वाण स्थल |
1 | ऋषभदेव जी | चैत्र कृष्ण नवमी | अयोध्या | नाभिराजा | मरूदेवी | माघ कृष्ण 14 | अष्टापद (कैलाश पर्वत) |
2 | अजितनाथ जी | माघ शुक्ल पक्ष दशमी | अयोध्या | जितशत्रु | विजया | चैत्र शुक्ल पंचमी | सम्मेदशिखर |
3 | सम्भवनाथ जी | मार्गशीर्ष चतुर्दशी | श्रावस्ती | राजा जितारि | सुसेना रानी | चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी | सम्मेदशिखर |
4 | अभिनन्दन जी | माघ शुक्ल बारस | अयोध्या | संवर | सिद्धार्था | बैशाख शुक्ल छटमी या सप्तमी | सम्मेदशिखर |
5 | सुमतिनाथ जी | बैशाख शुक्ल अष्टमी | अयोध्या | मेघरथ | सुमंगला | चैत्र शुक्ल एकादशी | सम्मेदशिखर |
6 | पद्मप्रभ | कार्तिक कृष्ण पक्ष द्वादशी | कौशाम्बीपुरी | धरण | सुसीमा | फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी | सम्मेदशिखर |
7 | सुपार्श्वनाथ जी | ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष बारस | काशीनगरी | प्रतिस्थसेन | पृथ्वी | फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी | सम्मेदशिखर |
8 | चन्द्रप्रभु जी | पौष कृष्ण पक्ष बारस | चंद्रपुरी | महासेन | सुलक्षणा | भाद्रपद कृष्ण पक्ष सप्तमी | सम्मेदशिखर |
9 | सुविधिनाथ (पुष्पदंत) | मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी | काकन्दी | सुग्रीव | रामा | भाद्र शुक्ल नवमी | सम्मेदशिखर |
10 | शीतलनाथ जी | माघ कृष्ण पक्ष द्वादशी | भद्रिकापुरी | दृढ़रथ | सुनन्दा | बैशाख कृष्ण पक्ष दूज | सम्मेदशिखर |
11 | श्रेयांसनाथ | फागुन कृष्ण पक्ष ग्यारस | सिंहपुरी | विष्णुराज | विष्णु | श्रावण शुक्ल पक्ष पूर्णिमा | सम्मेदशिखर |
12 | वासुपूज्य | फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी | चम्पापुरी | वासुपुज्य | जया देवी | आषाढ़ शुक्ल पक्ष चतुर्दशी | चम्पापुरी |
13 | विमलनाथ जी | माघ शुक्ल चतुर्थी | काम्पिल्य | कृतवर्मा | श्याम देवी | आषाढ़ शुक्ल सप्तमी | सम्मेदशिखर |
14 | अनन्तनाथ जी | वैशाख कृष्ण पक्ष त्रयोदशी | विनीता | सिंहसेन | सूर्वशया | चैत्र शुक्ल पंचमी | सम्मेदशिखर |
15 | धर्मनाथ जी | माघ शुक्ल तृतीया | रत्नपुरी | भानुराजा | सुव्रता | ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष पंचमी | सम्मेदशिखर |
16 | शांतिनाथ जी | ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष त्रयोदशी | हस्तिनापुर | विश्वसेन | आर्या | ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष त्रयोदशी | सम्मेदशिखर |
17 | कुन्थुनाथ जी | कृष्ण पक्ष चतुर्दशी | हस्तिनापुर | सूर्य | श्रीकांता देवी | मार्गशीर्ष दशमी | सम्मेदशिखर |
18 | अरहनाथ जी | मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष दशमी | हस्तिनापुर | सुदर्शन | मित्रसेन देवी | मार्गशीर्ष दशमी | सम्मेदशिखर |
19 | मल्लिनाथ जी | मार्गशीर्ष शुक्ल ग्यारस | मिथिला | कुम्प | प्रभावती | फाल्गुन कृष्ण पक्ष बारस | सम्मेदशिखर |
20 | मुनिसुव्रतनाथ जी | ज्येष्ठ कृष्ण आठम | कुशाक्रनगर | सुमित्र | पद्मावती | ज्येष्ठ कृष्ण नवमी | सम्मेदशिखर |
21 | नमिनाथ जी | श्रावण कृष्ण अष्टमी | मिथिला | विजय | सुभद्रा | वैशाख कृष्ण दशमी | सम्मेदशिखर |
22 | नेमिनाथ जी | श्रावण कृष्ण पंचमी | शोरिपुर | समुद्रविजय | शिवा | आषाढ़ शुक्ल अष्टमी | माउंट Girnar |
23 | पार्श्र्वनाथ जी | पौष कृष्ण दशमी | वाराणसी | अश्वसेन | वामादेवी | श्रावण शुक्ल अष्टमी | सम्मेदशिखर |
24 | महावीर जी | 540 ईसा पूर्व | कुंडलपुर | सिद्धार्थ | त्रिशाला | 468 ईसा पूर्व | पावापुरी |
जैन धर्म क्या है? इसका इतिहास तथा नियम आदि के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहां क्लिक करें।
24 तीर्थंकर जीवन परिचय
ऋषभदेव
ऋषभदेव को जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर माना जाता है। इनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ था। उनकी माता का नाम मरु देवी और पिता का नाम नाभि राजा था। ऋषभ देव स्वयंभू मनु की पांचवीं पीढ़ी में से हुए थे। इनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थी।
ऋषभदेव ने चैत्र कृष्ण नवमी को दीक्षा ग्रहण की थी और फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इनका निर्वाण कैलाश पर्वत क्षेत्र के अष्टापद में माघ कृष्ण 14 को हुआ था।
अजीतनाथजी
अजीतनाथ जी जैन धर्म के दूसरे तीर्थंकर थे। इनकी माता का नाम विजया और पिता का नाम जीतशत्रु था। इनका जन्म अयोध्या में माघ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुआ था।
माघ शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को इन्होंने दीक्षा ग्रहण कर पोष शुक्ल पक्ष की एकादशी को ज्ञान की प्राप्ति की थी। सम्मेद शिखर पर चैत्र शुक्ल की पंचमी को इन्हें निर्वाण प्राप्ति हुई थी।
संभवनाथजी
जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर संभावनाथ जी हुए। उनके माता-पिता का नाम सुसेना रानी और राजा जितारि था। मार्गशीर्ष की चतुर्दशी को श्रावस्ती में इनका जन्म हुआ था। मार्ग शिर्ष के शुक्ल पक्ष के दिन ही पूर्णिमा के समय इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी।
लंबे समय के कठिन तपस्या के पश्चात कार्तिक कृष्ण की पंचमी को इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर इन्होंने निर्वाण प्राप्ति की थी।
अभिनंदनजी
जैन धर्म के चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदन जी हुए। इनकी माता का नाम सिद्धार्थ देवी और पिता का नाम संवर था। माघ शुक्ल की बारस को इनका जन्म अयोध्या में हुआ था। माघ शुक्ल के बारस को ही इन्होंने दीक्षा भी ग्रहण की थी।
सुमतिनाथजी
सुमतिनाथ जी जैन धर्म के पांचवें तीर्थंकर थे। इनकी माता का नाम सुमंगला था और पिता का नाम मेघरथ था। बैशाख शुक्ल की अष्टमी को अयोध्या के साकेत पुरी में इनका जन्म हुआ था।
इन्होंने सन्यासी जीवन के लिए दीक्षा ग्रहण बैशाख शुक्ल की नवमी तिथि को की थी। चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को इन्हे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की थी। इन्हे निर्वाण प्राप्ति चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था।
पद्ममप्रभुजी
पद्मप्रभुजी जैन धर्म के छठे तीर्थंकर थे। उनकी माता का नाम सुसीमा देवी था और पिता का नाम धरण राज था। पदमप्रभु जी का जन्म वत्स कौशांबी में कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को हुआ था।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को इन्होंने सन्यासी जीवन के लिए दीक्षा ग्रहण की थी। कठोर तपस्या के पश्चात चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। सम्मेद शिखर पर फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इन्होंने निर्वाण प्राप्ति की थी।
सुपार्श्वनाथ
सुपार्श्वनाथ जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर थे। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की बारस को हुआ था। उनकी माता का नाम पृथ्वीदेवी और पिता का नाम प्रतिस्थसेन था।
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को इन्होंने सन्यासी जीवन की शुरुआत की। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी को इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। सम्मेद शिखर पर फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन इन्हें निर्वाण प्राप्ति हुई थी।
चन्द्रप्रभु
जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर चंद्र प्रभु हुए। इनका जन्म चंद्रपुरी में पौष कृष्ण पक्ष की बारस को हुआ था। उनकी माता का नाम सुलक्षणा और पिता का नाम राजा महासेन था।
पौष कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को इन्होंने सन्यासी जीवन की शुरुआत की। फाल्गुन कृष्ण पक्ष 7 को इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को सम्मेद शिखर पर इन्होंने निर्वाण प्राप्ति की।
पुष्पदंत
जैन धर्म के नौवे तीर्थंकर पुष्पदंत हुए। इनका जन्म मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी को काकांदी में हुआ था। इनकी माता का नाम रमारानी और पिता का नाम राजा सुग्रीव राज था।
मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की 6 को इन्होंने सन्यासी जीवन की शुरुआत की। कार्तिक कृष्ण पक्ष की तृतीया को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। भाद्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर इन्हें निर्वाण प्राप्ति हुई थी।
शीतलनाथ
जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ जी हुए। इनका जन्म माघ कृष्ण पक्ष की द्वादशी को बद्धिलपुर में हुआ था। उनकी माता का नाम सुनंदा और पिता का नाम दृढ़रथ था।
मघा कृष्ण पक्ष की द्वादशी को इन्होंने सन्यास जीवन शुरू किया। पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इन्हें कैवल्य यह ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख के कृष्ण पक्ष की दूज को सम्मेद शिखर पर इन्हें निर्वाण प्राप्ती हुआ।
श्रेयांसनाथजी
जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी थे। इनका जन्म फागुन कृष्ण पक्ष की ग्यारस को सिंहपुरी नामक स्थान पर हुआ था।
इनकी माता का नाम वेणुश्री था और पिता का नाम विष्णुराज था। इन्होंने श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को निर्वाण प्राप्त किया था।
वासुपूज्य
जैन धर्म के 12वें तीर्थंकर का नाम वासुपूज्य प्रभु था। इनका जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को चंपापुरी नामक स्थान पर हुआ था। इनकी माता का नाम जया देवी और पिता का नाम वसुपूज्य था।
फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अमावस्या को इन्होंने सन्यासी जीवन शुरू की थी। मघा की दूज को कठोर तपस्या के पक्ष इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को इनका निर्वाण हुआ।
विमलनाथ
जैन धर्म के 13वें तीर्थंकर विमलनाथ जी थे। इनका जन्म कपिलपुर में माघ शुक्ल चतुर्थी को हुआ था। इनकी माता का नाम श्याम देवी और पिता का नाम कृतर्वेम था।
मघा शुक्ल पक्ष की तीज को विमलनाथ जी ने सन्यास जीवन के लिए दीक्षा ग्रहण किया था। पौष शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन इन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। सम्मेद शिखर पर आषाढ़ शुक्ल की सप्तमी के दिन इन्हे निर्वाण प्राप्त हुआ।
अनंतनाथजी
जैन धर्म के 14वें तीर्थंकर का नाम अनंतनाथ जी था। इनका जन्म वैशाख कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर में हुआ था। इनकी माता का नाम सर्वयशा तथा पिता का नाम सिंहसेन था।
वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। कठोर तपस्या के पश्चात वैशाख कृष्ण की त्रयोदशी के दिन इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। सम्मेद शिखर पर चैत्र शुक्ल की पंचमी के दिन इन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई।
धर्मनाथ
धर्मनाथ जी जैन धर्म के 15 तीर्थंकर थे। इनका जन्म माघ शुक्ल की तृतीया को रत्नापुर नामक गांव में हुआ था। इनकी माता का नाम सुव्रत और पिता का नाम भुवन था।
मघा शुक्ल की त्रयोदशी को इन्होंने दीक्षा ग्रहण करके अपने सन्यासी जीवन की शुरुआत की कठोर। वर्षों तप करने के बाद पौष की पूर्णिमा के दिन इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की पंचमी को इन्हें निर्वाण प्राप्त हुई।
शांतिनाथ
शांतिनाथ जी जैन धर्म के 16 तीर्थंकर थे, जिनका जन्म वर्तमान हरियाणा के हस्तिनापुर में ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हुआ था। ये इक्ष्वाकु कुल से थे। इनके पिता राजा थे, उनका नाम विश्वसेन था और माता का नाम आर्या था।
ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण करके इन्होंने जीवन को त्याग दिया। पौष शुक्ल पक्ष की नवमी को ज्ञान की प्राप्ति हुई।
ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को निर्वाण के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- हिरण, चैत्यवृक्ष-नंदी, यक्ष- गरूड़, यक्षिणी- अनंतमती हैं।
कुंथुनाथजी
जैन धर्म के सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथजी थे, जिनका जन्म हस्तिनापुर में वैशाख कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीकांता देवी और पिता का नाम राजा सूर्यसेन था।
वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन इन्होंने अपने सन्यासी जीवन की शुरुआत की। फिर कठोर तपस्या के पश्चात चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। इन्हें निर्वाण की प्राप्ति वैशाख शुक्ल पक्ष की एकम के दिन हुई थी।
अरहनाथजी
जैन धर्म के 18वें तीर्थंकर अरहनाथजी हुए। इनका जन्म हस्तिनापुर में मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को हुआ था। इनकी माता का नाम मित्रसेन देवी और पिता का नाम सुदर्शन था।
मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को इन्होंने अपने सन्यासी जीवन की शुरुआत करते हुए कई वर्षो की तपस्या के पश्चात कैवल्य ज्ञान को प्राप्त किये। मार्गशीर्ष की दशमी के दिन इन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई।
मल्लिनाथ
जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ थे। मल्लिनाथ जैन धर्म के श्वेतांबर संप्रदाय से थी। इनका जन्म बिहार के मिथिला में मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को हुआ था। इनकी माता का नाम प्रभावती था और पिता का नाम कुंभराज था।
मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण कर अपने सन्यासी जीवन की शुरुआत की और इसी तिथि को लंबे समय के तपस्या के पश्चात इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति भी हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को इन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।
मुनिसुव्रतनाथ
जैन धर्म के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ थे। इनका जन्म राजगढ़ नामक स्थान पर ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की आठम को हुआ था। इनकी माता का नाम प्रभावती और पिता का नाम सुमित्र था।
फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को दीक्षा करके लंबे वर्षों की तपस्या के पश्चात इसी तिथि को इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की नवमी को इन्हें निर्वाण प्राप्ति हुई।
नमिनाथ जी
अमिनाथ जैन धर्म के इक्कीसवें तीर्थंकर थे, जिनका जन्म बिहार के मिथिला में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को इक्ष्वाकु कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम विजय और माता का नाम सुभद्रा था।
आषाढ़ मास के शुक्ल की अष्टमी को इन्होंने सांसरिक जीवन को त्याग सन्यासी जीवन को अपनाया। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को इन्हे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वैशाख कृष्ण की दशमी को इन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।
नेमिनाथ
नेमिनाथ जी जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर हुए। इनका जन्म श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को शौरपुरी नामक स्थान पर हुआ। यह यादव वंश से ताल्लुक रखते थे। इनके पिता का नाम राजा समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था।
श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को इन्होंने दीक्षा ग्रहण कर अपने सन्यासी जीवन की शुरुआत की और फिर गिरनार पर्वत पर चले गए।
वहां लंबे समय के तपस्या के पश्चात आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को किसी स्थान पर निर्वाण की भी प्राप्ती हुई।
पार्श्र्वनाथ जी
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी थे, जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी में पौष कृष्ण पक्ष की दशमी को हुआ था। इनके पिता का नाम राजा अश्वसेन तथा माता का नाम वामा था।
चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को इन्होंने सन्यासी जीवन की शुरुआत की और फिर कठोर तपस्या के पश्चात चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। श्रावण शुक्ल की अष्टमी को इन्हे निर्वाण प्राप्त हुआ।
महावीर स्वामी
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व में बिहार राज्य के वैशाली जिले के कुंडग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो ज्ञायात्री कुल के सरदार थे। वहीं इनकी माता का नाम त्रिशला था।
महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोदा था। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम अनुजा प्रियदर्शनी था। महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था।
मात्र 30 वर्ष की उम्र में महावीर स्वामी ने अपने बड़े भाई नंदीवर्धन से अनुमति लेकर सन्यास जीवन के लिए निकल पड़े। इन्होंने 12 वर्षों की कठिन तपस्या की। उसके बाद जृम्भिक के समीप रिजु पालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे कठिन तपस्या के पश्चात ज्ञान की प्राप्ति हुई।
आत्मज्ञान का बोध होने के बाद महावीर स्वामी जिन, अर्हत और निग्रंथ कहलाए। इन्होंने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया। महावीर स्वामी के प्रथम अनुयाई उनके दामाद जामिल थे। उनके अनुयायियों को निग्रंथ कहा जाता था।
महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों को 11 गंधर्व में विभाजित किया था। 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी की मृत्यु 468 ईसा पूर्व में बिहार राज्य के पावापुरी में हुआ था। उनकी मृत्यु के पश्चात कुछ वर्षों के बाद जैन धर्म श्वेतांबर और दिगंबर दो संप्रदायों में बट गया था।
महावीर स्वामी का जीवन परिचय और उपदेश के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहां क्लिक करें।
FAQ
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए, जिनमें से 19वां तीर्थंकर मल्लिनाथ एक महिला थी और वह जैन धर्म के श्वेतांबर संप्रदाय से थी।
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए, जिसमें से 23 तीर्थंकर विवाहित थे। लेकिन जैन धर्म के 22वें तीर्थकर नेमिनाथ ने अपनी शादी के दौरान मारे जा रहे जानवरों की चीख सुनकर शादी को छोड़ जानवरों को बचाने के लिए चले गए थे।
वैसे जैन साहित्य बहुत विशाल माना जाता है, जिसमें संस्कृत, प्राकृतिक और अपभ्रंश भाषाओं में साहित्य लिखा हुआ मिलता है। लेकिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की बिहार के मगध क्षेत्र से थे। इसीलिए इन्होंने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिया है।
जैन धर्म का पवित्र ग्रंथ आगम को माना जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकिर्ण, 6 सूत्र, चार मूल सूत्र, एक नंदी सूत्र और एक अनुयोगद्वारा हैं। इस ग्रंथ की रचना महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद श्वेतांबर संप्रदाय के आचार्य के द्वारा की गई थी।
निष्कर्ष
उपरोक्त लेख में जैन धर्म के 24 तीर्थंकर जिन्होंने वर्षों तक तप करके आत्मज्ञान की प्राप्ति करके जैन धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनके जीवन परिचय (Jain Dharm Ke 24 Tirthankar Kaun The) के बारे में जाना।
हमें उम्मीद है कि आज के इस लेख के जरिए आपको जैन धर्म के महान 24 तीर्थकरों से संबंधित सभी प्रश्नों का जवाब मिल गया होगा।
यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो इसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए अन्य लोगों के साथ भी जरूर शेयर करें। इस लेख से संबंधित कोई भी प्रश्न या सुझाव हो तो आप हमें कमेंट में लिखकर बता सकते हैं।
यह भी पढ़े
बौद्ध धर्म क्या है? इसका इतिहास तथा नियम
जैन प्रथा मिच्छामी दुक्कड़म क्या है और इसका हिंदी अर्थ