Govind Guru Biography in Hindi: भारत की भूमि पर कई सामाजिक और धार्मिक सुधारक हुए, जिन्होंने अपना पूरा जीवन अपने देश एवं लोगों की मदद करने में समर्पित किया। ऐसे ही एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक गोविंद गिरी थे, जिन्हें गोविंद गुरु के नाम से जाना जाता है।
इन्होंने राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में आदिवासी वर्ग के लोगों को ब्रिटिश शासन के अत्याचार से बचाने के लिए भगत आंदोलन को शुरू किया था। वनवासी बंधुओं के मध्य गोविंद गुरु बहुत प्रख्यात हुए।
इन्होंने शिक्षा का प्रसार एवं सामाजिक सुधार का संदेश दिया। क्योंकि शिक्षा की कमी के कारण ही आदिवासी लोग अंग्रेजों की गुलामी को सह रहे थे। आदिवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा करके ब्रिटिश सरकार की गुलामी को खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आज के इस लिए के माध्यम से हम गोविंद गुरु के इतिहास एवं इनके जीवन परिचय से अवगत होते हैं। साथ ही इनके जन्म, शिक्षा, सम्प सभा की स्थापना, मृत्यु आदि के बारे में विस्तार से जानेंगे।
गोविंद गुरु का जीवन परिचय (Govind Guru Biography in Hindi)
नाम | गोविंद गिरी |
उपनाम | गोविंद गुरु |
पेशा | समाज सुधारक |
जन्म तारीख | 20 दिसंबर 1858 |
जन्म स्थान | बासिया गांव, डूंगरपुर (राजस्थान) |
माता का नाम | लाडकी देवी |
पिता का नाम | बसर बंजारा |
पत्नी का नाम | गनी देवी |
धर्म | हिंदू |
जाति | भील |
मृत्यु | 30 अक्टूबर 1931 |
गोविंद गुरु का जन्म और शुरुआती जीवन
गोविंद गिरी का जन्म राजस्थान के डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में 20 दिसंबर 1858 को हुआ था। यह एक बंजारा परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो गौर जाति के थे। इनके पिता का नाम बसर बंजारा और पत्नी माता का नाम लाडकी देवी था।
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती से गोविंद गिरी काफी ज्यादा प्रभावित हुए थे और उनसे इन्हें इनके जीवन में बहुत प्रेरणा मिली थी और उन्ही से प्रेरणा पाकर इन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज के लिए समर्पित करने का निर्णय ले लिया।
इनके पुत्र एवं पत्नी की मृत्यु के पश्चात ये अध्यात्म की ओर चल पड़े और फिर इन्होंने संन्यास ले लिया। उसके बाद कोटा बूंदी अखाड़े के साधू राजगिरी के शरण में चले गए, बाद में उनके शिष्य बन गए।
इस तरह इन्होंने भले ही स्कूली शिक्षा प्राप्त ना कि लेकिन आध्यात्मिक शिक्षा जरूर प्राप्त की। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात बेडचा गांव में धुणी स्थापित कर और ध्वज लगाकर आसपास के क्षेत्रों में भी लोग को आध्यात्मिक शिक्षा देना आरंभ कर दिया।
उस दौरान इन्होंने निर्धन, विनम्र एवं जंगली भीलों के मध्य काफी समय गुजारा था, जिनमें कोई भी ज्ञानी नहीं था। वह जब इनकी झोपड़ी में आते थे तब गोविंद गुरु उन्हें स्वर्णम की तरह आचरण करने की सलाह दिया करते थे। उन्हें सत्य एवं धर्म के रास्ते चलने की सीख देते थे।
भीलों को दूसरों के साथ शत्रुता ना रखने, प्रेम भाव से एक साथ रहने, चोरी ना करने, भगवान की पूजा करने, अपना जीवन व्यापन करने हेतु कृषि करने, अन्य लोगों के साथ शांतिपूर्ण व्यवहार रखने एवं माता-पिता, अपनों से बड़ों का आदर करने जैसे उपदेश दिया करते थे।
उस समय तत्कालीन शासक ने भीलों को कृषि कार्य एवं बेगार करने के लिए उन्हें विवश करना शुरू कर दिया था। जंगलों में उनके अधिकारों से उन्हें वंचित करना शुरू कर दिया। जिसके कारण इन्होंने भीलों के बीच गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए आंदोलन की चिंगारी जलाई।
सम्प सभा की स्थापना
जब भीलों पर सामंतो का अत्याचार बढ़ने लगा तब गोविंद गुरु ने भीलों में सामाजिक एवं राजनीतिक जागृति पैदा करने के उद्देश्य से एवं उन्हें संगठित करके सामंतों की बैठ बेगार बंद करवाने, उनकी गुलामी का विरोध करने के लिए उन्हें प्रेरित करने के उद्देश्य से 1883 में सम्प सभा की स्थापना की।
धीरे-धीरे गोविंद गुरु का प्रभाव गुजरात के भी क्षेत्रों तक फैल चुका था। वह कुछ ही समय में लाखों लोगों के बीच प्रख्यात हो चुके थे, लोग उनके भक्त बन गए थे। उन लोगों के बीच वे भील जीवन के कष्टों के कारणों को उजागर करते हुए, उन्हें शोषण एवं उत्पीड़न व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया करते थे।
सभी भील आदिवासी लोग इकट्ठा होकर सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा कर सके इस उद्देश्य से गोविंद गुरु ने प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला आयोजन करना शुरू कर दिया।
जिसमें सभी भील आदिवासी अपने हाथ में घी के बर्तन और कंधे पर अपने परंपरागत शस्त्र लेकर जाते थे और वहां पर हवन करते हुए घी और नारियल की आहुति दिया करते थे। गोविंद गुरु के इन प्रयासों के फलस्वरूप वागड़ के इन आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार और स्थानीय सामंतों के विरोध की आग धीरे-धीरे सुलगने लगी थी।
गोविंद गुरु ने भील आदिवासियों के प्रति हो रहे शोषण एवं उत्पीड़न को खत्म करने के लिए तत्कालीन शासन को पत्र के जरिए आग्रह किया था कि वे आदिवासियों से बेगार के नाम पर परेशान ना करें, उन्हें उनके धार्मिक परंपराओं के अनुसार रहने दे एवं अकाल पीड़ित होने के कारण खेती पर लिया जा रहा कर घटा दिया जाए।
यह सब देख रियासतों के शासकों को अच्छा नहीं लग रहा था, उन्हें चिंता सताने लगी कि कहीं गोविंद गुरु के कारण इनका शासन खत्म ना हो जाए। जिसके बाद जब उन लोगों को पता चला कि 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी पर सभी भील लोग मार्गशीर्ष पूर्णिमा के उपलक्ष पर वार्षिक मेले का आयोजन कर रहे है।
तब रियासतों के शासकों ने अंग्रेज रेजिडेंट को शिकायत कर दी कि भील डूंगरपुर और बांसवाड़ा में खुद का राज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। वे ब्रिटिश शासकों का विरोध करने की योजना बना रहे हैं और इसी उद्देश्य से हजारों भील मानगढ़ में अपने शस्त्र के साथ इकट्ठे होने वाले हैं।
जिसके बाद अंग्रेजी प्रशासन ने मानगढ़ पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोप चारों तरफ लगा दी और गोविंद गुरु को तुरंत मानगढ़ पहाड़ी छोड़कर जाने का आदेश दे दिया।
उस समय मानगढ़ पहाड़ी पर लाखों आदिवासी लोग इकट्ठा हो चुके थे। अंग्रेज पुलिस ने कर्नल सर्टेन के नेतृत्व में गोलियों की वर्षा करनी शुरू कर दी, जिसके कारण 1500 से भी ज्यादा भील आदिवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी। मानगढ़ पहाड़ी पर उस दिन हुई यह घटना राजस्थान में जलियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से जानी जाती है।
गोविन्द गिरी की मृत्यु
मानगढ़ पहाड़ी पर अंग्रेज पुलिस के द्वारा लाखों आदिवासी भील जाति पर हुई गोलीबारी के बाद गोविंद गुरु को गिरफ्तार करके हैदराबाद जेल में बंद कर दिया गया। गोविंद गिरी के साथ डूंगर के पटेल पुंजा धीर को भी बंदी बना लिया गया था।
इस दौरान भील क्रांति को अंग्रेज शासकों ने बहुत ही निर्दय पूर्वक कुचल दिया। उसके बाद 2 फरवरी 1914 को मुंबई सरकार ने केस की सुनवाई करने के लिए एक ट्रिब्यूनल को गठन किया गया।
इसके बाद 2 फरवरी 1914 को इस ट्रिब्यूनल ने संतरामपुर में मुकदमे की सुनवाई करते हुए गोविंद गिरी को मृत्युदंड की सजा सुनाई। वहीँ पुंजा धीर को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हालांकि बाद में गोविंद गिरी की मृत्यु दंड की सजा को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया।
हालांकि बाद में इनकी सजा को और भी कम किया गया और फिर 12 जुलाई 1923 को इन्हें संतरामपुर जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन इन्हें डूंगरपुर, कुशलगढ़, संतरामपुर और बाँसवाड़ा के राज्यों में प्रवेश ना करने की शर्त रखी गई।
जिसके बाद वे अहमदाबाद संभाग में पंचमहल जिले के झालोद तालुका के कम्बोई गाँव में रहने लगे। इसी स्थान पर 30 अक्टूबर 1931 को इनका देहांत हो गया। इस गांव में एक चबूतरे पर इनका समाधि स्थल भी बनाया गया।
2 सितंबर 2002 को तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गोविंद गुरु के योगदान के कारण उनकी याद में शहीद स्मारक का लोकार्पण किया था। इतना ही नहीं मानगढ़ हिल पर गोविंद गुरु के नाम पर बोटैनिकल गार्डन का उद्घाटन भी किया गया है।
FAQ
गोविंद गुरु को समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। इन्होंने राजस्थान एवं गुजरात के भील आदिवासी लोगों की मदद के लिए और उन पर सामंतों के द्वारा हो रही गुलामी को खत्म करने के लिए सम्प सभा की स्थापना की थी, जिसके माध्यम से इन्होंने उनके बीच सामाजिक और राजनीतिक जागृति को पैदा किया था।
समाज सुधारक गोविंद गिरी ने राजस्थान और गुजरात के आदिवासी लोगों को सामंत शासकों के अत्याचारों से बचाने के लिए और उन पर हो रहे उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाने के उद्देश्य से आदिवासी सीमावर्ती क्षेत्रों में भगत आंदोलन को शुरू किया था।
भील आदिवासियों के बीच सामाजिक और राजनीतिक जागृति पैदा करने एवं उन्हें संगठित करके सामंतों की गुलामी के प्रति विरोध उत्पन्न करने के लिए उन्हें जागृत करने के उद्देश्य से 1883 में सम्प सभा की स्थापना की थी।
निष्कर्ष
इस तरह आज के इस लेख में गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के भील आदिवासियों के बीच प्रख्यात हुए सामाजिक एवं धार्मिक सुधारक गोविंद गिरी के इतिहास एवं उनके जीवन परिचय (Govind Guru Biography in Hindi) से अवगत हुए।
हमें उम्मीद है कि आपको यह लेख पसंद आया होगा और गोविंद गुरु के जीवन से जुड़ी तमाम बातें जानने को मिली होगी। इस लेख को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ताकि अन्य लोगों को भी समाज सुधारक गोविंद गुरु के जीवन से परिचित होने का मौका मिले।
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