आज हम इस आर्टिकल में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी (raja harishchandra ki kahani) पूरे विस्तार के साथ आपको बताएँगे तो हमारे लेख के अंत तक बने रहे।
राजा हरिश्चंद्र एक सत्यवादी राजा थे। त्रेता युग में जन्मे हरिश्चन्द राजा को उनकी सत्य निष्ठा के लिए आज कलियुग में भी जाना जाता है।
आज भी जब सत्य की बात होती है, तो हमारे मन में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का नाम जरूर आता है। सत्य का प्रतीक राजा हरिश्चंद्र को सत्य बोलने के लिए अनेक कष्ट सहने पड़े थे।
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी (Raja Harishchandra ki Kahani)
राजा हरिश्चंद्र धर्मपरायण, सच बोलने और वचन पालन के लिए मशहूर थे। वे भगवान राम के पूर्वज थे। इतिहास में महाराजा हरिश्चंद्र के जैसा राजा आज तक कोई नहीं हुआ है।
पौष माह में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन राजा हरिश्चंद्र का जन्म हुआ था। राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा सत्यव्रत के पुत्र थे।
इनकी पत्नी का नाम तारामती था और पुत्र का नाम रोहित था। राजा हरिश्चंद्र हर हाल में सच का साथ देते थे, जिसकी वजह से उनकी कीर्ति चारों और फैली हुई थी। उनकी कीर्ति से देवताओं के राजा इन्द्र को भी जलन हो रही थी।
इसलिए इन्द्रने महर्षि विश्वामित्र को हरिश्चन्द्र की परीक्षा लेने के लिए उकसाया। उनकी प्रसिद्धि के बारे में ऋषि विश्वामित्र ने भी सुना था और उन्होंने स्वयं राजा की परीक्षा लेने के बारे में सोचा।
महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र को अपने योगबल से ऐसा स्वप्न दिखलाया कि राजा स्वप्न में ऋषि को पूरा राज्य दान में दे रहे हैं।
सुबह जब हरिश्चंद्र अपने दरबार में गए तो उनसे मिलने 1100 ब्राह्मणों के साथ महर्षि विश्वामित्र वहां आ गए। राजा हरिश्चंद्र ने महर्षि विश्वामित्र का स्वागत जोरशोर से किया।
अब राजा हरिश्चंद्र ने महर्षि विश्वामित्र को रात में आए हुए सपने की बात बताई और अपना राज्य उन्हें सौंप दिया। बाद में राजा हरिश्चन्द्र ने सभी ब्राह्मणों को भोजन करवाया और दक्षिणा देने लगे।
राजा जब दक्षिणा देने लगे तब ऋषि ने कहा कि तुम पहले ही अपने राजपाट के साथ-साथ अपना राजकोष भी दान में दे चुके हो। भोजन करने के बाद सभी 1100 ब्राहमण को दक्षिणा में कम से कम एक-एक स्वर्ण मुद्राएँ तो देनी होगी अन्यथा तुम पाप के भागीदारी बनोगे।
राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को अपने राजपाट के साथ-साथ राजकोष भी दान में दे दिया था। अब उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। विश्वामित्र ने दान में माँगी हुई स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को एक पंडित के यहां बेच दिया।
अपने पति के धर्म की रक्षा के लिए पत्नी तारामती और पुत्र रोहित दोनों ने साथ दिया और दोनों पंडित के साथ चले गए।
फिर भी राजा स्वर्ण मुद्राएं हासिल नहीं कर सके, इसलिए उन्होंने खुद को भी बेच दिया और सोने की सभी मुद्राएं विश्वामित्र को दान में दे दी। इस तरह राजा ने अपना वचनपालन और अपनी मर्यादा को निभाया।
राजा हरिश्चंद्र ने खुद को एक श्मशान के चांडाल के वहां बेचा था, जो शवदाह के लिए आए मृतक के परिजन से कर लेकर उन्हें अंतिम संस्कार करने देता था। चांडाल के सेवक होकर राजा हरिश्चन्द्र श्मशानघाट की चौकीदारी करने लगे।
राजा हरिश्चंद्र अब श्मशान में ही रहने और सोने लगे। मुर्दे के साथ आने वाले चावल और पिंड को खाकर हरिश्चंद्र अपना पेट भरने लगे। श्मशान में अंतिम क्रिया के लिए आने वाले लोगों से कर वसूलना और कफन के कपड़े को हटाना हरिश्चंद्र का काम था।
दूसरी ओर पंडितजी ने रोहित को पुष्प लाने के लिए बगीचे में भेजा। वहां रोहित को एक काले नाग ने डस लिया और रोहित की वहां पर मृत्यु हो गई।
पत्नी तारा अपने पुत्र के अंतिम संस्कार के लिए उस श्मशान में लेकर आई, जहां पर राजा हरिश्चंद्र थे। श्मशान में प्रवेश करते ही रानी तारा फुट-फुट कर रोने लगी।
वहां पर राजा ने रानी से भी अंतिम संस्कार के लिए कर मांगा। कर के लिए रानी के पास कुछ भी नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी साड़ी को फाड़कर कर चुकाना चाहा।
तभी आसमान में बिजली चमकी। बिजली की रोशनी में हरिश्चंद्र को उस अबला स्त्री का चेहरा नजर आया। वह स्त्री उनकी पत्नी तारा थी और उसके हाथ में उनके पुत्र रोहित का शव था।
अपनी पत्नी की यह दशा और पुत्र के शव को देखकर हरिश्चंद्र अंदर से पूरे हिल गए और भावुक बन गए। उस दिन उनका एकादशी का व्रत भी था और उनकी आंखों में आंसू भरे थे।
लेकिन फिर भी वह अपने कर्तव्य की रक्षा के लिए आतुर थे। उन्होंने अपनी पत्नी से भारी मन से कहा कि “मैं यहां का सेवक हूं और मैं अपने मालिक के साथ किसी प्रकार का धोखा नहीं कर सकता। आपको अपने बेटे के अंतिम संस्कार के लिए कर चुकाना होगा।”
उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि जिस सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने अपना महल, राजपाट तक त्याग दिया, स्वयं और अपने परिवार को बेच दिया, आज यह उसी सत्य की रक्षा की घड़ी है।
जैसे ही रानी अपनी साड़ी फाड़ने चली, ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई और स्वयं भगवान नारायण प्रकट हुए और उन्होंने राजा से कहा “हरिश्चन्द्र! तुम परीक्षा में सफ़ल हुए। तुम एक सच्चे सत्यवादी राजा हो। तुम इतिहास में अमर रहोगे। हम सब देवताओं मिलकर तुम्हारी सत्यनिष्ठा, कर्त्तव्यनिष्ठा और धर्म की परीक्षा कर रहे थे, जिसमें तुम सफल हो गए।”
तुम्हारा पुत्र रोहित मरा नहीं है। महर्षि विश्वामित्र ने अपने योगबल से उसे बेहोश किया था और तुम जो चाण्डाल के यहां काम कर रहे हो वो स्वयं चाण्डाल के रूप में साक्षात धर्मराज थे।
इतने में ही रोहित जीवित हो उठा और ईश्वर की अनुमति से विश्वामित्र ने भी हरिश्चंद्र का राजपाठ उन्हें वापस लौटा दिया गया।
महर्षि विश्वामित्र ने महाराजा हरिश्चंद्र को आशीर्वाद दिया और श्मशान में ही देवताओं ने राजा हरिश्चंद्र और रानी तारामती पर पुष्प वर्षा की।
हरिश्चन्द्र फिर अयोध्या में लम्बे समय तक सत्य-धर्म का राज्य चलाते रहे और अपने अंत समय में अपने बेटे रोहित को राज्य देकर वे सूरपुर सिधार गये।
निष्कर्ष
राजा सत्यवती हरिश्चंद्र की कहानी (raja harishchandra ki katha) से हमें यह सीख मिलती है कि इंसान को किसी भी परिस्थिति में सच का साथ नही छोड़ना चाहिए।
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