सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी

नमस्कार दोस्तों, कहानी की इस श्रृंखला में आज हम आपको राजा हरिश्चंद्र जी की कहानी से अवगत कराने जा रहे हैं कि कैसे उन्होंने इंद्र जी के द्वारा ली परीक्षा को पूरी सत्यता और निष्ठा के साथ सम्पूर्ण की। आप इस कहानी को अंत तक जरूर पढ़िएगा।

एक बार अयोध्या शहर में एक राजा रहा करता था, जो बहुत ही प्रतापी और साहसी था, उनका नाम राजा हरिश्चंद्र था। इनको सभी लोग राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र के नाम से बुलाते थे, क्योंकि हरीश चंद्र जी ने अपने जीवन में हमेशा सत्य और धर्म का पालन किया था। राज्य में सभी लोग अपने राजा हरिश्चंद्र से बहुत खुश थे और उनके राज्य में सभी लोग बहुत खुशी से रहा करते थे।

हमेशा सत्यवादी और धर्म परायण का पालन करने के कारण कई भगवान राजा हरिश्चंद्र से बहुत खुश रहते थे और बहुत सारे भगवानों को राजा हरिश्चंद्र की तारीफ करते सुनते हुए। भगवान इंद्र को राजा हरिश्चंद्र जी से बहुत क्रोध आने लगा था, जिस कारण भगवान इंद्र राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र से खुश नहीं रहते थे, जिसके बाद भगवान इंद्र ने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र जी एक कठोर परीक्षा लेने का निर्णय लिया।

जिसके कारण उन्होंने भगवान विश्वामित्र को अपने पास बुलाया और उनसे कहा तुमको अयोध्या के राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र की परीक्षा लेनी है, जिसके बाद भगवान विश्वामित्र जी भगवान इंद्र की आज्ञा का पालन करते हुए सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए तैयार हो गए।

raja harishchandra ki kahani

जिसके बाद उन्होंने जब एक रात को सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र बहुत ही गहरी नींद में सो रहे थे तब भगवान विश्वामित्र जी ने सत्यवादी हरिश्चंद्र को ऐसा सपना दिखाया कि हरिश्चंद्र जी अपना सारा राज्य, धन, दौलत सब कुछ भगवान विश्वामित्र जी को दान में दे रहे हैं।

जिसके बाद अगले ही दिन सुबह होते ही भगवान विश्वामित्र जी राजा हरिश्चंद्र के पास पहुंचते हैं और उनसे कहते हैं कि हरिश्चंद्र तुम मुझे मेरा राज्य दो, जो तुमने सपने में मुझे दिया था। जिसके बाद अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र जी ने विश्वामित्र जी को अपना सारा राज्य महल और अपना सारा धन विश्वामित्र जी को दान में दे दिया। लेकिन सब कुछ दान में लेने के बाद भी विश्वामित्र जी राजा हरिश्चंद्र की से कहते हैं कि तुमने मुझे दान तो दिया है, लेकिन कोई दक्षिणा नहीं दी।

जिसके लिए तुम्हें मुझे दक्षिणा देनी होगी और दक्षिणा में तुमको एक हजार सोने के सिक्के देने होंगे। जिसके बाद राजा हरिश्चंद्र जी भगवान विश्वामित्र जी से कहते हैं कि मैंने तो अपना सब कुछ आपको दे दिया है, अब मेरे पास दक्षिणा देने के लिए कुछ भी नहीं है। लेकिन आप मुझे एक महीने का समय दें, जिससे मैं आपको आपके मांगे हुए एक हजार सोने के सिक्के दे दूंगा।

जिसके बाद राजा हरिश्चंद्र जी दान में अपना सब कुछ देने के कारण अपनी पत्नी और बच्चे के साथ अयोध्या को छोड़कर चले आते हैं। कुछ दिन की यात्रा करने के पश्चात वह काशी नगरी पहुंच जाते हैं। बहुत से लोगों का मानना यह है कि काशी नगरी भगवान शंकर जी के त्रिशूल पर बसी हुई है और काशी में ही भगवान निवास करते हैं।

काशी पहुंचकर राजा हरिश्चंद्र जी अपनी पत्नी को एक बहुत ही अच्छे ब्राह्मण व्यक्ति को सौंप देते हैं और अपने बच्चे को भी अपनी पत्नी के साथ उसी ब्राह्मण व्यक्ति को सौंप देते हैं, जिसके बाद राजा हरिश्चंद्र जी वहां से चले जाते हैं।

कुछ दूर पहुंच कर वह अपने आप को भी एक शमशान कर्मी को बेच देते हैं और वहां पर काम करने लगते हैं। जिसके बाद शमशान कर्मी राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र जी को कहता है कि यहां पर तभी किसी की चिता को अग्नि दी जाएगी जब तुम उनसे चिता को जलाने के लिए धन ले लोगे। अगर कोई भी व्यक्ति धन नहीं दे रहा है तो तुम उनके साथ लाई हुई चिता को अग्नि नहीं जलाने दोगे और उनको वहां से वापस भेज दोगे।

जिसके बाद राजा हरिश्चंद्र जी श्मशान कर्मी की बात मानकर उसकी आज्ञा का पालन करने लगते हैं और भगवान विश्वामित्र जी को दिए हुए समय के अनुसार उनको दक्षिणा के रूप में एक हजार सोने के सिक्के दे देते हैं। उधर राजा हरिश्चंद्र जी की पत्नी जिसको राजा हरिशचंद जी ने ब्राह्मण के हाथों दे दिया होता है, वह उन्हीं ब्राह्मण के घर पर नौकरानी का काम करने लगते हैं और अपने बच्चे को साथ में रखते हैं।

जब एक दिन उस ब्राह्मण ने अपनी पूजा करने के लिए राजा हरिश्चंद्र जी के बेटे से कहा कि जाओ तो जंगल में जाकर मेरे लिए फूल लेकर आओ, जिससे मैं अपनी पूजा विधि विधान से कर सकूं। ब्राह्मण की बात मानकर राजा हरिश्चंद्र जी का बेटा जंगल में चला जाता है और और एक पेड़ से फूल तोड़ने लगता है तभी अचानक से वहां पर एक जहरीला सांप आ जाता है और राजा हरिश्चंद्र के बेटे को काट लेता है।

जिसके बाद वह उस जहरीले सांप के काटने के कारण वहीं पर जमीन पर गिर जाता है और थोड़ी ही देर में उसकी मृत्यु हो जाती है। जिसके बाद जब यह बात राजा हरिश्चंद्र जी की पत्नी को पता लगती है तो वह तुरंत अपने बेटे के पास दौड़कर चली आती हैं और उसको मृत देखकर बहुत रोने लगती हैं। फिर वह अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने के लिए अकेले ही श्मशान घाट की ओर चली जाती हैं।

जिसके बाद जब वे शमशान घाट पहुंचती है तो उनको राजा हरिश्चंद्र जी कहते हैं कि तुम श्मशान घाट के अंदर नहीं जा सकती हो। अगर तुम श्मशान घाट के अंदर जाना चाहती हो तो तुम इसके लिए मुझे पहले कुछ धन दो नहीं तो तुम अंदर नहीं जा सकोगी। कुछ ही देर में जब राजा हरिश्चंद्र जी की पत्नी उनको ध्यान से देखती है तो तुरंत उनको पहचान जाती है और कहने लगती है कि स्वामी मैं आपकी पत्नी हूं और आपके बेटे का ही निधन हुआ है जिस को सांप ने काट लिया है।

राजा हरिश्चंद्र यह सुनकर अंदर से बहुत टूट जाते हैं। लेकिन वह अपने कर्तव्य का पालन करना नहीं भूलते हैं। जिसके बाद वह अपने बेटे और पत्नी को भी अपने कर्तव्य के आगे आने नहीं देते हैं और अपनी पत्नी से कहते हैं कि अगर तुम अपने बेटे की चिता का अंतिम संस्कार करना चाहती हो तो इसके लिए तुम्हें मुझे कुछ धन देना होगा। मुझे मेरे मालिक ने ऐसा करने के लिए बोला है, जिनकी आज्ञा का पालन मैं कर रहा हूं, मैं मजबूर हूं।

जिसके बाद राजा हरिश्चंद्र जी की पत्नी उनसे कहती है कि मेरे पास पैसे नहीं है, मेरे पास सिर्फ मेरे पहने हुए कपड़े ही हैं, जिनको आप ले लीजिए। जिसके बाद जैसे ही राजा हरिश्चंद्र जी की पत्नी अपने कपड़े उतार कर उनको देने लगती है तभी वहां पर अचानक से भगवान विष्णु, भगवान इंद्र और भगवान विश्वामित्र जी प्रकट हो जाते हैं और राजा हरिश्चंद्र जी की पत्नी को ऐसा करने से रोकते हैं।

जिसके बाद भगवान विश्वामित्र जी राजा हरिश्चंद्र जी को बताते हैं कि भगवान इंद्र आपकी कठोर परीक्षा ले रहे थे, जिसमें आप सफल हुए हैं। आपने जो सपने में मुझे दान दिया था, वह सब एक माया थी और आपका बेटा जीवित है, उसको किसी सांप ने नहीं काटा है। यह सब एक माया का खेल था, जिसके कारण आप लोगों को ऐसा लग रहा था कि यह आप लोगों के साथ सच में हो रहा है।

आप जिस शमशान कर्मी के यहां पर काम कर रहे थे, वह कोई और नहीं है बल्कि वह हमारे भगवान धर्मराज जी हैं। यह सुनकर राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र जी सभी देवताओं के आगे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और अपने बेटे को जीवित देखकर उसको अपने गले से लगा लेते हैं। जिसके बाद विश्वामित्र जी राजा हरिश्चंद्र जी को अयोध्या का राज और सारा धन सब कुछ वापस दे देते हैं और वहां से वापस चले जाते हैं। इसके बाद राजा हरिश्चंद्र जी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अयोध्या लौट कर खुशी खुशी अपना जीवन व्यतीत करने लगते हैं।

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